सब भूले, याद रहा तो बस देश
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सब भूले, याद रहा तो बस देश

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Jun 21, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 21 Jun 2014 15:12:27

पातकाल की वे स्याह घडि़यां भारतीय लोकतंत्र में फिर कभी न आएं। बोलने पर पाबंदी, लिखने पर पाबंदी, घूमन-फिरने पर पाबंदी। ऐसे में एक शख्स ने आवाज लगाई, हम कुछ नौजवान उसके साथ हुए और कारवां बनता गया। इस कारवां को शासन की ओर से तमाम कष्ट दिए गए। परंतु उस फौलादी शख्स के पीछे हम सब राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा लेकर अडिग खड़े थे। तमाम कष्टों को झेलकर भी हम लोगों ने समझौता नहीं किया। 26 महीने जेल में गुजारे और उन का दंभ तोड़ा जो भारतीय लोकतंत्र को कुचल देना चाहते थे। इंदिरा गांधी 1977 के चुनाव में जब परास्त हुईं तो ऐसा लगा कि मानो हमने अपना मिशन पूरा कर लिया।' ये विचार हैं संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता एवं 26 माह तक मीसा में बंद रहे श्री हरिशंकर शर्मा के।
हरिशंकर शर्मा पटना के उन चुनिंदा लोगों में हैं, जिन्होंने आपातकाल के दौरान प्रमुख भूमिका निभाई। जेल के अंदर रहते हुए भी इनकी सक्रियता कम नहीं हुई। देश में जब आपातकाल की पृष्ठभूमि इंदिरा गांधी रच रही थीं तब हरिशंकर शर्मा, जयप्रकाश नारायण के साथ बैठकों में व्यस्त थे। 3 नवंबर को पटना में एक बड़ी बैठक की तैयारी थी। 2 नवंबर, 1974 को पटना के कटरा बाजार, मालसलामी के पास जेपी की जीप रोकी गयी। आजाद भारत में प्रखर स्वतंत्रता सेनानी एवं अंग्रेजों को अपनी कार्यशैली से चक्कर में डाल देने वाले जयप्रकाश नारायण को भी पहली बार शासन के हाथों प्रताडि़त होना पड़ा। उन्हें तथा हरिशंकर शर्मा को गिरफ्तार कर लिया गया। सबडिवीजन के सर्किल इंस्पेक्टर (उस समय यही पद हुआ करता था) रामलखन शर्मा ने हरिशंकर शर्मा को हाजत में बंद कर दिया और दूसरे ही दिन उन्हें फुलवारी जेल में डाल दिया गया। फुलवारी जेल में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह, दिग्विजय बाबू, रामदयाल सिंह सरीखे राजनैतिक एवं सामाजिक कार्यकर्ता बंद थे। छ: माह तक इन्हें वहीं बंदी रखा गया। छ: माह के बाद मई, 1975 में इन्हें रिहा किया गया। रिहा होते ही श्री शर्मा पुन: सक्रिय हो गए। देश में चल रहे कुचक्र को समाप्त करने के लिए जनसंघर्ष समिति बनी थी। पटना के संयोजक श्री हरिशंकर शर्मा बनाए गए। इसके लिए विधिवत चुनाव हुआ था जिसमें हरिशंकर शर्मा संयोजक चुने गए। घर में संघानुकूल माहौल था। पटना सिटी के गुरहट्टा, मीतन घाट स्थित इनका मकान आंदोलनकारियों का एक प्रमुख केंद्र था। घर में माता-पिता एवं सात भाई थे। पिताजी संघ के पुराने कार्यकर्ता थे। माता जी धार्मिक एवं सबको साथ लेकर चलने वाली महिला थीं। घर में गुप्त बैठकों एवं अनेक लोगों के नियमित खाने पर भी उन्होंने कभी कोई आपत्ति नहीं की। हरिशंकर जी एवं उनके छोटे भाई डॉ़ प्रेमशंकर शर्मा आंदोलन में कूद पड़े थे। जेल से छूटने के बाद पुन: गतिविधियां तेज हो गईं। पुलिस को इसकी भनक लग गईं। हरिशंकर जी के यहां रोज छापा पड़ने लगा। परंतु ये किसी-न-किसी बहाने वहां से फरार हो जाते। वीरेश्वर बाबू सरीखे पुलिस पदाधिकारी भी आंदोलनकारियों की गुप्त रूप से मदद करते थे। परंतु यह क्रम आखिर कब तक चलता? 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा हुई। सारे प्रमुख कार्यकर्ता या तो नजरबंद कर दिए गए या फिर जेल में डाल दिए गए। देश की तरुणाई इस काले समय को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थी। उसने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। हरिशंकर जी ऐसे कुछ लोगों के अगुआ बने। न सिर्फ बैठकें बल्कि उससे आगे बढ़कर कार्रवाई भी करते थे। लेकिन आखिरकार 10 जुलाई को इन्हें पर्चा बांटते हुए पटना के अशोक राजपथ स्थित इंजीनियरिंग कॉलेज मोड़ पर गिरफ्तार कर लिया गया। चार जीपों में आई पुलिस ने इन्हें घेर कर गिरफ्तार किया। गिरफ्तार करके पुलिस ने थाने में इनसे काफी ज्यादती की। रात भर इन्हें पीरबहोर में रखा गया। फिर उसी फुलवारी जेल में डाल दिया गया।
