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मुजफ्फर हुसैन
पिछले दिनों केरल में एक क्रांतिकारी घटना घटी। केरल ईसाई मतावलम्बियों का सबसे बड़ा गढ़ है। वहां के शक्तिशाली केथोलिक चर्च ने अपने अनुयाइयों को शव जलाने की आज्ञा देने का निर्णय किया है। यदि कोई परिवार यह चाहता है कि उसके प्रिय जन की मृत्यु के पश्चात उसके शव को जलाया जाए तो चर्च को इसमें तनिक भी हिचकिचाहट नहीं है। केरल के अर्थोडॉक्स जैकबाइट मैरथोमा और चर्च ऑफ साउथ इंडिया सहित सभी चर्च अपने से जुड़े कब्रिस्तान के स्थान के लिए जूझ रहे हैं। साइरो मलाबार चर्च के प्रवक्ता फादर पाल थेलाकट ने कहा कि शवों को जलाने का निर्णय सीधे-सीधे जमीन के अभाव से जुड़ा है। फादर का कहना था कि जलाना और गाड़ना दोनों में कठिनाइयां हैं। गाड़ने के लिए जमीन की दिक्कत है तो जलाने से पर्यावरण संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं। फादर का कहना था कि हमारे यहां दफन विधि ही अंतिम संस्कार के लिए स्वीकार की गई है लेकिन कुछ अपवादों में केनन लॉ जलाने की आज्ञा प्रदान करता है।
फादर के उपरोक्त वक्तव्य का विश्लेषण करें तो ईसाई पंथ ने दोनों प्रक्रियाओं की आज्ञा दी है। यथार्थ तो यह है कि जमीन का कोई विकल्प नहीं है लेकिन ईंधन के रूप में जलाने के लिए तो अनेक वस्तुएं हैं। आज के युग में ऊर्जा के साधनों की नई-नई खोज हो रही है इसलिए यह कहा जा सकता है कि इसका अभाव नहीं होगा और जिस दिन होगा मनुष्य का मस्तिष्क उसे खोज निकालेगा। इसलिए इस समय तो बढ़ती आबादी के कारण जमीन ही सबसे बड़ी समस्या है। यदि हमारी धरती कब्रों से भर जाए तो इंसान का जीना कठिन हो जाएगा। कृषि तो बहुत दूर वह अपने निवास के लिए कौन सा विकल्प ढूंढेगा इसके आगे फिलहाल तो प्रश्नवाचक चिन्ह ही है। कब अस्थायी रहे इसके लिए न तो अब तक कोई कानून बने हैं और न ही दफन विधि करने वाले पंथ इस मामले में सहमत हैं। इसलिए उक्त समस्या का एकमात्र निवारण है अपने शवों को अग्नि के सुपुर्द कर देना।
परमपिता परमेश्वर तक पहुंचने के लिए मानव कल्याण हेतु समय-समय पर अनेक महापुरुष इस धरती पर जन्म लेते रहे। उन्होंने जो दर्शन और मार्ग बतलाया उसके अनुसार धर्म गुरुओं ने इबादत के मार्ग बतलाए, इसलिए यह कहा जा सकता है कि धर्म वह माध्यम है जिसके द्वारा हम उस सर्वशक्तिमान तक पहुंच सकते हैं। धर्म तो बाद में आया लेकिन ईश्वर का पैदा किया हुआ भूमंडल सबसे पहले अस्तित्व में आया। यदि प्राकृतिक वातावरण नहीं होता तो मनुष्य जीवित नहीं रह सकता था। उक्त वातावरण- जिसे जलवायु का नाम दिया गया तदनुसार मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति होती रही। जिसे साधारण भाषा में प्रकृति अथवा कुदरत कहते हैं, इस वातावरण के अनुसार मनुष्य का लालन-पालन भी होता रहा और जीवन की आवश्यकताएं भी वह जुटाता रहा। जो वस्तु एक बार जन्म लेती है