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अन्य क्रांतिकारियों की भी उपेक्षा

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Jul 19, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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युद्ध-सैनिकों को पेंशन देने में पक्षपात

दिंनाक: 19 Jul 2014 13:19:57

भारत सरकार के केन्द्रीय सैनिक कल्याण निदेशालय (दिल्ली) ने वर्ष 1990 में द्वितीय विश्व युद्घ के सैनिकों अथवा उनकी विधवाओं को पेंशन की योजना बनाई जो राज्यों के सैनिक बोडार्े के माध्यम से वितरित की गई। इसकी नियमावली बनाई गई। प्रारम्भिक वषोंर्े में पेंशन रु 100 प्रतिमाह थी, जो अब रु़ 4000 प्रतिमाह हो गयी है। ऐसी कोई योजना प्रथम विष्वयुद्घ के सैनिकों के लिए नहीं बनी। उन सैनिकों, युद्घ विधवाओं अथवा उनके उत्तराधिकारियों के लिए पेंशन, उनको सेना में लेने अथवा पुनर्वास सुविधाएं अपेक्षित हैं ताकि सैनिकों का मनोबल बढ़े।

केवल कारगिल के सैनिकों तथा युद्घ विधवाओं की उपेक्षा की गई हो, ऐसा नहीं है। 1857 के क्रांतिकारियों की भी उपेक्षा की गई। पहले तो उस क्रांति के शहीदों की स्मृति में इने गिने स्मारक बने। जो बने भी उनके विकास का नाटक करके अपने नाम के शिलालेख लगवाकर कुछ नेताओं ने अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। बिठूर सत्तावनी केन्द्र के नायक नाना साहब पेशवा का केन्द्र तथा धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। क्रांति स्थली बिठूर पहुंचने के लिए कानपुर के निकट ब्रह्मावर्त्त रेलवे स्टेशन है। तांत्या टोपे के पौत्र विनायक राव टोपे ने इस लेखक को बताया कि 2007 में अमान परिवर्तन के वास्ते सात करोड़ की घोशणा के साथ तत्कालीन रेलमंत्री लालू यादव का शिलालेख लगवा दिया गया। राजाराम पाल ने भी 18 करोड़ नब्बे लाख की विकास योजना का पत्थर लगवाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। तब से परिवर्तन के बहाने ब्रह्मावर्त्त स्टेशन बंद है। पर्यटकों की परेशानी को शासन नहीं समझ रहा है।

नमूने का एक सर्वेक्षण

इस लेखक ने इन सैनिकों की शहादत के सम्मान को समझने के लिए नमूने के तौर पर उत्तर प्रदेश का जालौन जिला चुना। यह सैन्य बहुल क्षेत्र माना जाता है, जहां पूर्व सैनिकों के लगभग दस हजार परिवार हैं। माधौगढ़ तहसील के कई दर्जन गांवों में घर-घर में शौर्य और सैन्य-परम्परा, मिलती है। मालूम हो कि यहां सैन्य परम्परा का इतिहास 12 वीं सदी से मिलता है, जब यहां बैरागढ़ के मैदान में पृथ्वीराज चौहान तथा परमाल के बीच अन्तिम युद्घ हुआ था। यहां रणबांकुरे, कुशल घुडसवार तथा बन्दूकची भारी संख्या में हैं। अश्व सज्जा तथा उनके रोगों के अनेक विशेषज्ञ यहां हैं, जिनका उल्लेख आल्हखण्ड में भी विस्तार से मिलता है। मुगल काल में यह कालपी के अंतर्गत कनार परगने का हिस्सा था। इतिहासकार डॉ.आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव के अनुसार अकबर की सेना में कई हजार बन्दूकची इस क्षेत्र से भर्ती किये जाते थे। प्रथम विश्वयुद्घ में जिले से 140 सैनिकों के शामिल होने तथा दो दर्जन से अधिक बलिदान होने का उल्लेख 5 गांवों में बने युद्घ स्मारकों में अंकित है। किन्तु उन पर केवल संख्या अंकित है, सैनिकों के नाम नहीं। मेजर घनश्याम सिंह (से. नि.) तथा आनरेरी कैप्टेन मास्टर सिंह कुशवाहा ने इस लेखक को बताया कि जब तक अंग्रेज रहे, वे प्रतिवर्ष यहां सर झुकाने आते रहे, आजादी के बाद किसी को इनकी सुध नहीं आई। हरौली, अनघौरा, सिकरी व्यास, जगतपुर अहीर तथा गुढ़ा (बन्धौली) गांवों में स्थानीय नागरिकों ने युद्घ स्मारकों का जीणार्ेद्घार गायब हुए शिलालेख ढूंढकर, स्थानीय संसाधनों से कराया। जिला पंचायत अध्यक्ष से जगतपुर अहीर के निवासियों ने अनुरोध किया कि उनके गांव के सम्पर्क मार्ग का नाम शहीद मार्ग कर दिया जाय, परन्तु वह प्रार्थना पत्र रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया।
ये सभी सैनिक 7वीं राजपूत रेजीमेन्ट के थे। इसलिए ये पूर्वसैनिक रेजीमेन्टल सेन्टर फतेहगढ़ में कमाण्डेन्ट से मिलने 3 सितम्बर 2011 को गये। इन सैनिक परिवारों की समस्याएं बताने पर उन्हें कमाण्डेन्ट ने कमरे से बाहर निकलवा दिया। अब उन्हें रक्षा मंत्रालय तथा सेना मुख्यालय से आशा है कि प्रथम विश्व युद्घ के उन शहीदों के सम्मान के लिए कुछ किया जाएगा।

और चाय को बाजार मिल गया

भारतीय सैनिकों को ठिठुरन भरे रण क्षेत्रों में लड़ना पड़ा। उन्हें राशन में चाय, सिगरेट तथा विदेशी शराब दी जाती थी। प्रत्येक सैनिक को एक तिहाई औंस प्रतिदिन चाय मिलती थी। वे वहां चाय के आदी हो गए। युद्घ के बाद स्वदेश लौटे तो चाय की मांग बढ़ गई। विदेशों तथा अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित चाय बागानों से चाय आने लगी। कीमतें बढ़ गईं और चाय को बाजार मिल गया ।

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