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मनुष्य को स्मृति के सहारे अपनी अस्मिता का बोध होता है। यदि वह जीवन की महत्वपूर्ण घटनायें, अनुभव, परिवार और समाज से अपने रिश्ते भूल जाये तो न तो वह सामाजिक दायित्व निभाने योग्य रह जायेगा और न ही उसके व्यक्तित्व का समुचित विकास होगा। यह बात राष्ट्रीय इतिहास पर भी लागू होती है,जो विगत की महत्वपूर्ण घटनाओं, नायकों और खलनायकों के सिलसिलेवार विवरण देकर नागरिकों को अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का मूल बोध देता है। स्मरणीय है कि लोकतांत्रिक भारत का इतिहास कुल 67 साल ही पुराना है लेकिन फिर भी वह इतना जटिल, इतनी तरह के अंतर्विरोध समेटे हुए है कि कई बार हमको वह एक रहस्यमय उलटबांसी प्रतीत होने लगता है। उदाहरण के लिये देश ने 67 वर्षों में हर क्षेत्र में तरक्की की है राष्ट्रीय सकल आय, माल का उत्पादन, हमारे नागरिकों की आयुष्य दर और साक्षरता दरें इस दौरान कई-कई गुनी बढ़ चुकी हैं। बाढ़, सुखाड़ या अकाल से लाखों की मृत्यु भी अब नहीं होती पोलियो तथा चेचक सरीखे रोगों का उन्मूलन हो गया है। और कम से कम महानगरों में भारत का संपन्न वर्ग अब उसी ठाट से रहता है विश्व भ्रमण करता रहता है जैसे कि उन्नत देशों का,लेकिन दूसरी तरफ यह भी कटु सत्य है कि आज भी हमारा राज समाज घोर विषमताओं से घिरा हुआ है। आज भी दुनिया के सर्वाधिक कुपोषित, अशिक्षित और अवैध बस्तियों में पशुवत् रहने को मजबूर नागरिक भारत में ही बसते हैं। हाँ, हमारे पास एक जतन से बनाया गया संविधान अवश्य है जो बार-बार संशोधित होकर अग्रगामी बनाया जाता रहता है। पर तमाम कानूनों के बाद भी हम कन्याभ्रूण हत्या, हर मिनट घटनेवाले बलात्कार या दहेज जैसी कुप्रथा से मुक्त नहीं हो सके हैं। आरक्षण देने के बाद भी हमारे यहाँ वंचितों की कतार बड़ी लंबी हैं। जाति, वर्ग, क्षेत्र, सामुदायिक तथा लिंगगत विषमतायें जमीन पर खास कम नहीं हुईं हैं और राजनेता तथा प्रशासक इस बाबत अपनी जवाबदेही मानने से बिदकते हैं। नतीजतन हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार एक घुन की तरह हमारे लोकतंत्र के चारों पायों-विधायिका,कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा मीडिया को दिन-रात कुतर रहा है। फिर भी हमारा दृढ मत है कि वह लूला लंगड़ा भले लगे, भारत में लोकतंत्र के विकल्पों पर चर्चा करना बेकार है जैसा विंस्टन चर्चिल ने कहा था, माना कि लोकतंत्र बुरा है, लेकिन उसके जो विकल्प हैं, वे तो उससे कहीं अधिक बुरे हैं।
1930 में जब भारत ने सबसे पहले स्वाधीनता दिवस मनाया था तो उस समय गाँधी जी 60 साल के थे, इंदिरा गांधी बारह साल की। आज इन दोनांे के बाद की युवा पीढ़ी भी बुजुर्ग हो चली है। पर पुराने उदात्त अनुभवों का लाभ उठाने की बजाय उन राष्ट्रीय बुजुर्ग नेताओं में से अधिकतर विजीगीषु राजनैतिक जत्थों के ऐसे वजनी सदस्य हैं,जिनके पास सामयिक समस्याओं से जम कर लोहा लेने के लिये सपनों का कोई नया जखीरा नहीं है। वे जानते हैं कि दीर्घावधि में जाति या संप्रदाय के वोट बैंक गढना, पोसना, कालेधन की पूंछ पकड़कर चुनावी नदी पार करना यह सब लोकतंत्र के लिये कितना घातक है, लेकिन हर दल इससे नजर चुराता रहता है बस इस चुनाव में नैया पार लग जाये फिर सोचेंगे- यही उनका नजरिया रहता है। इसलिये 15 अगस्त, 2014 में ईमानदार नागरिकों के बीच कई सवाल मन को मथ रहे हैं क्या हमारे लोकतंत्र की संरचना में ही कोई बुनियादी खोट है? क्या लोकतंत्र का वर्तमान् स्वरूप अमीर देशों के लिये ही प्रासंगिक है? तीसरी दुनिया के लोकतांत्रिक अनुभव पश्चिमी देशों से इतने भिन्न क्यों दिखते हैं? हमारे यहां अलगाववाद और सांप्रदायिकता की असली जडे़ं कहां हैं? राज में? समाज में? या विषमतामूलक अर्थजगत में? आज की ग्लोबल दुनिया में हमारे लोकतंत्र के बाजार का पश्चिमी पूंजीवाद से आदर्श रिश्ता क्या हो? हमारी आदर्श विदेशनीति और प्रतिरक्षा नीति किस तरह की हो ताकि हम बिना अपने राष्ट्रीय हितों से समझौता किये या बिना किसी बड़े देश का अनुचर बने अपने राष्ट्रीय हित स्वाथोंर् की आपूर्ति के लिये बेझिझक आगे बढ़ सकें? -मृणाल पाण्डे
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