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दिल्ली के एक बड़े अस्पताल की चारदीवारी पर हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें बनाई गयी हैं। तस्वीर बनाने की वजह ये कि कोई उस जगह का 'टॉयलेट' आदि के तौर पर इस्तेमाल न करे। दिल्ली का बी.एल. कपूर अस्पताल इसका एक उदाहरण मात्र है। ऐसी कई इमारतें और दिल्ली में दिख जायेंगी जहां देवी-देवताओं के चित्र दीवारों पर महज इसलिए लगवा दिए हैं कि कोई उनकी दीवार को लघुशंका के लिए इस्तेमाल न करे। मसलन दिल्ली के ही पटेल नगर इलाके में एक दौर ऐसा था कि उन जगहों पर देवी-देवताओं की तस्वीरे दिखने लगीं थीं जहां कभी लिखा होता था, कृपया यहां…न करें। ऐसी मानसिकता को 'पीके' मानसिकता भी कह सकते हैं। चूंकि अभी हाल ही में 'पीके' नाम से एक बहुचर्चित फिल्म आई जिसे बेशक सिनेमा आलोचक महज एक फिल्म के तौर पर ले रहे हों, लेकिन सच्चाई ये है कि 'पीके' महज फिल्म नहीं बल्कि सेकुलर समाज में विकसित हो रही विकृत मानसिकता को बढ़ावा देने वाली एक चयनित अभिव्यक्ति भी है। चूंकि, मनोरंजन के उपकरण जब समाज के एक चिह्नित समुदाय को बेहद शातिराना एवं खास नीयत से निशाने पर लेकर अपना एजेंडा फैला रहे हों, तो उसे महज मनोरंजन के उपकरण तक सीमित न रखना बेमानी होगा।
यहां सवाल सिनेमा और मनोरंजन का नहीं बल्कि प्रतीकों के चयन का है। यहां न तो कोई अस्पताल महत्वपूर्ण है और न ही कोई सिनेमा ही महत्वपूर्ण है। दो टूक कहा जाय तो यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रतीकों के चयन का मसला है। यहां गौर इस बात पर करना है कि पाखंड और अंधविश्वास उजागर करने के नाम पर ये लोग कहीं तय एजेंडे के तहत किसी धर्म-विशेष की आस्था से जुड़े प्रतीकों के तौर पर इस्तेमाल करके उक्त धर्म को अपमानित तो नहीं कर रहे हैं? क्योंकि प्रतीकों के चयन और उनके इस्तेमाल को लेकर भारत के सेकुलर बुद्धिजीवियों के चेहरे का नकाब एक बार फिर उतरा है। इस बाबत प्रतीकों के चयन के सवाल पर हाल की दो घटनाओं का जिक्र जरूरी है। समानांतर घटनाक्रम में जब हिन्दू देवी-देवताओं का उपहास उड़ाने वाली 'पीके' फिल्म को हिन्दू बहुल देश हिन्दुस्थान में 300 करोड़ की कमाई करते हुए देश के सेकुलर कहे जाने वाले कथित बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा पाखंड के खिलाफ एक सिनेमाई उपकरण के तौर पर प्रतिष्ठित किया जा रहा था, ठीक उसी के सामानांतर यूरोप के फ्रांस में एक अन्य मजहब के प्रतीक का इस्तेमाल करने खामियाजा एक पत्रिका के 10 पत्रकारों सहित 2 लोगों को अपनी जान गंवा कर भरना पड़ा। विगत 7 जनवरी को