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या देवी सर्वभूतेषु…

by
Oct 12, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Oct 2015 12:32:54

 

वर्तमान समय में मनुष्य के दुख का मूल कारण है अशक्ततता। आज व्यक्ति की जीवनमूू्ल्यों के प्रति आस्थाएं पूरी तरह गड़बड़ा गयी हैं। तनाव विस्फोटक होता जा रहा है। सच्ची प्रसन्नता अपवाद जैसी दिखती है। प्राय: सभी को अभाव की शिकायत है। चाहे धन का अभाव हो, या शारीरिक सामर्थ्य का। व्यक्ति दुखी है, उद्विग्न है, समस्याओं से मुक्ति चाहता है। बात साफ है। बड़े लक्ष्य पाने हैं, जीवन सुंदर व सुचारू बनाना है तो शक्ति अर्जित करना जरूरी है। मगर तथ्य यह भी है अर्जित शक्ति का नियोजन सिर्फ कल्याणकारी व लोकमंगल के कायोंर् में ही करना चाहिए वर्ना वह विध्वंसकारी भी हो सकती है।
    शक्ति सदैव लोकमंगल की दृष्टि से सुपात्र का वरण करती है। गौरतलब है कि युद्ध में विजय पाने के लिए राम व रावण दोनांे ने ही शक्ति की आराधना की थी। दोनों की ही पूजा सफल भी हुई। मां शक्ति ने दोनों को ही आशीर्वाद दिया, किन्तु लोकमंगल की दृष्टि से, अलग-अलग। राम की विजय में लोक-कल्याण निहित था। 
शक्ति के अर्जन के लिए प्रस्तुत नवरात्र काल सर्वाधिक फलदायी समय माना जाता है। नवरात्र ऐसा देवपर्व है जिसे हमारे ऋषि-मनीषियों ने आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से विशिष्ट साधनाकाल कहा है। साधक अपनी भावना व आस्था के अनुसार इस दौरान दुर्गा नवार्ण मंत्र, गायत्री महामंत्र व महामृत्युञ्जय मंत्र आदि की साधना कर इच्छित परिणाम अर्जित कर सकता है। हिन्दू दर्शन में शिवरात्रि को महारात्रि एवं जन्माष्टमी को मोहरात्रि के नाम से जाना जाता है। इन रात्रियों के अपने महत्व हैं, परंतु नवरात्र का महत्व सवार्ेपरि है, क्योंकि इस दौरान की गयी साधनाएं कालजयी मानी जाती हैं।
हमारे धर्मशास्त्रों, विशेषकर श्रीमद्देवी भागवत पुराण-मार्कण्डेय पुराण में देवी महात्म्य व मां शक्ति की साधना-उपासना के विधि-विधान विस्तार से वर्णित हैं। इनमें व्यक्ति, धर्म, समाज व राष्ट्रधर्म का निर्धारण करने के लिए अलंकारिक भाषा शैली में विविध रोचक कथा प्रसंगों की संकल्पना की गयी है। इस ग्रंथ में विभिन्न देवशक्यिों के तेज से युक्त भगवती महामाया की परमा शक्ति, ब्रह्मज्ञानरूपा, जगन्मूर्ति, नित्या एवं सर्वव्यापिनी शक्ति के रूप में की गयी विधिपूर्वक अभ्यर्थना  के पीछे कई अमूल्य शिक्षाप्रद दर्शन निहित हैं।
वास्तव में मनुष्य में सात्विक, राजस एवं तामस तीनों ही प्रवृत्तियां निहित हैं। जब उसमें तामसिक प्रवृत्तियां प्रबल होती हैं तो वह उदात्त दैवी गुणों से, सात्विक वृत्तियों से च्युत हो जाता है और उसमें पाशविकता प्रबल हो उठती है, वह ध्वंस का, विनाश का पथ अपना लेता है। इस कुपथ से मुक्ति के लिए नवरात्र में पुरुषार्थ साधिका के रूप में दुर्गा की आराधना का विधान बनाया गया है। यदि मनुष्य दुर्गा चरित्र के उपरोक्त  शिक्षाप्रद प्रसंगों के मर्म को      समझ लें तो जीवन कभी अवनति को प्राप्त  नहीं होगा।
