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मध्य एशिया के तीन बड़े मजहबी ग्रंथ इस बात के साक्षी हैं कि जब से आदमी का जन्म हुआ है, वहां पैदा हुआ इंसान लड़ता रहा है। उन दिनों आज की तरह इंसानों की इतनी बड़ी बस्ती नहीं थी। फिर भी वह कभी धरती के टुकड़े के लिए तो कभी पानी के लिए लड़ता रहा है। इसी धरती पर एक लाख 24 हजार पैगम्बरों के जन्म होने की बात इनके ग्रंथों में कही गई है। यहां सर्वप्रथम यहूदी पंथ जन्मा। उसके बाद हजरते ईसा ने ईसाइयत और हजरत मोहम्मद ने इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया। जबूर, तोरेत और कुरान एक के बाद एक पैगम्बर लेकर आए। क्रूसेड की कथा-व्यथा से सारा जगत परिचित है। इतना ही नहीं, ये लड़ाइयां आगे बढ़ीं तो उन्होंने जिहाद का रूप ले लिया। पहले तो ईसाइयों और यहूदियों के बीच वर्षों तक लड़ाइया चलती रहीं। बाद में इस्लाम आ जाने के बाद ईसाइयों और मुसलमानों के बीच संघर्ष शुरू हुआ। इस बीच ईसाइयों और यहूदियों में समझौता हो जाने के बाद ईसाई और मुसलमानों के बीच युद्ध शुरू हो गए। सम्पूर्ण मध्यपूर्व की धरती, जिस पर अधिकांश रूप से रेगिस्तान फैला हुआ है, उसमें जब खनिज तेल की खोज हुई तो उक्त युद्ध तेज होते चले गए। ईसाई तो दुनिया के अन्य भागों में भिन्न-भिन्न कारणों से फैल गए, लेकिन यहूदियों ने मुसलमानों इस भूमि को नहीं छोड़ा। यहूदियों का एकमेव देश इस्रायल और अरबी मुसलमानों के 26 देश इसी धरती पर अस्तित्व में आ गए। द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के बाद यहूदियों ने अपने देश की मांग की। एक लम्बे संघर्ष के बाद उन्हें इस्रायल नसीब हुआ। मुस्लिम राष्ट्र तो अपनी जनसंख्या के कारण सारी दुनिया में अपने पांव पसारते रहे लेकिन मुट्ठीभर यहूदियों ने ईसाइयों की सहायता से अपनी मातृभूमि को ही अपनी कर्मभूमि बनाने का निश्चय किया। लेकिन उसके आप-पास बसे मुस्लिम देशों का अस्तित्व उन्हें चैन की सांस नहीं लेने देता। यही कारण है कि समय-समय पर मुस्लिम राष्ट्रों से उनका संघर्ष होता रहता है। अब तक वे तीन बड़ी लड़ाइयां लड़ चुके हैं। इनमें 1967 का युद्ध सबसे भीषण माना जाता है। राष्ट्र संघ से लगाकर दुनिया में शांति के लिए प्रयास करने वाले बड़े देशों ने इन दोनों ताकतों के बीच संतुलन पैदा करके शांति स्थापित करने की बारंबार कोशिश की है। इस्रायल की सीमा से ही लगते हुए एक बड़े भाग में, जो फिलिस्तीन कहलाता है, वहां मुस्लिम जनसंख्या अधिक होने के कारण एक अलग से मुस्लिम देश भी बना दिया। इसके संघर्ष में यासर अराफात सबसे अग्रणी नेता रहे। विश्व की महाशक्तियों ने बीच बचाव करके उसे अलग राष्ट्र तो बना दिया लेकिन कट्टरपंथी यहूदियों के गले यह बात नहीं उतरी इसलिए अब भी इस भाग में रक्तपात होता रहता है। यासर अराफात के बाद हमास नामक संगठन ने इस लड़ाई का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया है। इस्रायल की सीमाओं से जुड़े भाग गाजा में पिछले कुछ दिनों इस लड़ाई ने गम्भीर रूप धारण कर लिया था। बतलाया जाता है कि एक हजार से अधिक फिलिस्तीनी मारे गए हैं। सम्पूर्ण इस्लामी जगत उनके पक्ष में आवाज बुलंद कर रहा है। ईद का अवसर देखकर विश्व की ताकतों ने वहां युद्धबंदी का प्रयास किया, लेकिन यह प्रयास कितने दिन सफल होता है इस पर किसी को भरोसा नहीं है। पाठक भली प्रकार जानते हैं कि मध्यपूर्व के अरब देश स्वयं ही आपस में उलझे हुए हैं। वहां सीरिया और इराक के बीच जो लड़ाई चल रही है उसने शिया-सुन्नी संघर्ष का रूप ले लिया है। इस्रायल इस संघर्ष को अपने लिए वरदान मानता है। क्योंकि जब उसके दो पड़ोसी मुस्लिम राष्ट्र ही आपस में लड़ रहे हों तो यह उसके लिए लाभ की बात है। ईराक में इन दिनों शिया हुकूमत है।
