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आतंकवाद का वैचारिक मुकाबला करें मुसलमान

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Jan 23, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Jan 2015 13:03:05

वर्तमान परिदृश्य को देखकर लगता है कि आज हम इस्लामी आतंकवाद के युग में रह रहे हैं। पेशावर में 150 बच्चों के नरसंहार के बाद पेरिस में 10 पत्रकारों और 3 पुलिसवालों का नरसंहार किया गया। भारत दशकों से इस खतरे का सामना कर रहा है, लेकिन वह खतरा ज्यादातर विदेशी आतंकवादियों की ओर से था। अब बड़ी संख्या में स्थानीय मुसलमान युवा मानवता के खिलाफ जारी जिहाद में शामिल होने के इच्छुक लगते हैं और उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। वास्तव में, 9/11 के तेरह साल बाद, दुनिया एक ऐसे खतरे का सामना कर रही है, जो अधिक जटिल, अधिक विविध और अधिक खतरनाक है। जहां दुनिया का ध्यान आतंकवादियों से सैनिक तौर पर लड़ने पर केंद्रित है, वहीं उनकी वैचारिक कथा की चुनौती को मूल रूप से कबूला ही नहीं गया है।
जिहादियों ने हिंसा का पूरा खाका तैयार किया है, जो नफरत और असहिष्णुता की एक सुगठित कथा है, अधिनायकवादी है और फासीवाद जैसी है । यह बड़ी संख्या में भोले-भाले मुसलमान युवाओं को आकर्षित करने में और उन्हें करुणा और दया की मानव प्रवृत्तियों के प्रति असंवेदनशील बनाने में सक्षम है। सामान्य तौर पर, किसी को आत्महत्या के लिए राजी करना दुनिया में सबसे कठिन कार्य है। लेकिन मुसलमान समाजों से आत्मघाती हमलावरों की फौज उभरती है। जहां भी और जब भी किसी पक्के इरादे वाले और संसाधन संपन्न गुट की उन्हें जरूरत होती है, वहां वे कही न जा सकने लायक क्रूरता में करते हैं। यह स्पष्ट तौर पर इस्लामवादी विचारधारा का आकर्षण और शक्ति है, जो इस्लाम की उस समझ से एकदम भिन्न है, जिसे मुसलमानों का एक बहुत बड़ा वर्ग सदियों से समझता रहा है।
सूफी प्रभाव के तहत, मुसलमान खुद को एक समावेशी, सहिष्णु मजहब होने पर गर्व करते रहे हैं, जो पिछले सभी मत-पंथों की सच्चाई को दोहराने और पुनर्सिद्घ करने के लिए आया था। मुसलमान विश्वास करते हैं कि उनका मजहब मानव जाति के लिए वरदान है।
लिहाजा जब इस्लाम की एक सर्वश्रेष्ठतावादी, निषेधात्मक, असहिष्णु व्याख्या सऊदी-वहाबी राजशाही की हुकूमत द्वारा पिछली सदी की शुरुआत में प्रचारित करना शुरू की गई, तो मुसलमानों ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। लेकिन तेल के बेशुमार धन और शीत युद्ध की मजबूरियों के बूते यह विचारधारा तेजी से फैली। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इस प्रक्रिया में 9/11 के बाद भी बाधा नहीं डाली। वास्तव में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने आतंकवादियों के फलने-फूलने के लिए कई नई कीचड़ पैदा कीं।
बहरहाल, तीव्र अतिवादीकरण होने के बावजूद, कई मुसलमान अभी भी उदारवादी हैं, जो सूफी परंपराओं में दृढ़ता से अड़े हुए हैं, जो इस्लाम को मोक्ष का एक आध्यात्मिक मार्ग, पालन करने के लिए नैतिक मानक मानते हैं। वे आधुनिकता, समग्रता, बहुलतावाद, लैंगिक समानता और लोकतंत्र में विश्वास करते हंै। पैगंबर मोहम्मद ने अपने समुदाय को 'उम्मतन वसता', यानी मध्यमार्गी समुदाय कहा था, जो केंद्रित और संतुलित था। इस्लाम के पूरे इतिहास में मुसलमानों में उग्रवादी रहे हैं। लेकिन शांतिपूर्ण बहुमत ने हमेशा उन्हें अंतत: पराजित किया है। उम्मीद है कि वे शक्तिशाली पेट्रो डॉलर इस्लाम और उसकी जिहादी शाखा को भी पराजित कर लेंगे।
लेकिन करने की तुलना में यह कहना आसान है। उदारवादी मुसलमान पहाड़ जैसी चुनौती का सामना कर रहे हैं। सूफी संतों ने उदार, आध्यात्मिक इस्लाम के प्रसार के जिन तरीकों का इस्तेमाल किया था, वे इंटरनेट के इस युग में काम नहीं कर सकते। सूफी इस्लाम की सकारात्मक शिक्षाओं पर जोर देते थे, और बाकी बातों की अनदेखी कर देते थे। लेकिन अब चीजों को ढांकने-छिपाने के दिन लद चुके हैं।
उदारवादी मुसलमानों को नई रणनीतियों के बारे में सोचना होगा। मेरा मानना है कि नरमपंथियों को कट्टरवादी विचारधारा का पर्दाफाश इसके सभी दुराग्रहों समेत करना होगा, उनका खंडन करना होगा, और साथ ही इस्लाम की नैतिक शिक्षाओं पर जोर देना होगा। मुस्लिम कल्पना पर कब्जा करने में जिहादियों की भारी सफलता, बाकी बातों के अलावा, निम्नलिखित मूल मान्यताओं में निहित है-