इसी तरह आत्मबल की मजबूती की कारगर साधना है-गायत्री महामंत्र का संकल्पित अनुष्ठान। इस महामंत्र के दिव्य द्रष्टा ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का समूचा जीवन आध्यात्मिक साधनाओं की प्रयोगशाला कहा जा सकता है। ऋग्वेद के तृतीय मंडल के समस्त 62 सूक्त इसके प्रमाण हैं। इसका दसवां मंत्र गायत्री महामंत्र के रूप में लोकविख्यात हो ब्रह्मर्षि की यशगाथा दिग्दिगंत में फहरा रहा है। इस महामंत्र की रचना कर क्षत्रिय राजा विश्वरथ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र बन गये। इतने सामर्थ्यवान कि त्रिशंकु नाम से तीसरी सृष्टि तक रच डाली। भले ही स्वर्गलोक की अप्सरा मेनका ने कई बार मार्गच्युत करने का प्रयन्न किया किन्तु वे डिगे नहीं। अंतत: उनकी साधना रंग ले ही आयी।
वर्तमान युग में मां गायत्री के सिद्ध साधक व अखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक युगऋषि पं़ श्रीराम शर्मा आचार्य ने वैदिक ऋषि विश्वामित्र की इस उपलब्धि को अध्यात्म क्षेत्र में सवार्ेपरि घटना बताते हुए उल्लेख किया है कि अध्यात्म क्षेत्र में इसे क्रांतिकारी अवदान माना जा सकता है।
महामंत्र गायत्री की साधना का अपने 24 लक्ष महापुरष्चरणों के माध्यम से वर्तमान युग में इसे सर्वसुलभ करने का महापुरुषार्थ करने वाले आचार्य श्रीराम शर्मा ने इस मंत्र में समाविष्ट आत्म विज्ञान के तत्वज्ञान को सरल भाषा में जन सामान्य को सुलभ कराकर एक सच्चे राष्ट्रसंत की भूमिका का निर्वहन किया है। वे लिखते हैं-गायत्री महामंत्र में परमेश्वर का सत्य, प्रकृति के तत्व एवं उनके संयोग से होने वाली सृष्टि संरचना का संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान सूत्र रूप में गुंथा हुआ है। यानी ओंकार (परम सत्य परमेश्वर) भूर्भुव: स्व: यानी जो देह, प्राण व मन में परिव्याप्त है व जिसकी अनुभूति व अभिव्यक्ति के लिए साधक को गायत्री के तीन चरण-चिंतन (विचार), चरित्र (भाव) व व्यवहार (क्रिया) को परिमार्जित करने के लिए महामंत्र के 24 अक्षरों से युक्त नौ शब्दों          1-तत्(जीवनविज्ञान) 2-सवितु(शक्तिसंचय)  3-वरेण्यं (श्रेष्ठता) 4-भगार्े (निर्मलता)         5-देवस्य (दिव्यदृष्टि)6-धीमहि(सद्गुण)      7-धियो(विवेक) 8-यो न: (संयम) 9-प्रचोदयात् (सेवा) के भावों के साथ की गयी गायत्री महामंत्र की साधना से मनुष्य के व्यक्तित्व में  सद्गुणों का प्रकटीकरण सहज ही होने लगता है तथा वह मां भगवती की कृपा पाने का सुपात्र बन जाता है। ऋषि  कहते हैं कि नवरात्र की विशिष्ट वेला में गायत्री महामंत्र के अनुष्ठान का महत्व अधिक बढ़ जाता है। कारण कि सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह  इन दिनों तेजी से उभरते व मानवी चेतना को प्रभावित करते हैं, इसी कारण नवरात्र वेला में की गयी संकल्पबद्ध साधना चमत्कारी परिणाम देती है।
नवरात्र में करें योगनिद्रा की साधना
वर्तमान युग की परिस्थितियों के अनुकूल शक्ति संचय के लिए सर्वाधिक उपयुक्त साधना है- योगनिद्रा की साधना। दूसरे शब्दों में इसे वैज्ञानिक निद्रा या शिथिलीकरण की प्रक्रिया भी कहा जा सकता है। इस साधना के लिए तीन बातें महत्वपूर्ण हैं-सजगता, संकल्पशीलता व तटस्थता। इन बातों का ध्यान रखते हुए आन्तरिक दृढ़ता के साथ किये गये योगनिद्रा के अभ्यास से न केवल भावनात्मक असंतुलन दूर होगा वरन् मन की आंतरिक शक्ति भी बढ़ेगी। योगनिद्रा से अर्जित शक्ति का संकल्पपूर्ण सदुपयोग आध्यात्मिक विकास में तो सहायक होता ही है, व्यक्तित्व विकास व आत्म साक्षात्कार का