जेल के दिनों को याद करते हुए हरिशंकर शर्मा आज भी रोमांचित हो उठते हैं। उन्होंने बताया कि जेल में शासन ने उन्हें परेशान करने की नीयत से डाला था। परंतु ये लोग जेल को ही अपना घर मानकर मस्ती में रहने लगे। जेल के अंदर प्रख्यात समाजवादी नेता सुरेंद्र मोहन, चौधरी बह्मप्रकाश, डॉ़ हेडगेवार के प्रिय माननीय बबुआजी सरीखे लोग कैद थे। वहां नियमित रूप से शाखा लगती थी एवं बैठकें होती थीं। शाम को पठन-पाठन और गप्पबाजी का दौर शुरू होता। जेल के अंदर सब एक जैसे थे। बबुआजी जैसे साधन संपन्न व्यक्ति को भी आठ फीट की टीन के नीचे छत की सोना पड़ता था। परंतु उन्हें इस बात का कभी कोई मलाल नहीं था। स्वयंसेवकों द्वारा रचित छात्र संघर्ष गीत पर समाजवादी कार्यकर्ता आपत्ति करते थे, परंतु मस्ती में आने पर वे भी इस गीत को खूब गाते थे। मोकामा के चंद्रशेखर बाबू नियमित दुर्गा सप्तशती का पाठ करते थे, तो कोई रोज हनुमान चालिसा पढ़ता था। सबकी अपनी-अपनी दिनचर्या थी लेकिन फिर भी सब एक थे। अंदर सब में भाईचारा था। बाहर का कोई गम, फिक्र नहीं। सपना था तो सिर्फ यही कि तानाशाह इंदिरा गांधी सत्ता से अपदस्थ हो। परंतु पुलिस ज्यादती एवं जेल की कड़ी दिनचर्या ने हरिशंकर जी का स्वास्थ्य बिगाड़ दिया। बीस महीने बाद मार्च 1977 में जब हरिशंकर शर्मा जेल से छूटे तो बाहर आने पर पता चला कि उन्हें मधुमेह हो गया है। इस रोग से आज भी वे पीडि़त हैं।
हरिशंकर शर्मा की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी आंदोलनकारियों की रही है। आपके पूज्य पिताजी स्व़ नरोत्तम शर्मा पटना बम केस के अभियुक्त थे। 1917-18 में अंग्रेजों के विरुद्घ यह षड्यंत्र रचा गया था। आपके चाचाजी स्व़ सत्यनारायण मिश्र प्रखर स्वतंत्रता सेनानी थे। जबकि मामाजी स्व़ शंकर पाठक वाराणसी में एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जाने जाते थे। आपातकाल के समय सभी भाई साथ रहते थे।
मई, 1975 में जब थोड़े समय के लिए हरिशंकर शर्मा जेल से बाहर आए तो उस समय उनका विवाह वृंदावन के राधा रमण मंदिर के आचार्य परिवार की कन्या सुनीता शर्मा से हुआ। पत्नी के साथ एक माह भी ठीक से हरिशंकर शर्मा नहीं रहे थे कि पुन: बीस माह के लिए जेल में डाल दिए गए। छोटे भाई डॉ. प्रेमशंकर शर्मा दरभंगा जेल में डाल दिए गए थे। ऐसी परिस्थिति में भी इनके अभिभावकों ने न क्षमा याचना की और न घर में बैठकों के लिए कभी मना किया।
हरिशंकर शर्मा कई सामाजिक संगठनों से जुड़े हैं। संघ के नियमित स्वयंसेवक हैं। कुछ दिनों तक प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ उपाध्यक्ष, बाद में कार्यालय के प्रभारी भी रहे। इनके परिवार में दो बेटे, अभिषेक एवं अभिजीत तथा दो बेटियां- अनुमेहा एवं प्रिया हैं। हरिशंकर शर्मा जी को इस बात का मलाल जरूर रहता है कि वैसे सैकड़ों लोग जो आंदोलन के कारण बर्बाद हो गए उन्हें देखने वाला अब कोई नहीं है।
वरिष्ठ पत्रकार रघुवीर राय दिवंगत हो गए। विष्णुदेव बाबू का मकान पटना (बांकीपुर) में आंदोलनकारियों का एक प्रमुख केंद्र था। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता यहां ठहरते एवं बैठक करते थे। परंतु आज की पीढ़ी इनका नाम तक नहीं जानती। गंगा बाबू को लोग सिर्फ भाजपा के वरिष्ठ कार्यकर्ता के रूप में जानते हैं। परंतु उनका घर भी आंदोलन के समय एक प्रमुख मिलन केंद्र एवं आंदोलनकारियों का आश्रय था। सुशील मोदी एवं नंदकिशोर यादव के संघर्ष को कम नहीं आंका जा सकता। परंतु ऐसे लोग जो गुमनाम हैं उन लोगों के संघर्ष को भी सामने लाने की आवश्यकता है ताकि आज की पीढ़ी को भी पता चले कि भारतीय लोकतंत्र की रक्षा के लिए उस समय के युवाओं ने कैसे-कैसे कार्य किए थे।     संजीव कुमार

 

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