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शेषाद्री चारी
विश्व के दो बड़े लोकतांत्रिक देशों भारत और अमरीका में कई समानताएं हैं। चाहे लोकतंत्र हो, न्यायपालिका की सवार्ेच्चता, बहुलवादी व्यवस्था, मीडिया की स्वतंत्रता या इससे ऊपर आतंकवाद के विरुद्ध शून्य सहन की प्रवृति। लेकिन इसके अलावा भारत और अमरीका के संबंध ऊपर और नीचे तनाव और मधुरता के बीच बनते बिगड़ते रहे हैं। दिल्ली और वाशिंगटन के बीच नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद संबंध मजबूत होने की प्रबल संभावना है। शायद अमरीका ही विश्व का आखिरी देश था जिसने नरेन्द्र मोदी की विजय को सबसे अंत में स्वीकारा है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के दौर में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद से अमरीका के साथ भारत के संबंध प्राय: शिथिल ही रहे।
अमरीका द्वारा खोबरागड़े प्रकरण के बाद से व्यापार पर त्वरित कार्यवाही ऐसे मुद्दे थे जिनसे आपसी संबंध गड़बड़ होते गए। अमरीकी व्यापार प्रतिनिधि माईकल फ्रोमैन ने दवा पेटेंट के बहाने भारत पर दबाव बनाने का प्रयास किया था जिसका मतलब अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जगह देकर भारतीय घरेलू बाजार को खत्म करना था। भारत को 301 की सूची में रखना कोई नयी बात नहीं। 1991-92 में तत्कालीन अमरीकी व्यापार प्रतिनिधि कार्ला हिल्स ने बिना अन्तरराष्ट्रीय बौद्धिक संपदा अधिकार कानून या वैधानिक नियमों को सोचे भारत में निवेश पर कार्रवाई करने की धमकी दी। उन्होंने अनुभाग 301 के द्वारा अमरीका के लिए भारतीय बाजार खोलने पर जोर दिया था। अमरीकी चेम्बर ऑफ कॉमर्स की रपटों के अनुसार फ्रोमैन अब वास्तव में वही प्रयास करना चाहते हैं जिसके प्रयत्न में कार्ला हिल्स असफल रही थीं और भारत ने उस समय भी दबाव में आने से इनकार किया था। जिससे भारत को 301 की सूची में से हटाने के लिए अमरीका को मजबूर होना पड़ा था।
वाशिंगटन का हमेशा यही नजरिया रहा है कि जो देश उनके व्यावसायिक हितों के विरुद्ध जाता है, उसके खिलाफ तुरंत कार्रवाई की तैयारी हो जाती है। वर्तमान संदर्भ में भी अमरीकी व्यापार संगठन के बाद अमरीकी खाद्य और औषधि प्रशासन (एफडीए) आयुक्त मार्गरेट हैम्बर्ग जब यहां आए थे तो उन्हें दवा क्षेत्र में पेटेंट विषयक भारत की चिंताओं से अवगत करा दिया गया था और साथ ही अमरीकी बाजार से भारतीय औषधि कंपनियों और औषधियों को बाहर कर देने पर भी कड़ा ऐतराज किया गया था। इसी क्रम में अमरीका की फेडरल ऐविएशन ऑथारिटी ने भारत की सुरक्षा रेटिंग को डाउनग्रेड कर दिया था। उसके बाद भारत-अमरीकी संबंध और भी कड़वे हो गए।
भारतीय नागरिक उड्डयन महानिदेशालय ने भी भारत में विदेशी हवाई जहाजों की उड़ान संबंधी अपने सुरक्षा मानक घोषित करने में देरी नहीं की। खोबरागड़े के साथ हुए दुर्वव्यवहार के बाद अमरीकी ऊर्जा सचिव अर्नेस्टो मुनोज भारत आए। आर्थिक और व्यापारिक मुद्दों के अतिरिक्त दोनों लोकतांत्रिक देशों को पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान, सीरिया विश्व व्यापार संगठन आदि मुद्दों के साथ दोहा वार्ता, जलवायु परिवर्तन आदि मुद्दों पर विद्यमान मतभिन्नता पर भी ध्यान देना होगा। पाकिस्तान द्वारा भारत में जारी आतंकवादी गतिविधियों के बावजूद अमरीका का खुला समर्थन और परमाणु नीति पर दोहरा मापदंड एक बड़ी समस्या है। इसके साथ ही अफगानिस्तान पर अमरीकी रवैया और उसके बहाने पाकिस्तान का समर्थन चिंता के विषय हैं। भारत कभी नहीं चाहेगा कि अमरीका प्रत्येक मंच पर भारत और पाकिस्तान की तुलना करते हुए अपने शक्ति संतुलन के गणित को साधते हुए एशियाई क्षेत्र और विश्व मामलों में भारत का स्थान निर्धारित करने वाले न्यायाधीश की भूमिका निभाए।