सबल माध्यम भी बनता है। लक्ष्मण जी के विषय में कहा जाता है कि वे 12 वर्ष तक सोये ही नहीं। गांधी जी भी कई-कई दिन लगातार जागते रहते थे। अनेक ऋषि-मुनियों के अलावा कई महापुरुष भी बिना सोये या बहुत कम सोकर सुचारु रूप से अपना कार्य चला लेते थे। यद्यपि स्वस्थ शरीर के लिए नींद आना एक अनिवार्य शर्त है किन्तु योगनिद्रा के द्वारा यह आवश्यकता कम समय में भी सहज ही पूरी की जा सकती है। मनोशारीरिक रोगों के इलाज में भी योगनिद्रा की विधि अत्यन्त कारगर साबित हुई है। न्यूरोलॉजिकल रोगियों पर हुए परीक्षण साबित करते हैं कि मस्तिष्क से शरीर के विभिन्न अवयवों तक बने नाड़ी परिपथ ही बाहरी सूचनाओं व संवेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुंचाते हैं तथा मस्तिष्क के आदेशों को उन अवयवों तक भेजते हैं।
मस्तिष्क हमारे समूचे कायातंत्र का संचालक है। विचारधाराओं का उद्गम केन्द्र भी यही है। शांत व प्रसन्न मन जहां प्रगति और अभ्युदय के द्वार खोलता है वहीं चिन्तित, अशान्त और अर्द्धविक्षिप्त मन अनेकानेक विपदाएं खड़ी करता है। वस्तुत: मानसिक उद्विग्नता व तनाव आदि व्याधियां और कुछ नहीं बस चिन्तनधारा का गड़बड़ा जाना भर है। प्रतिकूलता व अनचाही घटनाएं भी इसका कारण हो सकती हैं। लेकिन मानसिक लचीलेपन से हम हर स्थिति में तनाव मुक्त रह सकते हैं। इसके लिए मन-मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है जो योगनिद्रा या शिथिलीकरण के अभ्यास से किया जा सकता है।
प्रकृति प्रदत्त शिथिलीकरण प्रक्रिया में अभ्यस्त जीव इसके संुदर उदाहरण हैं। कुत्ता या बिल्ली विश्रामावस्था में निर्जीव से पड़े रहते हैं, तनाव व आवेश से रहित किन्तु जब हमला करना होता है तो बिजली के झटके के समान झपटते हैं। सामान्य स्थिति में उनकी मांसपेशियां शिथिल रहती हैं किन्तु आक्रमण के समय ताजा प्राण उनकी नाडि़यों में प्रवाहित होने लगता है। इसी कारण उनकी क्रियाओं में विद्युत सी गति दिखायी देती है क्योंकि आवश्यक कायोंर् के अतिरिक्त उनके प्राणतत्व का अपव्यय नहीं होता। उदाहरण के तौर पर सोते हुए शिशुओं को देखा जा सकता है। भार कम होने के बावजूद उनके दबाव के चिन्ह बिस्तर पर स्पष्ट दिखायी देते हैं। इसी कारण जगने पर वे पूर्ण स्वस्थ व सक्रिय रहते हैं।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार मानवी काया की मूल प्रकृति सामान्य स्थिति में रहने की है। अपने अंदर होने वाली छोटी-मोटी गड़बडि़यों की मरम्मत वह स्वयं कर लेती है। विश्रान्ति काल (रात्रि) इसीलिए  बना है ताकि मनुष्य अपनी खोयी शक्ति पुन: अर्जित कर ले। मस्तिष्कीय उद्विग्नता को शांत कर तनाव रहित बनाने के लिए योगनिद्रा यानी शिथिलीकरण प्रक्रिया अत्यन्त कारगर साबित हो सकती है।
साधना के उच्चस्तरीय विकास के लिए साधक के चित्त में सहज प्रसन्नता का होना अनिवार्य है।  किन्तु, सामाजिक पारिवारिक व अन्य समस्याएं मनुष्य से यह सहज प्रसन्नता छीन लेती हैं। इसी कारण उपासना के समय में भी वह तनावग्रस्त बना रहता है। तनाव की यह स्थिति शिथिलीकरण मुद्रा अर्थात योगनिद्रा की साधना के द्वारा सहज ही दूर की जा सकती है और इस साधना के शुभारम्भ का सर्वाधिक फलदायी और शुभ अवसर है नौ दिनों का प्रस्तुत नवरात्र काल।  
पूनम नेगी

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