उसका मरना स्वाभाविक है, मर जाने के पश्चात उसकी देह को क्या किया जाए यह उसके सामने सबसे बड़ा सवाल था। यदि कचरे के ढेर पर उसके शरीर को फेंक दिया जाए तो वह अपनों के लिए एक दुखद घटना होगी और शेष लोगों के लिए उसकी मृत देह से वातावरण के कलुषित होने का खतरा पैदा हो जाएगा। इसलिए जहां जिस प्रकार की भौगोलिक सुविधाएं थीं उसके अनुरूप उसकी अंतिम क्रिया की जाती रही। जहां जंगल उपलब्ध थे वहां उसे आग के हवाले कर दिया गया, जहां रेगिस्तान था उसे जमीन में दफना दिया गया। टापुओं पर रहने वालों ने उसे समुद्र के हवाले कर दिया। उसके साथ ही अपने शरीर का उपयोग परमात्मा के किसी जीव के भोजन के रूप में होता है तो उसे गहरे कुएं जैसा गड्ढा बनाकर उसमें बैठा दिया गया। लेकिन जब दुनिया में मनुष्य की समझ के अनुसार संस्कारों ने जन्म लिया और पैगम्बरों ने उसे जिस प्रकार का मार्गदर्शन दिया उसका अनुसरण करते हुए दुनिया के भिन्न-भन्न कोनों में रहने वालों ने अपना लिया।
जब धर्म की प्रासंगिकता पर चर्चा होने लगी तो हमारे अंतिम संस्कार भिन्न-भिन्न धमार्ें से जुड़ गए। लेकिन आज भी भौगोलिक आधार पर जो साधन उपलब्ध हैं उन्हीं को प्रत्येक धर्म ने प्राथमिकता दी। लेकिन अपना धर्म और उससे जुड़े संस्कार अलग दिखलाई पड़े इसलिए इस प्राकृतिक आवश्यकता को हर धर्म ने अपनी विशेष पहचान का रूप दे दिया। रेगिस्तान में पनपे धर्मों के लिए धरती का कोई मसला नहीं था। क्योंकि वहां लोगों के पास जमीन अधिक थी और जनसंख्या कम। इसलिए रेगिस्तान की धरती पर आच्छादित रेत को हटा देते और उसमें अपने प्रियजन के मृत शरीर को गाड़ कर आगे बढ़ जाते। वनों में जहां लकड़ी सरलता से उपलब्ध थी उस मृत शरीर को जलाकर उसका नामोनिशान मिटा देते थे। लेकिन राजनीति और समाज को प्रभावित करने के लिए जब धर्म में कट्टरता पैदा होने लगी तो उसने इस अंतिम विधि को अपने धर्म की पहचान बना लिया। आज किसी यहूदी, ईसाई और मुसलमान से कहा जाए कि वह इस मृत शरीर को अग्नि के सुपुर्द कर दे तो वह इसे अपने धर्म के विरुद्ध समझेगा। लेकिन बढ़ती आबादी के कारण दुनिया में कब्रिस्तान से अधिक आवश्यकता अन्न उगाने के लिए और रहने के लिए मकान ही है। पश्चिमी एशिया के देश, जहां से तीनों बड़े धर्म निकले, मृत शरीर को दफन करने में ही अपना कल्याण समझते हैं। इसलिए कब्रिस्तान के रूप में जमीन का उपयेाग बड़े पैमाने पर होने लगा। उनके सामने अपना जीवन जितनी बड़ी चुनौती थी उतनी ही बड़ी आवश्यकता अपने अपनाए गए धर्म की भी थी। इसलिए दोनों आवश्यकताओं में से किसे प्राथमिकता दी जाए यह मुख्य मुद्दा बन गया। जो मर गया उसके बारे में सोचना और जो जीवित है वह अपना जीवन भली प्रकार से व्यतीत करे, दोनों के बीच एक धर्मसंकट खड़ा हो गया? लेकिन धर्म को संकीर्ण सीखचों में नहीं रखा जा सकता है इसलिए यह भी विचार किया जाने लगा कि मृत शरीर को यदि अग्नि के हवाले कर दिया जाए तो इसमें कोई हर्ज नहीं होना चाहिए, लेकिन इस विशालता से सोचने वाले लोग कितने हैं? यह तो किसी के धर्म को खतरे में डाल देने वाली बात होगी? इसलिए जिस किसी ने इस प्रकार का निर्णय लिया उससे संघर्ष की नौबत आ गई। लेकिन कुल मिलाकर व्यक्ति की पहली अनिवार्यता उसका जीवन है। इसलिए मृत्यु के नाम पर किसी जीवित आदमी को मारा नहीं जा सकता।
