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मनुस्मृति के सूत्रों का विवेचन

by
Mar 25, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 25 Mar 2014 13:23:29

.सनातन भारतीय परम्परा में मनुस्मृति को प्राचीनतम स्मृति एवं प्रमाणभूत शास्त्र के ेरूप में म#ान्यता प्राप्त है। परम्परानुसार यह स्मृति मानवजाति के प्रथम प्रजापति स्वायंभुव मनु द्वारा रचित है। ब्रह्मा के एक कल्प में 14 मनु पृथ्वी पर शासन करते हैं और वर्तमान में सातवें मनु वैवस्वत का काल चल रहा है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-रूपी चार पुरुषार्थ, देवऋण, ऋषिकेश, पितृऋण-रूपी तीन आवश्यक कर्तव्य, सोलह संस्कार, पंच महायज्ञ, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास रूपी चार आश्रम, और ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शुद्र-इनका चातुर्वर्ण्य संगठन-यही संक्षेप में मनु के धर्म हैं। माता-पिता, पिता-पुत्र, भाई-बहन, गुरु-शिष्य, राजा-प्रजा, मित्र-शत्रु, भाई-भाई, पति-पत्नी, ब्राह्मण-क्षत्रिय, वैश्य-शूद्र, अन्त्यज, ब्रह्मचारी-गृहस्थ-वानप्रथी-संन्यासी सभी के वेदोक्त धर्म का निरुपम इसमें प्राप्त होता है। इसलिए दीर्घ काल तक आस्तिक हिन्दुओं के कार्य-व्यवहार का आधार मनुस्मृति रही है। इसी कारण इसका प्रभाव न्याय-प्रणाली पर भी पड़ा।
इस ग्रन्थ मनुस्मृति पर आधारित है। यह ऐतिहासिक सत्य है जब-जब भारत पर सांस्कृतिक आक्रमण हुए हैं तब-तब सनातन संस्कृति ने अपने धर्ममूलक सिद्धान्तों के बल पर इन प्रहारों के प्रभाव को आत्मसात करते हुए उन्हें अपनी जीवनधारा में समाहित कर लिया। रूढ़ होती परम्पराओं और मान्यताओं को पुनर्व्याख्या द्वारा धर्म-साहित्य के माध्यम से समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। वर्तमान युग भी सांस्कृतिक संक्रमण का है, जिसमें हमारी सांस्कृतिक विरासत की उपेक्षा की जा रही है जो राष्ट्र-रूपी अवधारणा के लिए विनाशकारी है। इस ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य मनुस्मृति में वर्णित विधि-विधानों के आलोक में संशोधन-परिवर्द्धन के साथ-साथ वैभवसंपन्न प्राचीन भारतीय व्यवस्थाओं का युगानुरूप पुनर्निर्माण करना है।
इस ग्रन्थ को सात अध्याय में समेकित कर इस विषय को पूर्णता प्रदान करने का प्रयत्न किया गया। वस्तुत: यह ग्रन्थ मनु वचनों के संकलित अभिधानों पर अपनी तर्क संगत व्याख्या है साथ ही मनु के वचनों के आलोक में सांस्कृतिक प्रतिमानों की सुरक्षा के साथ-साथ समय एवं समाज की मांग के अनुरूप प्रगति एवं समृद्धि हेतु प्रचलित अव्यवस्थित भौतिकवादी व्यवस्थाओं और नैतिक विश्रृंखलन से प्रादुर्भूत हुई समस्याओं का निराकरण साथ ही वैचारिक वैविध के वर्तमान समय में उन वैदिक परम्पराओं व मान्यताओं के सूक्ष्म विश्लेषण का प्रयास है। जिसकी समसामायिक परिवेश में महती आवश्यकता है। इसके अन्यत्र विशेषकर उन विवादित विषयों को जैसे-नारी विरोधी वचन, शूद्र विरोधी और कठोर दण्ड विधान और उसके साथ ही वर्तमान विधिक व्यवस्थाओं के दोषों के निराकरण की विवेचना का प्रयास किया गया है।
वर्तमान समय में भारतीय विधि तथा न्याय-प्रणाली के अत्यधिक जटिल, व्ययसाध्य तथा विलम्बशील होने के कारण अनेक बार यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या कोई ऐसी प्रणाली या प्रक्रिया हो सकती है जो जन साधारण को समुचित तथा सरल रूप से विधि का ज्ञान करा सके तथा शीघ्र एवं स्वल्प व्यय के साथ न्याय दिला सके? इसके लिए हमें प्राचीन संविधान तथा न्याय-व्यवस्था का ज्ञान होना आवश्यक है। आज के लोकतांत्रकि युग में पारम्परिक अर्थ में राजा नहीं रहे। उनका स्थान शासक वर्ग ने ले लिया। एक से अधिक व्यक्तियों का समूह राजा का स्थान ले चुका है।
