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वर्तमान सरकार द्वारा प्रस्तुत बजट का आकलन तरह-तरह से हो रहा है। कुछ विश्लेषकों को इसमें उद्योग के लिए उत्प्रेरक तत्व दिख रहे हैं, तो कुछ को आर्थिक चुनौतियों को साधने के बिंदु। परंतु इन सबसे अलग एक और दृष्टिकोण है जिसके आधार पर इस भाजपा नीत राजग सरकार के पहले बजट को देखा जाना चाहिए-यह कसौटी भावना की है।
हालांकि अर्थ क्षेत्र में तर्क की प्रधानता रहती है परंतु यह बजट भावनात्मक आधार पर आकलन की विशेष मांग रखता है। जनाकांक्षाओं की लहर पर सवार होकर आई ऐसी सरकार जिसका आधार ही भारतीयता की भावभूमि है भला तकार्ें को भावनाओं से ऊपर कैसे रख सकती है? यही वह मापदंड है जिस पर सरकार की बजटीय अनुशंसाओं को जांचना जरूरी है। इस परीक्षा में वर्तमान बजट कमोबेश खरा उतरता है।
सामाजिक विषमता की खाइयों और पर्वत से घोटालों का जो बीहड़ पूर्व सरकार ने खड़ा किया है उसमें इस सरकार के लिए जोखिम और चुनौतियां कम नहीं हैं। परंतु यह कहना होगा कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने आर्थिक कुचक्र को तोड़ने के लिए पहला कदम बढ़ाते हुए भावनाओं की जमीन पर भी ठीक से पांव जमाए रखे हैं। इस बजट में किसी व्यक्ति अथवा परिवार की बजाय भारतीयता की वह गूंज है जो इस देश के लोग दशकों से सुनना चाह रहे थे। अर्थव्यय की धारा तय करते हुए मोक्षदायिनी गंगा मां के कष्ट निवारण की चाह। पं. दीनदयाल उपाध्याय, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, सरदार पटेल और महामना मदन मोहन मालवीय जैसे पुरखों को आदरांजलि। भले बातें छोटी लगें परंतु यही फर्क सरकार को इसके पूर्ववर्तियों से अलग करता है। ऐसी पहल बताती है कि सरकार को अपने मूल का स्मरण है।
जम्मू-कश्मीर में अलगाव का अलाव सुलगाए रखने वालों को इस प्रांत के लिए विकास कायार्ें की विशेष फुहार नहीं सुहाएगी। पूवार्ेत्तर में 'अष्टलक्ष्मी' की लगातार उपेक्षा करने वाले कभी नहीं चाहेंगे कि उनके सफर और इस पहले डग में नापी गई दूरी की तुलनात्मक समीक्षा हो। बजट में उपरोक्त प्रांतों के लिए उठाए विशेष कदम बताते हैं कि सरकार को भारत की समग्रता का स्मरण है। परंतु आशाओं का हिमालय कंधे पर उठाए अच्छी स्मरणशक्ति वाली इस सरकार के लिए चुनौतियां दोतरफा हैं। शासकीय यात्रा का उपयुक्त मार्ग चयन और सामाजिक सहोदरों के दृष्टिपथ से साम्य। राष्ट्र साधना सिर्फ सरकार में रहकर नहीं होती, यह इस सरकार में बैठे लोग जानते हैं। ऐसे में सहोदर संगठनों की सामाजिक चिंताओं का हल सरकार के नीति-क्रियान्वयन में दिखलाई पड़े, इससे अच्छी क्या बात होगी।
भारतीयता का जो स्वर इस बजट में उभरा है भविष्य में उसे और पुष्ट करने के लिए काफी कुछ और किया जाना अभी बाकी है। बजट में चाहे जितने सिक्के खनकें, इस सरकार की पूंजी स्पष्टता और पारदर्शिता और देशज उद्यमिता को निष्पक्ष बढ़ावा ही है। अर्थव्यूह के समर में आम नागरिक और देशज संस्थाओं की वित्तीय चिंताओं को निकट से समझने वाले संगठनों के अनुभव और अध्ययन का लाभ शासन को मिलना ही चाहिए। ऐसे में कुछ बिंदु हैं जहां परस्पर सहमति के सेतु और सुदृढ़ करना राष्ट्रहित में फलदाई होगा। विदेशी निवेश, छोटे-मझोले उद्योगों को ऋण की उपलब्धता, विनिवेश, जीएम खेती और कामगारों का हित कुछ ऐसे मुद्दे हैं। विदेशी निवेश आमंत्रित करना अच्छा है अथवा नहीं इस पर अलग-अलग विचारपक्ष हो सकते हैं, परंतु इस निवेश ने क्या लाभ पहुंचाया इसका लेखा-जोखा देश के सामने लाना बहस से परे का विषय है। इसी तरह कंपनी जगत के बरअक्स शासकीय उपक्रमों अथवा छोटे और मझोले उद्योगों के राष्ट्रीय उत्पादन में योगदान और बदले में उन्हें मिलने वाली सुविधाओं का तुलनात्मक ब्योरा देखना और देश को बताना चाहिए।
सरकार ने इस बजट में विविध चुनौतियों में संतुलन साधते हुए एक भविष्योन्मुखी राह पकड़ी है जो कि अच्छी बात है। जरूरी बात यह है कि आगे भी जनता को तर्क से संतुष्ट करने की बजाय उसकी भावना समझने का प्रयास सरकार की ओर से होता रहे। सरकार से इतर इस देश का अपना एक संस्कार है। देश के लिए जीवन खपाने वाले लोग जब घर छोड़कर समाज का साक्षात्कार करने चले तब वे अपने साथ तकार्ें का तरकश लेकर नहीं निकले। संपूर्ण राष्ट्र के लिए हृदय में उमड़ता प्रेम और मां भारती की सेवा का संकल्प यही उनकी पूंजी थी और पाथेय भी। इस सरकार में राष्ट्रीय संस्कार के उन्ही तत्वों का दर्शन यह देश करना चाहता है।
जनाकांक्षाओं के तराजू पर तर्क का बाट भावनाओं के मुकाबले हल्का ही पड़ता है, यह बात सरकार ने बजट के दौरान ध्यान रखी है। यह अच्छी बात है, और इसे आगे भी स्मरण रखना ही चाहिए।
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