|
– डा. सतीश चन्द्र मित्तल-
30 जनवरी, 2014 को महात्मा गांधी की पुण्य तिथि पर बिहार की एक सभा में कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने देशव्यापी चुनाव को दो प्रमुख विचारधाराओं की लड़ाई बताया। स्वयं को गांधीवादी विचारधारा का प्रतिनिधि बताया तथा दूसरी तरफ हिन्दुत्व से प्रेरित संगठनों को साम्प्रदायिक कह कर संबोधित किया। चुनावी नौका की वैतरणी पार करने के लिए कांग्रेस उपाध्यक्ष ने और दो कदम आगे बढ़ कर एक को गांधीवादी कहा तथा दूसरे को गोडसेवादी। इसके साथ ही चुनावी भाषणों में अपने को अमीरी-गरीबी का भेद मिटाने वाली, प्रजातंत्र की रक्षक सरकार बतलाया तथा दूसरों को हिन्दुओं को मुसलमानों से लड़ाने वाली सरकार कहा। विचारणीय गंभीर प्रश्न है कि इस प्रकार के बेहूदे, बेतुके एवं भ्रामक शब्दजाल से क्या हम समाज का भला कर सकेंगे? चुनावी महाभारत जीत सकेंगे?
गांधी चिंतन का उपहास
लगता है कि स्वतंत्रता के बाद के कांग्रेसी नेताओं ने गांधी दर्शन, गांधी वाङ्गमय, उनका विस्तृत पत्र व्यवहार और हरिजन तथा यंग इंडिया में उनके लेखों को जरा भी नहीं पढ़ा है। वस्तुत: गांधी चिंतन का उपहास तो 1944 में ही जब वे जेल से छूट कर आये थे, तभी से प्रारंभ हो गया था। प्रसिद्ध कांग्रेसी इतिहासकार डा. पट्टाभि सीतारमैया ने गांधी के शब्दों का उद्धरण देते हुए लिखा, अब तो मैं महत्वहीन हो गया हूं, मेरी अब कोई सुनता ही नहीं। महात्मा गांधी ने पुन: दोहराया मैं अपने को सर्वथा अकेला पाता हूं (देखें कलक्टेड वर्क्स, खण्ड 38) कभी वे कहते हैं मैं तो खोखला कारतूस रह गया हूं। 2 अक्तूबर 1947 को अपने जन्मदिन पर प्रार्थना सभा में अपनी पीड़ा व्यक्त की। 3 जून, 1947 को कांग्रेसी नेताओं ने लॉर्ड माउन्टबेटन की अध्यक्षता में भारत विभाजन जैसा जघन्य अपराध किया। महात्मा गांधी को इसकी खबर तक नहीं दी गई। जब भारत के भावी संविधान की बात आई तो पुन: उनकी उपेक्षा की गई। इस संदर्भ में गांधी-नेहरू पत्र-व्यवहार पर्याप्त प्रकाश डालता है। महात्मा गांधी ने एक पत्र में लिखा, जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं है। वे वास्तव में यह नहीं जानते कि धर्म क्या है? भारतीय स्वतंत्रता के बाद गांधी ने उपयोगिता व अनुभव के आधार पर कांग्रेस संगठन को भंग कर लोक सेवक संघ की स्थापना की घोषणा की और कांग्रेसी नेताओं को चेतावनी देते हुए कहा, यदि वे सत्ता की भद्दी उठापटक में लग गये तो एक दिन आयेगा कि उसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा। पर राजसत्ता के नशे में चूर कोई नेता उनकी बात सुनने को तैयार न था। महात्मा गांधी ने अपनी हत्या से तीन दिन पहले अर्थात 27 जनवरी, 1948 को पुन: चेतावनी देते हुए लिखा, लोकतंत्र की कठिन चढ़ाई के दौरान कांग्रेस ने अपरिहार्य रूप से ऐसे बेकार के गड्ढे कर दिये हैं, जिनसे भ्रष्टाचार पनपता है और ऐसी संस्थाएं खड़ी हो गईं हैं जो कहने को ही लोकप्रिय तथा लोकतांत्रिक हैं, प्रश्न है कि इस अपकारक तथा बेतुकी बात से किस तरह मुक्त हुआ जाए? पंडित नेहरू ने महात्मा गांधी के हिन्द स्वराज को पढ़ा अवश्य था, परन्तु पूर्णत: नकार दिया। पं. नेहरू ने महात्मा गांधी का चोला अवश्य पहने रखा, परन्तु उनके विचारों को स्वीकार नहीं किया। महात्मा गांधी ने कभी भी व्यक्तिवाद, परिवारवाद, समाजवाद या उपयोगितावाद को महत्व नहीं दिया, जबकि पं. नेहरू ने कांग्रेस का आगामी लक्ष्य समाजवादी समाज की स्थापना घोषित किया। इंदिरा गांधी ने भारत की सामाजिक परम्परा के विपरीत, अनैतिक तथा गैर कानूनी रूप से गांधी का नाम अपने साथ अवश्य जोड़ लिया, परन्तु महात्मा गांधी के विचारों का घोर उपहास किया। उन्होंने अपने प्रधानमंत्री काल में