सिद्धान्तत: राजा के अधिकार उन्हें मिल चुके हैं और राजा के कर्तव्यों का निर्वाह भी उन्हीं के जिम्मे है। अधिकारों के मामले में तो वह काफी आगे हैं, किन्तु दायित्वों के क्षेत्र में उनका कार्य चिन्ताजनक है। उन्होंने दण्ड की प्रक्रिया को पेचीदा, समय साध्य, अपराधी के प्रति नरमीवाला बना डाला है, इसलिए अपराध भी बढ़ रहे हैं।
मनुस्मृति के आधार पर प्राचीन समय में विधि-निर्माण की प्रक्रिया का बोध होता है और भारतीय न्याय व्यवस्था का व्यवहारिक रूप भी उपलब्ध होता है। मनुस्मृति का पर्यायलोचन करके उसके गुणों को समझा जा सकता है तथा वर्तमान न्याय-व्यवस्था में इसका लाभ उठाया जा सकता है। प्राचीन न्याय-व्यवस्था में राजकीय कानूनों का बारीकी से ज्ञान होना अनिवार्य नहीं था। उस समय का न्याय एक प्रकार से प्राकृतिक तथा स्वाभाविक था, वादी तथा प्रतिवादी स्वयं ही अपने पक्ष को प्रस्तुत करते थे। इससे वस्तुस्थिति का आकलन अधिक सही होता था। इस प्रक्रिया में बिचौलिये (वकील) यथासंभव नहीं रहते थे, भ्रष्टाचार की संभावना न्यूतनतम थी, मुकदमों का व्यय भी कम होता था। वादों का निर्णय बहुत कुछ स्वाभाविक था, जिसके लिए एक मानक अवधि को महत्व दिया गया है।
वर्तमान समय में कानूनों के बहुत जटिल होने, सामान्यजन की समझ से बाहर होने और बिचौलियों के मध्य में होने के कारण मुकदमों के निर्णयों में बहुत विलम्ब होता है। इससे भ्रष्टाचार की संभावना के भी वृद्धि होती है, अनेक बार तो मुकदमों में इतना समय लग जाता है कि अपने जीवन में वह न्याय को प्राप्त नहीं कर पाता है। इस प्रकार वर्तमान समय के विधि-कानूनों के अत्यधिक जटिल और पेचीदा होने से न्याय की प्रणाली के बेहद व्ययसाध्य और विलम्बशील होने के कारण सीधा-सादा व्यक्ति अपनी सत्य बात कहने के लिए न्यायालय में जाने का साहस नहीं जुटा पाता। न्यायालय की युग समस्त कुव्यवस्था ब्रितानी शासन की देन है।
मनु का दण्ड विधान में मनुस्मृति में प्रतिपादित दण्ड-विधानों पर लेखक द्वारा किया गया शोध-कार्य है। डॉ. तोमर प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के शोधकर्ता होने के साथ-साथ विधि के भी विद्यार्थी हैं, जिससे कानून की पेचीदगियों को भली प्रकार से समझते है।
इन्होंने सुगम और बोधगम्य भाषा में अपराध और दण्ड के सन्दर्भ में मनुस्मृति से सम्बंधित विवादों, प्रश्नों पर पक्षपातरहित नवीन दृष्टिकोण से सम्प्रमाण और युक्तियुक्त विवेचन किया है; वेदादि शास्त्रों के प्रमाणों से मनु के भावों को उद्घाटित एवं पुष्ट किया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ न केवल विधि के विद्यार्थियों और विद्वानों के लिए अपितु राजनीति, समाजशास्त्र और इतिहास के विद्यार्थियों के लिए भी लाभकारी है, विशेषकर उनके लिए जिन्हें संस्कृत-भाषा का पर्याप्त ज्ञान नहीं है।

पुस्तक का नाम – मनु का दण्ड-विधान
लेखक – डा. हर्षवर्धन सिंह तोमर
प्रकाशक – अखिल् ा भारतीय इतिहास संकलन
योजना, आपटे भवन,
केशव कुंज, डी.बी. गुप्ता मार्ग,
झण्डेवाला, नई दिल्ली-55
मूल्य – 300 रु., पृष्ठ – 294

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