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अब अफगानिस्तान का क्या होगा!

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Jan 3, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Jan 2015 15:21:59

 

13 वर्ष बाद 31 दिसम्बर, 2014 को अफगानिस्तान से अमरीकी सेना की वापसी हो गई। हालांकि अभी भी अफगानिस्तान में 13 हजार विदेशी सैनिक तैनात हैंे, जिनमें से अधिकांश अमरीकी हैं। लेकिन ये सैनिक किसी युद्ध में भाग नहीं लेंगे, केवल अफगानिस्तानी सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण देंगे। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अफगानिस्तान में तालिबान के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय अभियान के समापन का स्वागत किया है। इससे कुछ दिन पहलेे अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में हुए एक समारोह में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहायता बल (आई़ एस.ए.एफ़) को औपचारिक तौर पर समाप्त कर दिया गया। उल्लेखनीय है कि सितम्बर, 2001 में तालिबान ने अमरीका पर सबसे बड़ा आतंकवादी हमला किया था। उसके बाद अमरीका ने तालिबानी आतंकवादियों का खात्मा करने के लिए अपनी सेना को अफगानिस्तान में तैनात किया था। बाद में उसका साथ देने के लिए कई अन्य देशों ने भी अपनी सेनाएं वहां भेजी थीं। अब कुछ लोगों का मानना है कि अमरीकी सेना की वापसी से अफगानिस्तान में तालिबान को सिर उठाने का एक मौका और मिल जाएगा, क्योंकि अभी अफगानिस्तान के पास वह ताकत नहीं है कि उसकी सेना तालिबान का मुकाबला कर सके। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि इससे भारत को भी सचेत रहना पड़ेगा, क्योंकि तालिबान पाकिस्तानी आतंकवादियों की मदद से भारत को निशाना बना सकता है। इसकी आशंका गुप्तचर एजेंसियों ने भी जताई है।
ल्ल प्रस्तुति: अरुण कुमार सिंह

भारतीय कूटनीति की जीत
यह भारतीय कूटनीति की जीत ही कही जा सकती है कि पाकिस्तान ने आतंकवादी जकीउर रहमान लखवी को फिर से गिरफ्तार कर लिया है। लखवी 2008 में मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले का मुख्य साजिशकर्ता है। हाल ही में पाकिस्तान की एक अदालत ने उसे छोड़ने का आदेश दिया था, लेकिन भारत के कड़े विरोध की वजह से ऐसा नहीं हो पाया। उसे मोहम्मद अनवर नाम के एक शख्स के अपहरण के आरोप में फिर से गिरफ्तार कर लिया गया है। यह मामला छह वर्ष पुराना है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से 31 दिसम्बर,2014 को इस्लामाबाद के गोलरा पुलिस थाने पर उस मामले की एफ.आई.आर. दर्ज कराई गई और उसी आधार पर लखवी को फिर से सलाखों के पीछे धकेल दिया गया। जानकारों का मानना है कि ऐसा भारत के दबाव से हुआ है। भारतीय दबाव के कारण ही पाकिस्तान सरकार ने आनन-फानन में एक पुराने मामले को खुलवाया और लखवी को जेल से बाहर आने से रोका। उल्लेखनीय है कि जैसे ही लखवी की रिहाई की बात भारत पहंुची भारतीय विदेश मंत्रालय ने दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायुक्त को बुलाकर कड़ा विरोध दर्ज कराया और कहा कि लखवी की रिहाई से दोनों देशों के बीच रिश्तों की खाई और चौड़ी होगी।
पाकिस्तान को फिर अमरीकी मदद

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत के साथ-साथ पाकिस्तान को भी साधने में लगे हैं। वे भारत के गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि हैं। इस नाते वे इस माह यहां आ रहे हैं, लेकिन भारत आने से पहले ओबामा ने पाकिस्तान के लिए एक बार फिर से खजाना खोल दिया है। हाल ही में उन्होंने पाकिस्तान को 55 करोड़ डॉलर की मदद देने की घोषणा की है। उल्लेखनीय है कि जब ओबामा ने भारत आने की खबर दुनिया को थी, तब उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भी फोन किया था। कहा जाता है कि उस समय नवाज शरीफ ने ओबामा से कहा था कि वे पाकिस्तान भी आएं, लेकिन ओबामा ने पाकिस्तान आने से मना कर दिया था। कूटनीतिज्ञों का मानना है कि अब पाकिस्तान की नाराजगी को दूर करने के लिए उसे मदद
फिलिस्तीन नहीं बन पाया संप्रभु राष्ट्र

देने की घोषणा की गई है। जब ओबामा भारत में रहेंगे उसी समय विदेश मंत्री जॉन केरी पाकिस्तान की यात्रा कर सकते हैं।
31 दिसम्बर, 2014 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में फिलिस्तीन को संप्रभु राष्ट्र का दर्जा देने वाला प्रस्ताव एक मत से गिर गया। इससे फिलिस्तीन को बड़ा झटका लगा है। उल्लेखनीय है कि फिलिस्तीन की ओर से जॉर्डन ने सुरक्षा परिषद् में प्रस्ताव रखा था कि फिलिस्तीन को संप्रभु राष्ट्र का दर्जा दिया जाए। इस प्रस्ताव को पारित कराने के लिए 9 सदस्य देशों का समर्थन चाहिए था, लेकिन 8 देशों ने ही इसका समर्थन किया। ये देश हैं-रूस, फ्रांस, अर्जेंटीना, चीन, लग्जमबर्ग, जॉर्डन, चिली और चाड। अमरीका और आस्ट्रेलिया ने इस प्रस्ताव का विरोध किया, जबकि ब्रिटेन, दक्षिण कोरिया, नाइजीरिया, लिथुआनिया और रवांडा ने मतदान प्रक्रिया में भाग नहीं लिया। संयुक्त राष्ट्र संघ में अमरीका की स्थाई प्रतिनिधि सामंता पावर ने इस प्रस्ताव का यह कहकर विरोध किया कि इसमें इस्रायल की सुरक्षा को ध्यान में नहीं रखा गया है। इस प्रस्ताव मेंे इस्रायल और फिलिस्तीन दोनों को सम्प्रभु राष्ट्र की मान्यता देने की बात थी। साथ ही 2017 तक वेस्ट बैंक क्षेत्र से कई चरणों में इस्रायली सैनिकों की वापसी और दोनों देशों के विवाद के केन्द्र में रहे यरुशलम को दोनों की राजधानी बनाने की बात थी। लेकिन इस्रायल को यह मंजूर नहीं था। उसने सदैव की भांति इस मामले में भी अमरीका का साथ लिया और प्रस्ताव को ही गिरवा दिया। प्रस्ताव के गिरने से फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने कहा कि फिलिस्तीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् से नाराज है। परिषद् अपने कर्तव्य को अच्छी तरह नहीं निभा पा रही है। सुरक्षा परिषद् से भन्नाए अब्बास ने दूसरे ही दिन ही उन दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिए, जो फिलिस्तीन को अन्तरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय का सदस्य बनाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। अब फिलिस्तीन किसी बात को लेकर अन्तरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय में इस्रायल की शिकायत कर सकता है। उधर इस्रायल ने कहा है कि वह अन्तरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय को मान्यता नहीं देता है और फिलिस्तीन जो कुछ भी कर रहा है वह अपने सैनिकों को बचाने के लिए कर रहा है। अमरीका ने भी फिलिस्तीन की इस कार्रवाई को शान्ति भंग करने वाला बताया है।

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