जहां तक बौद्धिक आधार पर इस समस्या के लिए बहस करने का सवाल है वहां मनुष्य के जीवित रहने के मुद्दे को ही प्राथमिकता दी जाएगी इसलिए अब दुनिया में एक वर्ग ऐसा भी तैयार हो गया है जो यह बात मान लेने को तैयार है कि परिस्थितियों के अनुसार अंतिम संस्कार के लिए हर मनुष्य को अपनी वैचारिक स्वतंत्रता होनी चाहिए। तदनुसार मध्य पूर्व से निकले तीनों धर्मों के दार्शनिक एवं विचारक इस बात पर सहमत होते जा रहे हैं कि इसके संबंध में हर धर्म के अनुयाई को उसके अपने विवेक से निर्णय लेने की छूट दी जानी चाहिए। इसलिए अब यह समाचार यदा कदा सुनने को मिलते हैं कि अनेक बुद्धिजीवी एवं समाज सुधारक ईसाई, मुस्लिम और यहूदी अपने शरीर को अग्नि के हवाले कर देने में किसी प्रकार की हिचकिचाहट नहीं करते हैं। समाचार पत्रों में इस प्रकार के समाचार आए दिन प्रकाशित होते रहते हैं। अभी पिछले दिनों भारत की जानी-मानी गायिका शमशाद बेगम के मृत शरीर को अग्नि के हवाले कर दिया गया। मुम्बई के पवाई क्षेत्र में हीरानंदानी वसाहट के निकट स्थित श्मशान गृह में उन्हें चिता के सुपुर्द किया गया।
इससे पूर्व भारत के जाने माने बुद्धिजीवी करीम भाई छागला, भारत के उपराष्ट्रपति पद को सुशोभित करने वाले एवं सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश हिदायतुल्ला एवं सत्यशोधक संगठना के प्रणेता हमीद दलवाई का नाम भी इस सूची में बड़े गर्व से लिया जाता है। उर्दू साहित्य की प्रसिद्ध उपन्यासकार असमत चुगताई ने मुम्बई स्थित चंदनवाड़ी श्मशान गृह में अपने शरीर को विद्युत श्मशान गृह के हवाले किया था। यह सूची तो मुम्बई की है लेकिन सम्पूर्ण देश में अनेक मुस्लिम बुद्धिजीवियों और समाज के अग्रणी लोगों ने इस पगडंडी पर चलना पसंद किया है।
मुस्लिम समाज की तरह ईसाई समाज में भी अग्नि संस्कार स्वीकार करने की प्रथा अब चल पड़ी है, इसलिए मृत्यु के पश्चात कौन सा मार्ग अपनाया जाना चाहिए इस विषय में व्यक्तिगत स्वतंत्रता होना अनिवार्य है।
महानगर मुम्बई में उपनगरों सहित सभी स्थानों के कब्रिस्तान भर चुके हैं। वहां कब्रों की जगह लाखों में बिकती है। यद्यपि नगरपालिका सभी को मुफ्त स्थान देती है। लेकिन धर्मगुरुओं और समाज के तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ताओं का यह व्यापार बन चुका है। इसलिए मुम्बईवासियों को इस समस्या पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
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