1. कई सदियों से अब तक उलेमा मुसलमानों को कुरान पर एक ऐसा निर्विवाद यकीन कायम करने के लिए प्रोत्साहित करते रहे हैं कि वह एक अरचित, दिव्य पुस्तक है, लगभग ईश्वर की तरह। यह एक खतरनाक बात है। यदि कुरान रचित है, अर्थात् यदि यह उन आयतों का संकलन है, जो जरूरत पड़ने पर, समय-समय पर पैगंबर को मार्गदर्शन करने के लिए आईं, तो आयतों का संदर्भ महत्वपूर्ण हो जाता है, और सिर्फ वे आयतें, जिनको समझने के लिए किसी संदर्भ की आवश्यकता नहीं है, सार्वभौम उपयुक्तता के लिए होती हैं। लेकिन अगर यह अरचित है, जैसा कि सारे मदरसों में पढ़ाया जाता है, तो प्रत्येक आयत की अनन्त उपयुक्तता होती है और उसे संदर्भ के बिना माना जाना होता है। इल्हाम के अंगभूत और मूल भाग और प्रसंग संबंधित, मार्गदर्शक भाग के बीच का अंतर ही समाप्त हो जाता है, जिससे अतिवादी विचारकों के लिए प्रसंग संबंधित भाग का भी आवश्यक भाग के रूप में, मार्गदर्शक भाग का विधान के रूप में दुरुपयोग करना सरल हो जाता है।
यही कारण है कि हमारे सारे मदरसे, जो कुरान का अरचित होना सिखा रहे हैं, ऐसे कट्टरवादी लकीर के फकीर पैदा कर रहे हैं, जिन्हें अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल करने की कोई वजह नजर नहीं आती है। लिहाजा, अगर कुरान कहीं भी, किसी भी संदर्भ में कहती है 'काफिरों को मार दो', तो निकल कर काफिरों को मार सकते हैं, इस तथ्य पर ध्यान दिए बिना कि यह आह्वान एक निश्चित ऐतिहासिक संदर्भ में किया गया था और उस समय के लिए ही मान्य था। कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सभी जिहादी विचारक बड़ी संख्या में कुरान की लड़ाकू आयतों का उद्धरण अपनी बात सही ठहराने में देते हैं, और इसका इस्तेमाल सीधे-सादे लकीर के फकीरों के दिमाग में यकीन भरने में करते हैं।
हैरानी की बात नहीं है कि उनके पास हत्यारों की एक सेना उपलब्ध है, जो निदार्ेष पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को मारने के लिए आत्मघाती हमलों तक के लिए तैयार है, यह विश्वास करते हुए कि वे जल्दी ही जन्नत में पहुंच जाएंगे।
2. हदीस या पैगंबर की तथाकथित कही गई बातों के प्रति महान श्रद्धा जोड़ी गई है। जिहादी साहित्य बड़ी संख्या में संभवत: गढ़े गए अहदीस का पूरा उपयोग अपनी बात को जायज ठहराने में करता है। सीधी सी बात है कि पैगंबर के निधन के 300 वर्ष बाद तक संकलित किए जाते रहे अहदीस नबी की कही बातों का प्रामाणिक प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बड़ी संख्या में जाहिरा तौर पर गढ़े गए अहदीस का उपयोग नागरिकों की अंधाधुंध हत्याओं को उचित साबित करने के लिए किया जाता है। हालांकि कई और अधिक अहदीस भी हैं, जो किसी भी स्थिति में ऐसी हत्याओं से निषेध करती हैं। 3. हर मत के मुस्लिम विद्वान शरिया को एक दिव्य हैसियत देते हैं। वास्तव में यह एक मानव रचित कानूनों की पुस्तक है, जिसे विभिन्न उलेमाओं ने पैगंबर के निधन के एक सदी से अधिक समय बाद संहिताबद्ध किया है और उसके बाद से इसमें बदलाव किया जाता रहा है। इसके दिव्य होने का कोई सवाल ही नहीं है।
इस्लाम की बेचैनी स्पष्ट रूप से कहीं गहरी है। समस्याएं इस्लाम के लिए मौलिक, बुनियादी हैं। लेकिन आस्था के रखवाले होने की जिनसे उम्मीद की जाती है, वे उलेमा इससे इनकार करना जारी रखे हुए हैं।
व्यापक समाज क्या करता है? मुझे लगता है कि दुनिया को सबसे पहले स्वयं को यह बताने की जरूरत है कि मुस्लिम समुदाय के भीतर क्या चल रहा है। कट्टरवाद की हद का पता लगाने के लिए हमें भरोसेमंद सर्वेक्षण करने चाहिए, जुमे की तकरीरों की निगरानी करनी चाहिए, विभिन्न मदरसों की पाठ्य पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए, और यहां उठाए गए मौलिक सवालों के साथ उलेमा के साथ बहस करनी चाहिए। यदि उलेमा वास्तव में इस्लाम को आतंकवाद का पर्याय समझे जाने से बचाना चाहते हैं, तो उन्हें इन बातों पर जोर देना चाहिए-
1. कुरान ईश्वर की एक रचित किताब है, खुद परमात्मा जैसी दिव्य नहीं है।
2. कुरान में प्रसंग संबंधित, विशेष रूप से उग्रवादी आयतें, अब मुसलमानों के लिए लागू नहीं रह गई हैं।
3़ हदीस कुरान की तरह कोई इस्लामी किताब नहीं है।
4़ शरिया को दिव्य नहीं माना जा सकता है।
उलेमाओं और मौलवियों को सतही बयानों से आगे जाना होगा, समझदारी की दिशा में आगे बढ़ना होगा, शांति और संयम का एक सुसंगत खाका तैयार करना होगा, आम जनता के बीच इसका प्रचार करना होगा। -सुल्तान शाहीन
(ल्ेाखक 'न्यू ऐज इस्लाम डाट कॉम' के सम्पादक हैं)

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