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कुछ लोग यहां बिन पांवों के,
बिन पगडंडी के चलते हैं।
पीली आंखों के चश्मे भी
नीली आंखों से मिलते हैं।
कोरे कागज की दुनिया में
काले शब्दों के क्या माने?
फाइल के कवर बदलते ही
निर्णय हर रोज बदलते हैं।
शहतीरों पर नजरें रहतीं,
जीवन के रंग उछलते हैं,
ये राजनीति के घोड़े हैं,
चाबुक खा-खा कर चलते हैं।
नूतन का कोई मूल्य नहीं,
सठियायी बुद्धि के आगे,
असमय के बिम्ब उभरते हैं
सहजीवी सपने ढलते हैं।
निर्धारित मार्ग बने रहते
बढ़ती जाती हैं, सीमाएं,
गिर-गिर ही लोग संभलते हैं,
जलते हैं या फिर गलते हैं।
बचपन के बखिए खुल जाते,
पचपन के तार निकलते हैं,
मिट्टी की गंध करे भी क्या,
बंजर में पौधे फलते हैं?
डॉ. तारादत्त निर्विरोध
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