ह्यइन्दिरा इज इंडियाह्ण कहलाना पसंद किया। सत्ता हाथ से निकलते देख, महात्मा गांधी के विचारों के कट्टर विरोधी भारतीय कम्युनिस्टों से हाथ मिलाया। परन्तु राजसत्ता को बनाये रखने के लिए आपातकाल के दिनों में गांधीवादियों को अत्यधिक कष्ट दिये, गांधीवादी कांग्रेसी जेलों में सीखचों के पीछे डाल दिये गये। गांधी प्रतिष्ठान बंद कर दिये गए। राजघाट के सामने स्थित गांधी संग्रहालय पर कड़ी निगाह रखी गई, गांधी साहित्य तथा गांधी चित्र हटाये गये। अनेक खादी भण्डार बन्द हो गए। रही सही कसर सोनिया कांग्रेस ने पूरी कर दी। राजसत्ता के मद में कांग्रेसी नेता अपना ही इतिहास भूल गये। एक छोटी सी बच्ची के प्रश्न पर कि इतिहास में पहली बार गांधी जी को राष्ट्रपिता किसने कहा? देश के बड़े-बड़े नेता चकरा गये। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री ने विश्वासपूर्वक कांग्रेस का जन्मदाता महात्मा गांधी को बताया। एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री ने कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ. हयूम को स्वामी विवेकानन्द के समकक्ष बता कर अपने अधूरे ज्ञान का परिचय दिया। मनमोहन सिंह की सरकार ने प्रसिद्ध मुस्लिम लेखकों सलमान रशदी तथा तसलीमा नसरीन के भारत आने पर प्रतिबंध लगाये लेकिन देश विदेश में प्रचुर मात्रा में महात्मा गांधी के अपमाजनक कार्टूनों तथा उनके विरुद्ध कूड़ा कचरा साहित्य की जरा भी खबर नहीं ली। गांधी जी के बारे में अब कांग्रेसी नेताओं की जानकारी 2 अक्तूबर तथा 30 जनवरी को गांधी समाधि पर पुष्प चढ़ाने तथा फोटो खिंचवाने तक सीमित रह गई है।
हिन्दू चिंतन साम्प्रदायिक नहीं
कांग्रेस नेताओं द्वारा अपनी विरोधी विचारधारा को गोडसे या किसी प्रकार की हिंसा या साम्प्रदायिकता से जोड़ना, उनकी अनैतिक तथा ओछी राजनीति का घोतक है, जो देश के नेताओं को शोभा नहीं देता। इस देश में कभी गोडसे या हिंसात्मक राजनीति नहीं पनप सकती है और न ही भारत में हिन्दू साम्प्रदायिक हो सकता है। वास्तव में साम्प्रदायिकता या साम्प्रदायिकवाद नाम का कोई शब्द किसी अंग्रेजी शब्द कोष में है ही नहीं। यह शब्द अंग्रेजी विरासत के रूप में अपना लिया गया है। महात्मा गांधी अपने को हिन्दू कहलाने में गौरवान्वित महसूस करते थे तथा विश्व में हिन्दू धर्म तथा संस्कृति को सभी धर्मों की जननी मानते थे। देश-विदेश के अनेक विद्वानों चाहे महात्मा गांधी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, प्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार हों या फ्रेंच विद्वान रोमां रोला, प्रसिद्ध यूरोपीय विद्वान आरसी जैकनेर या विश्व प्रसिद्ध लेखिका कैरी ब्राउन हों, कोई भी हिन्दू को साम्प्रदायिक मानता ही नहीं। इतना ही नहीं 11 दिसम्बर, 1995 को सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव में भ्रष्ट तरीके के एक मामले में ऐतिहासिक निर्णय दिया कि हिन्दुत्व का
धार्मिक विश्वास के प्रति असहिष्णु या
कथित साम्प्रदायिकता से कोई संबंध नहीं है। मोटे रूप से हिन्दुत्व एक ऐसी विचारधारा है जो किसी के प्रति असहिष्णु का भाव नहीं रखती है, बल्कि यह जीवन का एक मार्ग है। अत: कांग्रेस नेताओं का इस संदर्भ में कथन सारहीन तथा आधारहीन है।
हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रश्न
