आवरण कथा से संबंधित
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भाजपा नेता नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह पिछले दिनों दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत से मिलने संघ मुख्यालय केशव कुंज गए थे। संघ के सरकार्यवाह और सह सरकार्यवाह भी उस बैठक में उपस्थित थे। संघ में इस तरह का मिलना और बात करना बहुत आम चीज है, लेकिन इसकी भी खबर बना दी गई। संघ एक बड़े परिवार की तरह काम करता है, जिसके सभी घटकों के अपने अपने काम होते हैं, लेकिन कुछ कुछ समय बाद आपस में मिलकर वे एक दूसरे के अनुभव बांटते हैं और कई मुद्दों पर वार्ता करते हैं जिससे नई ऊर्जा प्राप्त होती है।
संघ की प्रेरणा से देश भर में सैकड़ों सकारात्मक कार्य चल रहे हैं। इन सब कामों का मूल स्रोत संघ का दर्शन ही है। संघ की कार्यप्रणाली के अनुसार, सरसंघचालक ऐसे सब कामों के लिए एक मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक होता है। इसका यह अर्थ नहीं कि सरसंघचालक को हर काम के बारे में हर छोटी-बड़ी चीज पता होती है। वे प्रत्येक क्षेत्र के विस्तार में नहीं जाते और न ही उनमें बेवजह दखल देते हैं। इसलिए इस बात से ज्यादा हास्यास्पद कुछ नहीं हो सकता कि 'संघ के पास कोई रिमोट कंट्रोल है'। नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह के सरसंघचालक से मिलने के फौरन बाद ही कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी परेशान हो उठे और वे तमाम चैनलों और अखबारों के सामने बयान देने लगे। सिंघवी खुद एक सीडी कांड को लेकर विवादित रहे हैं और यह कांड जीवन के हर क्षेत्र में नैतिक पतन को झलकाता है।
उक्त बैठक के संदर्भ में वामपंथियों की तरफ से भी बयान आए। सीताराम येचुरी ने कहा, 'उन दोनों का संघ प्रमुख से मिलना उनका आंतरिक मामला है। भाजपा संघ की राजनीतिक इकाई है इसलिए वे क्यों मिलते हैं और किसलिए मिलते हैं यह उनका अपना विषय है।' उनके अनुसार भाजपा संघ की राजनैतिक इकाई है। वास्तविकता में ऐसा है नहीं। भाजपा में बहुत से स्वयंसेवक हैं। बाकी तमाम दूसरे दलों ने संघ से अस्पृश्यता अपनाते हुए अपने यहां स्वयंसेवकों का प्रवेश प्रतिबंधित कर रखा है। कल अगर वामपंथी दल स्वयंसेवकों को अपना सदस्य बनाने का फैसला कर लें तब मामला अलग हो सकता है। इसका एक नतीजा तो यह निकलेगा कि वामपंथी दलों का राष्ट्रीयकरण हो जाएगा। संघ को कोई राजनैतिक मोर्चा नहीं चाहिए। संघ की दृष्टि में 'राष्ट्र पहले' है। भारत एक चिरंतन राष्ट्र है, यह राष्ट्रीयताओं या संस्कृतियों का समुच्चय नहीं है। यहां जीवन के सांझे मूल्य हैं और इसलिए राष्ट्र का लक्ष्य एक ही है। यानी राष्ट्र जीवन के हर क्षेत्र में सबके हित के उच्चतम स्तर की प्राप्ति ही मुख्य उद्देश्य है और इसलिए हमें सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक तंत्रों का सर्वोत्तम स्वरूप चाहिए। जो भी भारत को राष्ट्र के रूप में माने वह संघ के विचार से जुड़ा हुआ ही है। इन मूल्यों के आधार पर राष्ट्रीय पुनर्निमाण का काम सिर्फ राजनीतिक ताकत पाने के लिए करना, यह संघ की भूमिका नहीं हो सकती। संघ की प्राथमिकता है कि राष्ट्रीय सोच वाले लोग राजनैतिक तंत्र में होने चाहिए।
