|
-लक्ष्मीकांता चावला-
एक दु:खद सत्य देश के सामने ला रही हूं। संभवत: विश्वास करना भी कठिन हो, पर राष्ट्रीय स्तर की एक महिला नेता से जब यह चर्चा की गई कि कुछ वगोंर् में महिलाओं के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है और कहीं-कहीं तो अमानवीय आदेश भी दे दिए जाते हैं, तब उनका यह कहना था- ऐसा कहीं नहीं होता। कम से कम उनकी जानकारी में यह नहीं है कि किसी भी धर्म स्थान में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है।
मुझे ऐसा लगता है कि आज भी देश में महिलाओं के ऊपर जो अत्याचार हो रहे हैं, उसका बड़ा कारण ऐसी सोच रखने वाली वही महिलाएं हैं, जो आम महिला की पीड़ा से अपरिचित हैं अथवा न जानने का अभिनय बड़ी कुशलता से कर लेती हैं।
वैसे यह सुना जाता था कि घायल की गति घायल जानता है और महिलाओं की पीड़ा को महिलाओं से ज्यादा कोई नहीं जान सकता, पर यहां तो बीमारी ला-इलाज हो रही है, क्योंकि जिनको उपचार देना है, वही रोग को न जानने की बात कर रही हैं अथवा यह मानती हैं कि कोई रोग है ही नहीं।
प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया में जिस ढंग से महिलाओं को विज्ञापनों में प्रस्तुत किया जाता है उससे बड़ा तो महिलाओं का अपमान और कुछ हो ही नहीं सकता। उन्हें उपभोग की वस्तु बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। एक तरफ देश में कागजी कानून है, जिसमें लिखा है कि महिलाओं की अशिष्ट रूपेण छवि प्रस्तुत करने पर वषोंर् तक जेल में रहना पड़ सकता है, लेकिन व्यवहार में जितनी अश्लीलता और नग्नता इन विज्ञापनों में परोसी जाती है उसे देखकर भी अनदेखा करने का कार्य हमारे वे प्रतिनिधि करते हैं,जो संविधान की शपथ लेकर सरकार चलाते हैं।
एक बेहद लज्जाजनक समाचार बंगाल के वीरभूम जिले से है। यह समाचार अफसोसजनक ही नहीं बल्कि देश का सिर शर्म से झुका देने वाला है। वह भूमि जहां से राजा राजमोहन राय पैदा हुए, जिन्होंने सती प्रथा का डटकर विरोध किया और अंग्रेजी साम्राज्य द्वारा भी सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित करवा दिया, विधवा विवाह का वातावरण देश में तैयार किया। उसी बंगाल में अगर आज ऐसी मानसिकता के लोग विद्यमान हैं, जैसी वीरभूम जिले के लाभपुर थाना के एक गांव में देखने को मिली तो यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि ऐसी बीमार मानसिकता से ग्रसित लोग भारत में कैसे पंचायतों को चला रहे हैं। जिस देश में यह माना जाता था कि पंचों में परमेश्वर का वास है, वहां यह पंचायत जैसी संस्था तालिबानी फरमान जारी करके अपनी आंखों के सामने एक बेटी के शील भंग का आदेश गांव के लोगों को देती है और अपने इस फैसले पर बड़ा फख्र भी महसूस करती है। वीरभूम में जिस युवती के साथ यह घटना घटी उसने बयान देकर कहा कि उसका दोष केवल इतना था कि उसने दूसरे समुदाय के युवक से प्रेम किया। इस कारण जिन्हें मैं चाचा कहती थी, दादा अर्थात बड़ा भाई मानती थी उन्होंने भी मेरे साथ बलात्कार किया। यद्यपि पुलिस ने इन सभी बलात्कारियों को गिरफ्तार करने का दावा किया है, पर प्रश्न यह है कि सालसी सभा अर्थात पंचायत के वे तालिबानी क्यों नहीं गिरफ्तार किए गए, जिन्होंने यह राक्षसी आदेश दिया?