सद्दाम के समय तक वहां सुन्नियों की सत्ता थी। सद्दाम का पतन हो जाने के बाद अमरीका ने नूरूल मलिकी के नेतृत्व में शिया सरकार का गठन कर दिया जिसे वहां का बहुमत घराने वाला सुन्नी पचा नहीं पाया है। पड़ोसी देश सीरिया सुन्नी मतावलम्बी होने के कारण अलकायदा द्वारा प्रशिक्षित हुआ किसी समय ओसामा का बायां हाथ समझा जाने वाला महत्वाकांक्षी सुन्नी नेता बगदादी ने अपने लिए यह अच्छा अवसर देखा और उसने स्वयं को सुन्नी मुसलमानों का खलीफा घोषित कर दिया। अब वह ईरान से भी दो-दो हाथ करने के लिए तैयार है। यदि इराक में सुन्नी-शिया संघर्ष तेज होता है तो उसका लाभ बगदादी को मिलता है। वहां की स्थिति यह बतला रही है कि शिया-सुन्नी संघर्ष तेज होगा। चूंकि गाजा का भाग इन सीमाओं से सटा हुआ है इसलिए इस्रायल इसे अपने लिए वरदान मानता है। शिया सुन्नी संघर्ष में वह अपनी रोटी सेंक लेना चाहता है। गाजा यद्यपि अब स्वतंत्र फिलिस्तीन का भाग है लेकिन इस्रायल की नजरें 1949 के युद्ध से अब तक उस पर रही हैं। हमास अत्यंत आधुनिक हथियारों से लैस होकर गोरिल्ला युद्ध लड़ता है जो इस्रायल के लिए बड़ी चुनौती है, लेकिन इस्रायल इसे अपनी जीवन और मृत्यु का सवाल समझकर उसके लिए कोई सुस्ती नहीं बरतना चाहता है। मुस्लिमों का सुन्नी शिया युद्ध इस्रायल के लिए वरदान बना हुआ है, वह किसी भी कीमत पर इसे छोड़ना नहीं चाहता है।
1967 में अब इस्रायल के 6 दिवसीय युद्ध के पश्चात इस्रायल की गाजा पर विजय हो जाती है। 1993 में 26 वर्ष के पश्चात नार्वे की राजधानी ओसलो में इस्रायली प्रधानमंत्री इसहाक राबिन और पीएलओ के नेता यासर अराफात के बीच संधि हो जाती है। फिलिस्तीन नेशनल अथॉरिटी (पीएनए) गाजा और पश्चिमी तट के नगर जेरिको का स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में अधिकतर संभाल लेती है। 1994 में 27 वर्ष के वनवास के पश्चात यासर अराफात गाजा वापस लौटते हैं जहां उनका एक नायक के रूप में स्वागत होता है।1995 में इसहाक बिन रोबिन की हत्या हो जाती है। 1996 में यासर अराफात पीएनए के पहले राष्ट्रपति चुने जाते हैं। लेकिन हमास और इस्लामी जिहाद के समर्थक सम्पूर्ण फिलिस्तीनी राष्ट्र के लिए मिस्र में अपना संघर्ष जारी रखते हैं। इस बीच अनेक देश हमास और जिहादी संगठन को आतंकवादी संगठन घोषित कर देते हैं। 2000 में पी.एन.ए. अपने पश्चिमी तट पर बसे नगर रमला को केन्द्र बनाकर अनेक भागों पर कब्जा कर लेती है। इस प्रकार शांति वार्ता खटाई में पड़ जाती है। इस्रायल की अतिरेकी संस्था के नेता एरियल शेरोन माउंट टेम्पल का दौरा करते हैं, जिसे एक उग्रवादी कदम माना जाता है। इससे चिढ़कर हमास और अन्य फिलिस्तीनी उग्रवादी अपने हमले शुरू कर देते हैं। एक दिन यह युद्ध का स्वरूप धारण कर लेती है। इसका जवाब देने के लिए हमास और इस्लामिक जिहाद इस्रायल पर रॉकेट से हमले करते हैं। इस्रायल पलट कर उसके नेताओं पर हमला करता है।
2001 में एरियल शेरोन आम चुनाव में इस्रायल में अच्छे वोटों से जीत जाते हैं वे इस्रायल के प्रधानमंत्री बन जाते हैं। 2014 में यासर अराफात की मृत्यु हो जाती है। इनके स्थान पर महमूद अब्बास फिलिस्तीन के प्रधानमंत्री चुन लिए जाते हैं। वे इस्रायली प्रधानमंत्री से मिलकर गाजा से इस्रायली सैनिकों को बाहर निकालने के प्रयास करते हैं। परिणाम स्वरूप 2005 में इस्रायली सैनिक गाजा को खाली कर देती हैं।
2006 में हमास फिलिस्तीन के चुनाव में भारी मतों से जीत जाती है। 2007 में महमूद अब्बास की फतेह मूवमेंट और हमास के बीच मतभेद हो जाते हैं। इससे फिलिस्तीन के अनेक क्षेत्रों पर उनका अधिकार बढ़ जाता है। फतेह मूवमेंट के अधिकार क्षेत्र में पश्चिमी तट आ जाता है, जबकि हमास का नियंत्रण गाजा पर हो जाता है। इस बीच मिस्र और इस्रायली प्रतिबंधों से निपटने के लिए हमास अपने अधीन धरती के नीचे सुरंग बनाना शुरू कर देता है, फिर से युद्ध की चर्चाएं शुरू कर देते हैं।
इस्रायल हमास और इस्लामिक जिहाद का पाठ पढ़ाने के लिए एक बड़ा हमला कर देता है। 2012 में इस्रायल हमास पर एक और हमला करता है। इसके बाद यह सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है। इस्रायल ने अब मन में ठान ली है कि वह भविष्य में कोई समझौता नहीं करेगा। लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव उस पर बना हुआ है। लगता है इस बार इस्रायल सम्भव हुआ तो समझौते से नहीं बल्कि आर-पार की लड़ाई लड़कर इस समस्या का सामधान करने के लिए कमर कस चुका है। जहां तक भारत की नीति का सवाल है वह आंख बंद कर फिलिस्तीन का समर्थन कर रहा है।
मुजफ्फर हुसैन
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