फ्रांस के पेरिस स्थित 'चार्ली-हेब्दो' पत्रिका के दफ्तर पर अलकायदा के तीन हथियार बंद इस्लामिक आतंकियों ने इसलिए नृशंस हमला कर दिया था क्योंकि कुछ दिनों पहले इस पत्रिका ने पैगम्बर मुहम्मद एवं आईएस सरगना अबूबकर अल बगदादी का कार्टून छाप दिया था। समानांतर घटनाक्रम में 'पीके' विवाद और पेरिस में आतंकी वारदात के बीच एक मुद्दे पर तो कम से कम साम्य है।
वहां भी मामला प्रतीकों के इस्तेमाल से जुड़ा था और भारत में भी यह मामला प्रतीकांे के इस्तेमाल से ही जुड़ा है। प्रतीकों के मापदंड पर दोनों मामलों में फर्क ये है वहां प्रतीक एक ऐसे मजहब से लिया गया जिसने अपने मजहबी उन्माद से दुनिया को तबाह कर रखा है। जबकि भारत में इस्तेमाल किया गया प्रतीक एक ऐसे सहिष्णु समुदाय की आस्था का मजाक उड़ाते हुए लिया गया, जो सदैव ही विश्व में अपनी उदार प्रवृत्ति को प्रतिष्ठित करता रहा है।
'पीके' मानसिकता पर सवाल इसलिए भी उठने लाजिमी हैं कि समाज में व्याप्त जिस अंधविश्वास को दिखाने के लिए भारत में सिर्फ एक समुदाय यानी हिन्दुओं की आस्था के प्रतीकों को क्यों चुना जाता है? क्यों नहीं सभी वगोंर्, समुदायों, मजहबों में व्याप्त अंधविश्वास को उजागर करने के लिए उनके अपने पाखंडों को दिखाया जाता है? सवाल ये भी है कि क्या सारा का सारा अंधविश्वास हिन्दू समाज में फैला हुआ है? इन तमाम सवालों का जवाब इस मुल्क के कथित सेकुलर कहे जाने बुद्धिजीवी नहीं दे पाते हैं। न जाने क्यों वे इस सवाल का जवाब नहीं दे पाते हैं कि पैगम्बर मुहम्मद के प्रतीक से भला सेकुलरिज्म कैसे खतरे में पड़ जाता है? पेरिस में जो हुआ वह दुखद जरूर है मगर आश्चर्यजनक कतई नहीं है, लेकिन 'पीके' में जो किया गया है वह एक समुदाय विशेष के लिए दुखद भी है और निष्पक्षता के मापदंडों पर अन्यायपूर्ण भी!
इस्लामिक आतंकवाद से दुनिया को तबाह करने निकले ये मजहबी राज्य के समर्थक क्यों 'पीके' जैसी फिल्मों के निर्माताओं के निशाने पर नहीं होते हैं, इसकी वजह साफ है। ये फिल्म निर्माता जानते हैं कि मुहम्मद पैगम्बर के बारे में फिल्म बनाने की कल्पना भी खतरे से खाली नहीं है, जबकि हिन्दू समाज के प्रगतिशील एवं उदार सोच का बेजा फायदा उठाना बेहद आसान है। मसलन, देखा जाय तो अमरनाथ यात्रा को पाखंड बताने वालों की हज यात्रा पर चुप्पी उनको संदिग्ध बनाती है। जब हिन्दू आस्थाओं का मजाक उड़ाया जाता है तो फिल्म कलाकार से लेकर निर्माता, निर्देशक सभी खुलेआम घूमकर महफूज ढंग से अपनी फिल्म का प्रचार कर लेते हैं, लेकिन पैगम्बर मुहम्मद का कार्टून बनाने वालों का क्या होता है, यह किसी से छुपा नहीं है!
