|
सदी भर पहले तुर्की में इस्लाम का मजहबी-राजनैतिक अगुआ खलीफा हुआ करता था। अल्लाह में यकीन रखने वाले समस्त मुस्लिम 'उम्मा' का नेतृत्व और संपूर्ण विश्व को राजनैतिक इस्लाम के झंडे तले लाने की पेशबंदी, यही उसका काम था। तुर्की गणराज्य के पहले राष्ट्राध्यक्ष मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने जब देश की कमान संभाली तो लगा कि कबाइली तौर-तरीकों की बढ़वार खत्म करते हुए नई सोच का एक झरोखा खुला।
कट्टर सोच से बजबजाती अंधेरी गुफा में उदारवाद की यह रोशनी फैली जरूर लेकिन स्थाई न हो सकी। आज इस्लामी स्टेट ऑफ सीरिया एंड अल शाम (आईएसआईएस) के अगुआ, अबू बकर अल बगदादी ने खुद के खलीफा होने का ऐलान करते हुए एक बार फिर पूरी दुनिया के सुन्नी मुसलमानों को अपने पीछे लामबंद होने का आह्वान किया है।
बगदाद के बाद इराक के दूसरे सबसे बड़े शहर मोसुल में शिया और ईसाइयों के खून से रंगी सड़कें और धमाकों से तबाह इमारतें बता रही हैं कि पश्चिम एशिया से उठे इस बवंडर में पागलपन के वे तत्व हैं जब इंसान इंसान नहीं रह जाता। मोसुल के बाद नजफ और कर्बला पर सुन्नी धावे का ऐलान उन्माद के फैलाव की अगली कड़ी है और अब यह आग जल्दी थमती नहीं दिखती।
सुन्नी बर्बरता से तिलमिलाए दुनियाभर के शिया अपने पवित्र स्थानों को बचाने की जंग के लिए एकजुट हो रहे हैं। कुर्बानी की मिसाल देती तकरीरें हो रही हैं। शहादत के पर्चे भरे जा रहे हैं और सोमालिया से लेकर भारत तक अलग-अलग फिरकों के मुस्लिम नवयुवकों के इराक पलायन की खबरें आ रही हैं।
मानवता के लिए, लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए, यह पूरी स्थिति बड़ी विचित्र है! पश्चिम एशिया की यह उथल-पुथल आज पूरी दुनिया की सबसे बड़ी चिंता है। खास बात यह कि वर्तमान चिंताएं और भ्रम सिर्फ जिहादी आतंकवाद के अतिसंगठित स्वरूप से निपटने के तौर-तरीकों के बारे में नहीं हैं, बल्कि इस घटनाक्रम ने वैश्विक राजनीति की उलझनों, इस्लामी जगत की आपसी गुत्थम-गुत्था और बुद्धिजीवियों की भ्रमित करने वाले पालेबंदियों को भी सतह पर ला दिया है। कुछ सवाल आज पूरी दुनिया को मथ रहे हैं।
पहला सवाल उस पूंजीवादी व्यवस्था पर है जिसके दिए हथियारों के बल पर सीरिया से इराक तक इस्लामी आतंकियों का विस्तार हुआ और जो दुनिया-भर में खून-खराबे के खेल से ही फलती-फूलती है।
दूसरा प्रश्न उस सोच का है जो मनुष्य को जानवर बना देती है। अपने ही मजहब के शिया मुसलमानों को कसाई सी निर्दयता से काटते आईएसआईएस के हत्यारे उस इस्लामी व्यवस्था पर सवाल हैं जिसे अमन का मजहब कहकर प्रचारित किया जाता रहा है।
तीसरा सवाल अक्ल की फ्रेंचाइजी लेकर बैठे मानवता के ठेकेदारों का है। मोसुल में पसरे मातम से मुंह फेरकर सिर्फ गाजा की ढपली बजाने की जिद उन बुद्धिजीवियों की निष्पक्षता बताती है जो मानवता के मुद्दों का वजन सदा मुस्लिम बनाम अन्य के तराजू में ही तौलते हैं।
जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि पश्चिम एशिया की लगातार बिगड़ती स्थिति यदि वक्त रहते नहीं संभाली गई तो भारत सहित विश्व व्यवस्था और पूरी मानवता के लिए इसके परिणाम विनाशकारी होंगे।
आर्थिक तौर पर यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया के बड़े हिस्से की ऊर्जा जरूरतें पूरी करने वाला क्षेत्र मजहबी दुराग्रह की जहरीली जमीन बन जाए। सामाजिक तौर पर यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि शिया-सुन्नी मजहबी पाटों में पूरी मानवता को पिसने के लिए छोड़ दिया जाए। राजनैतिक तौर पर यह स्वीकार नहीं किया जा सकता की वैश्विक शासन के ध्रुव निर्मम हत्यारे तय करें।
बहरहाल, दुनिया को पश्चिम एशिया का बारूद पूरब की सहिष्णु सोच से ही ठंडा करना होगा। मुस्लिम समाज को मुख्यधारा से जोड़ने वाले सेतु तैयार करने होंगे। वहाबी इस्लाम की झुलसाती लपटों से मुसलमानों को बचाने के लिए हजरत मूसा के ईसा पूर्व उस काल की स्मृति ताजा करानी होगी जब अन्य मत-पंथों के लिए नफरत नहीं थी। दुनिया के देशों को अपने मतभेद छोड़कर मजहबी आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई छेड़नी होगी।
अधूरी तैयारी और अधूरे संकल्प के साथ असहिष्णुता के खलीफा के विरुद्ध यह लड़ाई सफल नहीं हो सकती।
टिप्पणियाँ