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… कभी नहीं लांघी लक्ष्मणरेखा

by
Jan 31, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 31 Jan 2015 12:55:29

ज्ञानेन्द्र बरतरिया
आम आदमी क्या होता है? आम आदमी वह चरित्र है, जिसका इस्तेमाल बीते जमाने के तमाम बड़े फिल्म निर्माता करते रहे हैं, जो एक औसत, साधारण, सत्ता से परे रहने वाले भारतीय की उम्मीदों, आकांक्षाओं, परेशानियों और यहां तक कि उसकी मजबूरियों का भी प्रतीक हुआ करता था।
यह भारतीय आम आदमी की किताबी परिभाषा हो सकती है। उसकी परिचयात्मक परिभाषा यह है कि आम आदमी वह होता है, जिसे महान कार्टूनिस्ट आऱ के़ लक्ष्मण ने अपनी रेखाओं में उकेरा होता है। हर स्थिति का मूक गवाह, नेताओं, अफसरों से लेकर घरवाली तक से खरी-खोटी चुपचाप सुन लेने वाला एक अधेड़, लेकिन धुन का ऐसा पक्का जैसे सबकुछ कर सकने में समर्थ हो, सब-कुछ देखने, सुनने पर भी प्रतिक्रिया सिर्फ मानस में रखने वाला, न योद्धा, न कायर निपट साधारण होने के बावजूद सर्वज्ञाता और सर्वशक्तिमान होने का आभास कराने वाला।
जी हां, यही भारत का आम आदमी था, यही आम आदमी है। जो सर्वसमर्थ होता है, लेकिन उग्र कभी नहीं होता, जो हमेशा लक्ष्मणरेखा के भीतर रहा। क्या लक्ष्मण भारत की इस चित्ति को खूब पहचानते थे कि भारत का आम आदमी उग्र होने में, छीना-झपटी करने में, क्रांति किस्म की बातों में समय खराब करने में विश्वास नहीं रखता है या क्या यह मात्र एक विधि-विध संयोग था? क्या भारत के सर्वसमर्थ और धीर-गंभीर आम आदमी को अपनी खींची रेखाओं में हमेशा लक्ष्मणरेखा में रखने वाले चितेरे का नाम (आऱके़) लक्ष्मण होना एक विधि-विध संयोग था?
शायद लक्ष्मण को महानतम कार्टूनिस्ट करार दे देना बहुत सहज है। और शायद ऐसा करने के लिए दुनिया के या भारत के ही अन्य कार्टूनिस्टों के कार्य से उनकी तुलना करना, उस पर विचार करना भी बहुत जरूरी नहीं है। इसके अलावा, हर कृति और हर व्यक्ति अंतत: अपने स्थान, अपने काल और अपनी परिस्थितियों से ही निर्धारित होता है। हम लक्ष्मण की चर्चा करते हुए पूरे पांच दशकों के या शायद उसके भी पहले के इतिहास की चर्चा कर सकते हैं, और यह काफी है।
कोई चित्र खुद कुछ नहीं बोलता। वह वही कह पाता है, जो उसका चितेरा कहना चाहता है। कह सकते हैं कि आम आदमी कुछ और नहीं, खुद लक्ष्मण ही थे। फिर लक्ष्मण ने अपनी बात रखने के लिए एक मूक आम आदमी को अपना प्रतीक क्यों बनाया? किसी बात को कहने वाले प्रतीक का आम आदमी होना, उस आम आदमी का मूक ही रहना जताता है कि जो भी आम भारतवासी था ( या है) वह उस मंच से, उस दायरे से काफी दूर था, या वहां कुछ कहने की स्थिति में नहीं था, जहां सत्ता विराजा करती है, जिसे दरबार कहते हैं। सत्ता के और आम आदमी के बीच स्पष्ट संवादहीनता थी। लेकिन आम आदमी इससे परेशान नहीं था, यह संवादहीनता उसका स्वभाव था। लोकतंत्र भी यही है।
मतदान हमेशा गोपनीय ढंग से किया जाता है। वहां नारे नहीं लगाए जाते हैं। लेकिन क्या लक्ष्मण अपने इसी मूक-शांत आम आदमी को प्रतीक बरकरार रख सकते थे? दूसरे शब्दों में, क्या भारत का साधारण निवासी आज भी उस धैर्य, शांति, संयम और क्षमता का प्रतिनिधित्व करता है? क्या भारत का साधारण निवासी आज भी स्वयं के लिए अपने मन में कोई लक्ष्मणरेखा रखता है?
लक्ष्मण नहीं रहे। यह शायद इस बात का भी प्रतीक है कि भारत का आम आदमी अब लक्ष्मण रेखा में नहीं रह गया है। वह अमर्यादित हो रहा है। किसने किया उसे अमर्यादित? कई बार आपको लगेगा कि भारत का आम आदमी अब अपनी आकांक्षाओं को लालसाओं में और लालसाओं को लोभ में बदल चुका है। आपको लगेगा कि भारत का आम आदमी अब व्यवस्था को सुधारने-संवारने के बजाए उसे नष्ट और अगर सुविधाजनक हो, तो भ्रष्ट करने में ज्यादा उत्सुक है।
लक्ष्मण जिस व्यवस्थागत और संस्थागत पतन की ओर दशकों तक इशारा करते रहे, वह अंतत: इतना गंभीर हो चुका है कि उसके साथ-साथ आम आदमी की धारणाओं का भी पतन हो गया है। इसमें लक्ष्मण का आम आदमी कहीं नहीं है। हो भी, तो अब वह जरूरत से ज्यादा मूक है और उसका यह मौन उसके स्वभाव के कारण कम और शोर की मजबूरी के कारण ज्यादा है। लक्ष्मण का आम आदमी देशभर के विचारों को अभिव्यक्त करता नजर आता था, आज का आम आदमी उस राष्ट्रव्यापी साधारण आम आदमी से जूझता, उसे कुछ भी बेच देने की कोशिश करता, उसे ठगने की कोशिश करता, उसका वोट हड़पने की कोशिश करता नजर आता है।
कोई संदेह नहीं कि लक्ष्मण का आम आदमी एक कार्टून चरित्र था, जिसका मुख्य पेशा हास्य था। हास्य और व्यंग्य में या ज्यादा आगे बढ़ें, तो वक्रोक्ति में अंतर बहुत बारीक होता है। लेकिन लक्ष्मण के आम आदमी का हास्यबोध उनकी खींची रेखाओं से आगे था, लेकिन शब्दों और भंगिमाओं से लक्ष्मण रेखा के भीतर बने रहने में वह गर्व महसूस करता था। वह बेचैन था, वास्तव में चिंतित भी था, लेकिन मर्यादित था।
आम आदमी को केन्द्र में रखकर बनने वाली फिल्में अब पता नहीं किस चरित्र को केन्द्र में रखती हैं। जनजीवन के सरोकार बदले हैं। वे सामूहिक के बजाए निजी हुए हैं, सामान्य के बजाए स्वार्थकेन्द्रित हुए हैं। जीवन के मानक तेज गति से बदलते जा रहे हैं। लक्ष्मण नहीं रहे। उनका आम आदमी भी अब अनाथ है। उसे अपने लिए नई लक्ष्मणरेखाएं जल्द खींचनी होंगी। स्वयं, अपने हाथों से। ल्ल

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