यदि भारत और अमरीका की संबंधों को राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बनाना है तो ओबामा को पूर्व राष्ट्रपति बुश की तरह भारत की राजनीतिक महत्ता को स्वीकारना होगा। ओबामा को अपने अधिकारियों से सीधे यह कहना होगा कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में निम्नतर हरकतों के लिए कोई जगह नहीं है। एक बार चीनी प्रधानमंत्री ली जियांग ने कहा था- 'अमरीका के साथ कुछ न कुछ गड़बड़झाला अवश्य है। विश्व की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को एक दूसरे के आपसी हितों का सम्मान करना चाहिए।' यह एक वास्तविक तथ्य है कि यह गड़बड़झाला हमेशा प्रभावी दिखता है। चीन के संदर्भ में जिसकी कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और विकास का तरीका एकदम अलग है। उसके परिप्रेक्ष्य में भारत को यदि देखा जाए तो यहां भी दो देशों के संबंधों में यही मानक बनाना चाहिए। भारत को चीन की तरह अमरीका से अपनी हितों का सम्मान करवाना होगा। एशियाई देशों में भारत स्वयं को अपने बल पर स्थापित कर रहा है इसके लिए अमरीका की पैरवी की आवश्यकता नहीं। 1998 के पोखरण परीक्षणों के बाद से भारत-अमरीका के संबंध निचले स्तर पर पहुंचे थे। अब उन संबंधों को प्रगाढ़ उसी स्थिति में बनाया जा सकता है जब अमरीकी प्रशासन इस वास्तविकता को मान्यता दे कि क्या किये जाने की जरूरत है और वास्तव में किया क्या गया है।
भारतीय लोकतंत्र में मोदी का प्रधानमंत्री के रूप में उदय केवल एक सरकार या दल का परिवर्तन नहीं है बल्कि यह एक बड़े महत्वपूर्ण बदलाव का सूचक है। उनका उदय भारत में नये सामाजिक राजनीतिक वास्तविक परिदृश्य और एक नई सांस्कृतिक विश्वसनीयता की शुरुआत है जोकि आर्थिक विकास को और अधिक राजनीतिक ताकत देने वाला है। विकास का ऐसा मंत्र जो कि उत्तरदायी और पारदर्शी सुशासन पर अवलंबित है। अपेक्षा यह है कि मोदी के रूप में एक विशेष और अद्भुत नेतृत्व शक्ति के समक्ष अमरीका अपनी एक नयी और ठोस भूमिका तय करेगा। इससे इतर स्थिति में वाशिंगटन के हाथ इस देश और एशियाई क्षेत्र में कुछ नहीं लगेगा। भारत अमरीकी संबंधों में नागरिक परमाणु समझौता, बड़े औषधीय हितों की रक्षा, आर्थिक सरंक्षण, रक्षा समझौते, हथियारों की खरीद या दूसरे देश को केवल बाजार की तरह देखने की अवधारणा इत्यादि पर चर्चा होगी। आज के जागृत भारत में जहां कि मोदी के घोषणापत्र को प्रचंड बहुमत मिला है, ओबामा की प्राथमिकता में राजनीतिक प्राथमिकता के रूप में मोदी का स्थान भी तय होगा। तभी कई द्विपक्षीय मुद्दों को हल करते हुए आगे बढ़ा जाएगा। ओबामा ने यह बात स्वीकार की है कि भारत के साथ संबंधों की अमरीकी नीति को नये परिप्रेक्ष्य में गंभीरता से देखने की जरूरत है।
यद्यपि अमरीका ने मोदी को गलत नजरिये से ही देखा है लेकिन उनके कुशल नेतृत्व, प्रशासनिक कुशलता, लोकप्रियता सिद्ध होने के भारत-अमरीकी संबंधों की पुनर्व्याख्या का अवसर खड़ा कर दिया है। अमरीका का एक सपना है, भारत का भी विश्व मिशन का एक सपना है। विश्व मामलों में भारत की स्वतंत्रता को अमरीका को मान्यता देनी होगी- केवल एक आर्थिक और सैन्य शक्ति के रूप में नहीं बल्कि इसका कारण सांस्कृतिक और ऐतिहासिक है और ये कारण नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में और भी प्रासंगिक हो जाते हैं।
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