महात्मा गांधी की आड़ में न केवल कांग्रेसी नेता, बल्कि समाजवादी तथा बसपा के नेता भी अपने को हिन्दू-मुस्लिम एकता का अगुआ मुसलमानों का हितेषी सिद्ध करने की प्रतियोगिता में लगे हैं। गांधी के ह्यदी कम्युनल यूनिटीह्ण विचार संग्रह में इस संदर्भ में गहन चिन्ता मिलता है। महात्मा गांधी एक पक्के समर्पित हिन्दू थे, इसी कारण शेष धर्मों, सम्प्रदायों, पंथों के प्रति अत्यधिक उदार थे। सहनशील तथा सहिष्णु थे। उन्होंने अपने एक पत्र में भारत में हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को समस्याओं की समस्या कहा था। (देखें, एमए अन्सारी को पत्र 19 फरवरी, 1930) कभी-कभी वे क्षुब्ध होकर कहते थे, दोनों को आपस में अपना सिर फोड़ने दो, मैं क्या करूं? 1952 के प्रथम चुनाव के पश्चात देश में कांग्रेसी प्रचार के तेजी से घटने पर उन्होंने मुस्लिम तुष्टीकरण को अपने चुनाव वोट का सहारा बनाया। पं. नेहरू ने हिन्दू विरोध कर, इन्दिरा गांधी ने संविधान में सेकुलर शब्द डालकर तथा उसका दुरुपयोग कर, राजीव गांधी ने शाहबानो बेगम प्रकरण पर सर्वोच्च न्यायालय की न मानकर, मनमाने कानून बनाकर तथा इन सभी के पार सोनिया गांधी के काल में सरकार के बजट पर 15 प्रतिशत मुसलमानों का पहला हक बताकर हिन्दू मुसलमानों को अलग रखने में कोई कसर न रखी। मुस्लिम तुष्टीकरण के अन्तर्गत मुस्लिम साम्प्रदायिकता, आरक्षण, अल्पसंख्यकवाद, मुस्लिम आतंकवाद मुस्लिम घुसपैठ, मुसलमानों के लिए अलग सिविल कोड, विश्व के किसी भी मुस्लिम देश के विपरीत हज के यात्रियों को सरकारी धन से सहयोग आदि मार्ग अपनाये, गंभीरता से देखें तो कांग्रेस ने हिन्दू मुस्लिम में सबसे बड़ा अवरोध किया। न ही उनके सामाजिक, आर्थिक जीवन को उन्नत होने दिया और न ही उनको भारत की मुख्य राष्ट्रीय धारा से जोड़ने दिया। चुनाव जीतने के लिए मौलवियों तथा इमामों से अपने पक्ष में फतवे जरूर लिये, पर न ही मुस्लिम महिलाओं के जीवन को उन्नत होने दिया और न मुस्लिम युवकों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।
गरीब-अमीर की बढ़ती खाई
महात्मा गांधी ने स्वयं गरीबी के जीवन का मार्ग अपनाया तथा भारत का स्वर्ग ग्रामों तथा ग्रामीण झोपडि़यों में देखा। इसके लिए वे सदैव नेहरू की आलोचना का विषय बने रहे। आर्थिक क्षेत्र में उन्होंने आर्थिक उत्पादन के भौतिक साधनों को कुछ व्यक्तियों तक सीमित करने की आलोचना की। उद्योगो के केन्द्रीयकरण का विरोध किया तथा कुटीर उद्योगों के प्रोत्साहन पर बल दिया। उन्होंने श्रम तथा नैतिकता पर आधारित ग्राम राज्य का विचार दिया। स्वदेशी वस्तुओं पर बल दिया। वे भारत में ग्रामों तथा किसानों की भागीदारी चाहते थे।
आखिर किस आधार पर कांग्रेस अपने को गांधीवादी विचारकों का पोषक तथा गरीबों का मसीहा बतलाना चाहती है। यदि उनके विचार पर चलते तो आज भारत विश्व के गरीब से गरीब देशों में न होता, न किसान प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में आत्महत्या करते और न ही घोटालों, भ्रष्टाचार, कालेधन आदि में भारत दुनिया में अग्रिम देशों में होकर लज्जाजनक स्थिति में होता। गरीबी रेखा के झूठे आंकड़े न दिये जाते, गरीब अमीर की खाई न बढ़ती।
प्रजातंत्र एक ढोंग
विचारणीय प्रश्न है कि क्या कोई वर्तमान प्रजातंत्र के स्वरूप को देखकर स्वाभिमान के साथ रह सकेगा? क्या कांग्रेस शासन में प्रजातंत्र की स्वस्थ परम्पराओं का विकास हुआ या विनाश? क्या 15वीं संसद में हुए निम्न स्तर के हंगामे को कोई भूल सकेगा? क्या देश वंशवाद के आधार पर चलेगा या प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा होगी? क्या वर्तमान कांग्रेसी नेतृत्व देश को अंधेरे गढ्ढे की ओर नहीं धकेल रहा है? आखिर कब तक देश का नेतृत्व भटकाव, ठहराव तथा विखराव की राजनीतिक नीति अपनाता रहेगा? जरूरत है कि देश के हिन्दू मुस्लिम नागरिक जागें, चेतें और भारत का भविष्य उज्ज्वल, सबल-समर्थ बनायें। व्यक्ति, परिवार, सम्प्रदाय तथा पार्टी से ऊपर उठकर राष्ट्र हित को सर्वोपरि समझें। और तभी भारत विश्व में स्वस्थ शक्तिशाली प्रजातांत्रिक देश बनेगा। *
टिप्पणियाँ