ऐसा पहली बार नहीं है कि 'पीके' जैसी फिल्म अथवा कला से हिन्दू आस्था का मजाक उड़ाया गया है। चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन तो भारतीय देवी-देवताओं पर बनाई अपनी पेंटिंग्स की वजह से ही चर्चित रहे। लेकिन मकबूल के भी सेकुलरिज्म का दोहरा चरित्र देखिये कि कला की अभिव्यक्ति का हवाला देकर स्वेच्छा से भारत छोड़ने वाला यह दिवंगत कलाकार भी अपनी कला की अभिव्यक्ति से इस्लामिक प्रतीकों को आजीवन बड़ी साफगोई से बचाता रहा और हिन्दू आस्थाओं का मखौल उड़ाता रहा। बावजूद इसके कि भारत ने मकबूल फिदा हुसैन को पद्मश्री तक दिया था। भारत माता की विवादित तस्वीर उकेरने वाले इस बहादुर सेकुलर कलाकार की हिम्मत भी इस्लामिक प्रतीकों को अपनी कला की बेबाक अभिव्यक्ति के लिए चुनने में थर्रा गयी और हिन्दुओं की आस्थाओं का मखौल उड़ाकर यह कलाकार सेकुलरों की फेहरिस्त में अपना नाम दर्ज करा गया।
नजीर की बात करें अपवाद के तौर पर ही सही, लेकिन एक नाम तसलीमा नसरीन का है। तसलीमा नसरीन इस्लाम के पाखंडी और आतंकी चेहरे के खिलाफ बोलती रही हैं। तसलीमा की इस बेबाब बयानी का परिणाम है कि दुनिया का कोई इस्लामिक बहुल देश उनके लिए महफूज नहीं है, बल्कि भारत की सेकुलर जमात को भी वह फूटी आंखों नहीं सुहाती हैं। ये इस मुल्क के सेकुलरिज्म का दोहरा चरित्र है जो 'पीके' के सामान्य प्रतिवाद को हिन्दू कट्टरता का नाम देकर प्रचारित करता है, जबकि पेरिस की बात आते ही रटने लगता है कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता।
भारत में भी हुई कार्टून पर गिरफ्तारी
बेशक पीके में हिन्दू आस्था के प्रतीकों का मखौल उड़ाकर पीके खूब माल उड़ा रही हो लेकिन भारत पैगम्बर मुहम्मद के कार्टून पर पहले गिरफ्तारियां भी हुई हैं। कुछ साल पहले स्वीडिश पत्रिका में छपे पैगम्बर मुहम्मद के एक कार्टून को सीनियर इण्डिया के तत्कालीन सम्पादक पत्रकार आलोक तोमर ने दुबारा प्रकाशित किया था, जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। इतना ही नहीं उनको न्यायिक हिरासत में भी भेज दिया गया था। एक अन्य घटना में दैनिक हिन्दुस्तान ने एक बार किसी फीचर में पैगम्बर की तस्वीर उकेर दी थी, जिसके बाद मामला इतना गंभीर बना दिया गया कि दूसरे दिन उक्त अखबार को माफी तक मांगनी पड़ी। सवाल है कि अगर अलोक तोमर महज एक पैगम्बर मुहम्मद के कार्टून को री-प्रिंट करने के लिए जेल भेजे जा सकते हैं तो भला 'पीके' निर्माताओं को हिन्दू प्रतीकों का मखौल उड़ाने की आजादी क्यों दी जानी चाहिये? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा न तो चयनित होना चाहिए और न ही दोहरा होना चाहिए।
'मॉक-ड्रिल' बनाम 'पीके'
इस्लामिक हितों पर काम कर रहे सेकुलर बुद्धिजीवियों की जमात पिछले दिनों सूरत में हुई 'मॉक ड्रिल' में इस्तेमाल टोपी पर छाती पीट रही थी। सवाल ये है कि उन्हीं के शब्दों कहा जाय तो, अगर आतंक और आतंकी का कोई मजहब नहीं होता तो भला उनकी सेकुलर निगाहें एक अदद टोपी को मजहबी नजर से कैसे देख लेती हैं? चूंकि 'मॉक-ड्रिल' मामले में तो उनकी रुदाली इस कदर थी कि मानो भारत में इस्लाम ही खत्म होने लगा हो! गौर करना लाजिमी है कि जिन निगाहों को पेरिस में मजहब नहीं दिखता और 'पीके' में अंधविश्वास पर निष्पक्ष प्रहार दिखता है, उन्ही सेकुलर निगाहों को भला सूरत मॉक-ड्रिल में 'टोपी' क्यों मजहबी नजर आने लगती है? कहीं न कहीं सेकुलरिज्म के नाम पर इस्लामिक अतिवाद को हवा देने की ये कोशिश भारत में मीडिया के हवाले से कथित बुद्धिजीवियों द्वारा भी समय-समय पर की जाती रही है। – शिवानन्द द्विवेदी
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