अभिषेक सिंघवी अगर इसे सोनिया गांधी के कांग्रेस के रिमोट कंट्रोल जैसा देखते हैं तो यह बिल्कुल फिजूल बात है। सोनिया गांधी का रिमोट कंट्रोल बिल्कुल संविधानेतर था इसलिए लोकतंत्र के लिए घातक था। इस शक्ति केंद्र का एक सूत्रीय एजेंडा था शक्ति को माइनो, गांधी और वाड्रा परिवार में संचित कर लेना और मनमोहन सिंह, अभिषेक सिंघवी और दिग्विजय सिंह सहित सभी कांग्रेसियों को इस परिवार का अनुयायी बनाना। इस तरह सोनिया का रिमोट कंट्रोल राष्ट्रीय स्वाभिमान को रौंद रहा था और एक औपनिवेशिक मनोवृत्ति रच रहा था।
संघ इस तरह के 'जी हुजुरी' करने वाले लोग नहीं बनाना चाहता। यह चंद्रगुप्त, विक्रमादित्य, राजा भोज, राजा कृष्णदेवराय और छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे शासन की अपेक्षा करता है। मोदी के नाम पर सहमति व्यक्त करते वक्त संभवत: संघ ने इससे इतर कुछ और नहीं सोचा होगा। इसमें संदेह नहीं कि उनके काम में जिम्मेदारी का भाव होना जरूरी है। चुनाव के बाद उनकी पहली जिम्मेदारी है संसद। जिन उम्मीदों से भरे लोगों ने उन्हें मत दिए हैं उनके प्रति दूसरी और राष्ट्र के प्रति तीसरी जिम्मेदारी है। संघ इस राष्ट्र को प्रतिबिंबित करता है। संघ के प्रति जिम्मेदारी का अर्थ किसी व्यक्ति के प्रति या किसी संगठन के प्रति जिम्मेदार होना नहीं है। किसी व्यक्ति का अपना और राष्ट्रीय चरित्र दोनों उल्लेखनीय होने चाहिए। संघ व्यवहार में इसी राष्ट्रीय सोच को मोटे तौर पर हिंदू जीवन पद्धति कहा गया है।
आने वाले दिनों में हतबल कांग्रेसियों, पर्यावरणविदों और विदेशी एजेंसियों द्वारा प्रायोजित सेकुलरों की ओर से संघ को घेरने की कोशिशें की जाएंगी। विदेशी प्रभाव वाले मीडिया घराने भी उनके साथ जुड़ जाएंगे और बेबुनियाद खबरें दिखाएंगे। हमें इन सब अवरोधों को परास्त करते हुए आगे बढ़ना है। भविष्य हमारा है और इसको गढ़ने वाले भी हम ही हैं।
-रमेश पतंगे
'गांधी ब्रांड' पतन की ओर अग्रसर
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजनीति को प्रभावित करने वाली कांग्रेस की 16वीं लोकसभा के चुनावों में सबसे बदतर हार हुई है। यह भारत के गांधी कुनबे के पराभव की शुरुआत भी है। यह केवल यही प्रतिबिंबित नहीं करता कि गांधी परिवार की विश्वसनीयता पर ग्रहण लग गया है बल्कि यह कांग्रेस के पतन को भी प्रमाणित करता है।
वर्ष 2009 के बाद कांग्रेसनीत यूपीए-2 को घटते जाने के सिद्धान्त के नतीजे का तगड़ा झटका लगा है। घोटालों की एक लम्बी सूची है- 2जी, कोलगेट, राष्ट्रमंडल खेल, अगस्ता वेस्टलैण्ड घोटाला और राबर्ट वाड्रा के भू सौदों पर खेमका का खुलासा आदि- जिसने कांग्रेस के ताबूत में आखिरी कील का काम किया। इस समय मतदाताओं के द्वारा दिए गए जनादेश ने देश के ह्यप्रथम परिवारह्ण को यह महसूस करवा दिया है कि गांधी ब्रांड अब पतन की ओर है और पार्टी अब लंबे समय तक मतदाता को घोटालों और भ्रष्टाचार की नींव पर खड़े भारत निर्माण के नारे से बेवकूफ नहीं बना सकती।
