सम्पादकीय : लड़ाई लोकतंत्र से
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सम्पादकीय : लड़ाई लोकतंत्र से

by
Feb 1, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Feb 2014 13:13:47

छोटा सा साक्षात्कार सच का सामना करा दे, यह घटना छोटी नहीं है। पले-पुसे, नपे-तुले राजनेता के लिए तो यह दुर्घटना ही है। परंतु राजनीति की रपटीली राहों पर ऐसा होता है। कभी जानबूझकर, तो कभी अनजाने में।
हाल में कांग्रेस के युवराज एक ऐसी दुर्घटना में खुद तो घायल दिखे ही परंतु उन्होंने समाज के एक पुराने जख्म को भी कुरेद दिया। यह सब सोचा-समझा था या 500 करोड़ की पॉलिश की पहली चमक, हम इस बहस में नहीं पड़ते।
'84 का जिक्र पूरे समाज में सिहरन पैदा करता है। समाज की सोती टीस उभारना वैसे भी कम बड़ा अपराध नहीं, परंतु यदि इसके पीछे आगामी संसदीय सत्र में साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा(निरोधक) विधेयक को आगे ठेलने की किंचित भी मंशा है तो यह अपराध अक्षम्य हो जाता है।
पन्ने पलटिए, सिख दंगा साम्प्रदायिक हिंसा नहीं, राजनैतिक दल द्वारा भड़काई वह आग थी जिसमें एक व्यक्ति की मौत पूरे समाज के मातम में बदल गई। तब के उन्मादी हुल्लड़बाज अगर आज भी ठसक के साथ कलफ लगे कुर्ते की बाहें चढ़ाते दिखते हैं तो इसकी जिम्मेदार न्यायपालिका नहीं कुनबापरस्ती को सलाम बजाते कांग्रेसी राज की वह मानसिकता है जिसने पीडि़तों को झिंझोड़ा और दोषियों को नहीं छेड़ा।
लोकतंत्र को घुन की तरह खाते, लोगों को बांटते- काटते इस वंशवाद ने समाज को कितने गहरे घाव दिए, लोक और तंत्र दोनों को खोखला करती अराजकता को किस तरह हर मौके पर पोसा, आज यह जांचने का वक्त है।
व्यक्ति का कुशलक्षेम राज्य की सर्वोच्च प्राथमिकता है, यह सर्वमान्य है किसे इस बात से विरोध होगा। किंतु इसी बिन्दु की आड़ में मनमानी का बिगुल फूंकना, लोकतंत्र को पार्टी या वंश समर्थक भीड़ का बंधक बना छोड़ना क्या राष्ट्र के विरुद्ध अपराध नहीं? अब अपराधी संगठित हो रहे हैं। गिरोहबंदी इस देश और समाज की ताकत के खिलाफ है। जिस देश विरोधी सुर की गूंज कल सलाहकार परिषद् तक थी आज उसी अराजकता का विस्तार राजपथ पर लोटते लोकतंत्र के रूप में हमने देखा है।
दूसरा अध्याय था राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् का आवरण ओढ़ संवैधानिक जिम्मेदारियों से परे, देश की चुनी हुई सरकार पर संदिग्ध और लांछित पृष्ठभूमि के लोगों द्वारा हुक्म चलाना।
तीसरा अध्याय है राष्ट्रविरोधी परोक्ष धाराओं का प्रत्यक्ष मिलन और देश की छाती पर चढ़कर अराजकता का खुला ऐलान।
आपातकाल में इंदिरा, '84 में राजीव और यूपीए कार्यकाल में सोनिया गांधी जो काम बंद कमरों में कर रही थीं अरविंद केजरीवाल और सोमनाथ भारती वही अराजक आलाप आज सड़कों पर कर रहे हैं। ऐसे में पुख्ता तौर पर कोई कैसे कह सकता है कि भविष्य को लेकर ह्यकुनबेह्ण और ह्यक्रांतिह्ण के तार नहीं जुड़े हैं। प्रधानमंत्री के किसी अध्यादेश पर बौखलाने वाले युवराज एक अराजक मुख्यमंत्री को सबक सिखाने सड़क पर नहीं उतरते बल्कि उससे कुछ सीखने को आतुर दिखते हैं तो यह अकारण नहीं है। साक्षात्कार में आम आदमी सी भोली मुद्रा भी और दंगे का जिक्र भी अकारण नहीं है।
जिन हाथों ने '84 में सिखों को निशाना बनाया आज वही 'साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा(निरोधक) विधेयक' लहराने और हिन्दू सहिष्णुता पर कुल्हाड़ी चलाने के लिए बढ़े हैं। दुस्साहस और सादगी का यह छलावा कितना घातक है, हमें समझना होगा।
भला दिखता कोई चेहरा बुदबुदाता है, 'पेड़ गिरता है जमीन हिलती ही है', लोग माफ कर देते हैं।
'आम' दिखता कोई आदमी अदालतों को ललकारता है, पुलिसकर्मियों में बगावत के बीज बोता है, लोग फिर माफ कर देते हैं।
टी.वी.स्क्रीन पर पसीना पोंछता कोई मासूम चेहरा अपना दामन बचाते हुए कहता है कि दाग दूसरों ने दिए हैं…भला लोग कब तक माफ करेंगे।
समाज को लहूलुहान करने वाले चेहरे भोले हैं मगर इन हाथों में बर्छियां हैं। जिन्हें हम माफ करते रहे, उन्होंने देश और लोकतंत्र को साफ करने की ठानी है।
भय और अराजकता की ओर धकेलती इन सियासी गिरोहबंदियों के खिलाफ लड़ाई सिर्फ इसलिए मद्धम नहीं पड़नी चाहिए क्योंकि हमलावरों के चेहरे बड़े भोले हैं।

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