हरियाणा में भी पंचायतों ने कई बार उस युवक-युवती को बुरी तरह से दंडित किया जो एक ही गोत्र अथवा जाति से बाहर किसी युवक से प्रेम और विवाह कर लेते थे। इज्जत के नाम पर बेटियां मारने का काम पंजाब में भी हुआ और कुछ वे युवक भी मारे गए जिन्होंने प्रेम विवाह पत्नी के माता-पिता की आज्ञा के बिना किया अथवा पंचायत को जिनका संबंध अच्छा नहीं लगा। सवाल यह है कि देश के शासकों ने इन पंचायती अमानवीय फरमानों के विरुद्घ क्या कभी कठोर न सही पर कानून के अनुसार कार्यवाही क्यों नहीं की? अगर कानून का भी पालन कर लेते तो भी यह अपराधी पूरा जीवन सलाखों के पीछे काटते अथवा उन्हें मृत्युदंड दिया जाता। दुर्भाग्य से यहां सच का सामना करने का साहस हमारे राजनेताओं में भी नहीं और उनमें भी नहीं जो महिलाओं का नेतृत्व करने के नाम पर टीवी चैनलों पर धुआंधार बहस करती हैं। इसी का दुष्परिणाम है कि पंजाब में जब एक युवती हथियारों के बल पर उठा ली गई, अपहरण भी हुआ और बलात्कार भी, तब भी राजनेताओं का एक वर्ग गूंगा रहा। महिला आयोग भी न देखने का नाटक करता रहा, क्योंकि उनके राजनीतिक मालिक चाहते थे कि इस अत्याचार का विरोध न किया जाए। यह सच है कि आम जनता ने संघर्ष करके न्याय पा लिया।
क्या समाज विश्वास करेगा कि इस आधुनिक दौर में एक शिक्षा संस्था की प्राचार्य महिला को अंधविश्वास के चलते पारिवारिक मंगल कार्य में भाग लेने से परिवार की एक बुजुर्ग और शिक्षित महिला ने ही रोक दिया? शोभायात्रा में कलश लेकर चलने वाली महिलाओं में से एक को अलग कर दिया गया, क्योंकि उसके विधवा होने की जानकारी तथाकथित आयोजकों को मिल गई थी। देश के कुछ प्रांतों में कहीं-कहीं आज भी महिलाओं को श्री हनुमान चालीसा का पाठ करने से रोका जाता है और कुछ संप्रदाय ऐसे भी हैं,जहां प्रार्थना के लिए उनके धर्म स्थान में महिलाओं का प्रवेश पूरी तरह वर्जित है। आश्चर्य है कि देश में मानवाधिकार आयोग है, महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए भी आयोग है, पर यहां भी महिला अध्यक्ष और आयोगों के मुखिया स्वतंत्र रूप से उन व्यक्तियों तथा महिलाओं को संरक्षण नहीं दे पाते, जिनके लिए संघर्ष करने से उनके राजनीतिक आकाओं के वोट कम होने की आशंका रहती है और फिर वे इसी प्रकार के नाटक करते हैं कि देश में कहीं ऐसा कुछ हो रहा है, इसकी जानकारी उन्हें नहीं है अथवा खामोशी का ही निर्देश वे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों और जनता को भी देते हैं।
याद रखना होगा कि लोकतंत्र में अगर लोग मौन रहेंगे तो अत्याचार बढ़ेगा। इसलिए आम आदमी को ही बोलना है और अन्याय के विरुद्घ संघर्ष करना है। जो राजनीतिक सिफारिशों के बल पर सत्ता के गलियारों में पहुंच चुके हैं उनसे आशा करना व्यर्थ है, क्योंकि उनके राजधानियों में स्थित ठंडे-गर्म कमरों में पीडि़तों की चीखें पहुंचती ही नहीं हैं।
टिप्पणियाँ