चुनाव के समय कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का केवल एक एजेण्डा था और वह था प्रत्येक दिन मोदी के लिए अपशब्द बोलना और अनर्गल प्रलाप करना। राहुल गांधी, जिनके नेतृत्व में जनसंपर्क कम्पनियों ने 500 करोड़ रुपए खर्च किए जिसमें ह्यहर हाथ शक्ति, हर हाथ तरक्कीह्ण, ह्यमैं नहीं हमह्ण- के ये नारे लोगों को जोड़ने में असफल रहे।
राहुल गांधी की रैलियों से लोगों का नदारद रहना उसी का परिणाम था। यूपीए ने अपने शासनकाल में आम आदमी को उपेक्षित कर दिया था। यह जानते हुए भी राहुल मोदी विरोध में लगे रहे और उन्होंने मोदी पर प्रहार करने का कोई अवसर नहीं छोड़ा। इसे विडंबना नहीं तो क्या कहें कि जिन राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी का पूरा चुनाव अभियान चल रहा था उन्हें अपने परिवार के सम्मान को बचाने के लिए आखिर अमेठी में प्रचार के लिए अपनी बहन प्रियंका को बुलाना पड़ा।
एक सोची समझी नीति के तहत प्रियंका की तुलना उनकी दादी इन्दिरा गांधी से की गई। जैसी कि अपेक्षा थी, मीडिया को भी उनमें समानता दिखाई देने लगी कि किस-किस तरह वह दादी के जैसी लगती हैं। उनका पहनावा, उनकी मुस्कान और भाषण देने की तुलना इन्दिरा गांधी से की जाने लगी। प्रियंका का व्यक्तित्व भले ही कांग्रेसियों को करिश्माई लगता है लेकिन चुनाव अभियान में जैसी पैनी नजर की जरूरत थी उसका उनमें अभाव दिखा। अपने भाई राहुल गांधी की तरह उनके चुनाव अभियान में कुछ ठोस नहीं दिखा।
प्रियंका ने चुनाव अभियान में लोगों को ये जरूर याद दिलाया कि उनके परिवार व अमेठी के लोगों का भावनात्मक संबंध है और यदि वे सत्ता में आए तो तीन दशकों से भी ज्यादा तक प्रतिनिधित्व करने के बाद अब अमेठी को देश का सुन्दर शहर बनाएंगे।
चुनाव अभियान के बीच में जब उनके पति राबर्ट वाड्रा के भूमि खरीद सौदों और व्यवसाय पर प्रश्न खड़े हुए तो उन्होंने भैया राहुल की सीट को बचाने के लिए पूरे उत्साह के साथ भाजपा पर आक्रमण किया। मोदी पर राजनीतिक आक्रमण करते हुए एक कदम आगे बढ़कर प्रियंका ने ह्यनीच राजनीतिह्ण तक का सन्दर्भ दे दिया। ऐसे समाज में जहां मतदाता जाति के प्रति सचेत रहता है, प्रियंका को 'नीच' जैसे शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए था। उनकी मां सोनिया भी मोदी को 'मौत का सौदागर' कह चुकी थीं। गुजरात की जनता ने उनको चुनाव-दर-चुनाव मोदी को विजयी बनाकर करारा जवाब दे दिया था। लोकतंत्र में वंश परंपरा या सल्तनत एक वास्तविकता है, और इन सल्तनतों को मतदाता के जनादेश के सामने नतमस्तक होने के लिए अवश्य तैयार रहना चाहिए। बदलते हुए समय में नई पीढ़ी ने अपेक्षित परिवर्तन हेतु मताधिकार पर भी नजर रखी और गांधी कुनबे ने उसे पूरी तरह नजरअंदाज किया।
भारतीय इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जहां शक्तिशाली सल्तनतों ने शताब्दियों तक शासन किया और धीरे-धीरे इनका पतन होने के साथ अन्य लोगों को अवसर मिला। चुनाव अब पूर्ण हो चुके हैं, इतिहास ने स्वयं को दोहराया है। परिवर्तन के इस समय को सभी को विनम्रता से स्वीकारना चाहिए। *
-मनोज मिश्रा
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