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सादगी, सहजता, श्रद्धा का अलौकिक सौंदर्य
अल्हड़पन और मौजमस्ती के साथ श्रद्धा-भक्ति एवं समर्पण का ऐसा दुर्लभ वातावरण आपको और कहीं देखने को नहीं मिलेगा जैसा काशी में। ऐसी रामलीला जिसमें न बिजली की चकाचौंध, न मंच सज्जा और न ही लाउडस्पीकर का प्रयोग… मानो आप पांच सौ साल पुराने युग में लौट आए हों। तमाम पुरानी परंपराओं और संस्कारों को संजोए रामनगर यानी काशी की रामलीला की यह अप्रतिम सादगी और सहजता ही उसकी अद्वितीयता है, जिसे देखने विदेश तक से लोग आते हैं। पूरे एक महीने तक पूरा क्षेत्र राममय रहता है। इस घोर ग्लैमर के युग में भी लोग राम के पात्र से उसी भक्ति और विह्वलता से आशीर्वाद लेते हैं मानो श्रीराम स्वयं सामने उपस्थित हों। मुक्त रंगमंच (ओपन थियेटर) की तर्ज पर होने वाली लीलाओं में यह दुनिया की सबसे बड़ी रामलीला है।
पूरी काशी मानो धर्म-कर्म और अध्यात्म का विशाल सरोवर बन गई है इन दिनों। रामलीला कोई एक ही स्थल पर नहीं होती। कई जगहों पर होती है। प्राय: हर प्रसंग के लिए अलग लीला स्थल है। लगभग चार किलोमीटर की परिधि में अयोध्या, जनकपुर, लंका, अशोक वाटिका, पंचवटी आदि स्थान हैं जिनका उल्लेख रामचरित मानस में है। रामलीला प्रेमियों से पूरा क्षेत्र पटा हुआ है। रामलीला में लक्ष्मण-परशुराम संवाद, हनुमान-सीता संवाद, अंगद-रावण संवाद विश्व प्रसिद्ध हैं। साथ ही में धनुषयज्ञ, लंका दहन, लक्ष्मण शक्ति, भरत मिलाप जैसी लीलाएं लोगों को भक्ति रस में डुबो देती हैं। यहां नाच-गाना नहीं होता है। सिर्फ संवादों के जरिए लीलाओं का मंचन किया जाता है। बढ़ती अपसंस्कृति-भौतिकतावाद एवं पाश्चात्य संस्कृति के हावी होने से ऊब चुके लोगों को यहां आध्यात्मिक शांति मिलती है।
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समय के साथ दर्शक और रामनगर का स्वरूप एवं माहौल भले ही बदला हो लेकिन रामलीला बिल्कुल नहीं बदली है। पात्रों की सज्जा-वेशभूषा, संवाद-मंच आदि सभी स्थलों पर गैस और तीसी के तेल की रोशनी, पात्रों की मुख्य सज्जा का विशिष्ट रूप, संवाद प्रस्तुति के ढंग और लीला का अनुशासन ज्यों का त्यों बरकरार है। भड़कीले वस्त्रों तथा आभूषण का प्रयोग यहां नहीं होता है। लीला 31 दिन चलती है। यह वक्त भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी से लेकर आश्विन पूर्णिमा तक होता है। इस दौरान हर रोज शाम पांच बजे बिगुल बजता है। इसके बाद महराज की सवारी निकलती है। इसके दो घंटे बाद लीला शुरू हो जाती है, जो रात दस बजे तक चलती है।
काशी नरेश सजे-सजाए हाथी पर लीला स्थल के अंतिम छोर से रामलीला देखते हैं। वहीं भक्त राम-सीता, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न को पारम्परिक रूप से अपने कंधे पर लेकर चलते हैं। भजन-कीर्तन करते तथा नाचते-गाते भक्तों का काफिला दिव्यता के उस युग में ले जाता है जिसका वर्णन करने में शब्द मौन हो जाते हैं।
विदेश से आए लोगों में भी इस रामलीला का अजब कौतूहल होता है। वे श्रद्धा के इस अनुष्ठान में मन से हिस्सा लेते हैं और अपने कैमरों में हर दृश्य को कैद करते हैं।
अनोखा रावण वध
यहां रामलीला में रावणवध से अनोखी परंपरा जुड़ी है। भगवान श्रीराम का बाण लगते ही लंकेश जमीन पर गिर जाता है। इसके थोड़ी देर बाद वह अपना मुखौटा उतारता है और भगवान राम के पैर छूता है। इसके बाद वह सीधे लीलास्थल से बाहर चला जाता है। -अजय विद्युत
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