आम आदमी से तानाशाही तक
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आम आदमी से तानाशाही तक

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Feb 1, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Feb 2014 13:17:13

'आम आदमी' शब्द का 'क्रांति' छाप बातों से क्या संबंध है? इन 'क्रांति' छाप बातों को समय रहते, और बहुत सुविधाजनक ढंग से भुला क्यों दिया जाता है?
आधुनिक भारत के इतिहास में इस शब्द के प्रयोग के कुछ उदाहरण देखिए-
'जब से मैंने भारत के आम आदमी और आम औरतों को फायदा पहुंचाने वाले प्रगतिशील उपाय करने शुरू किए हैं, तभी से एक गहरा और व्यापक षड्यंत्र चल रहा है और मुझे विश्वास है कि आप सभी उसके बारे में पूरी तरह जागरूक हैं।'
ये शब्द हैं श्रीमती इंदिरा गांधी के, जो उन्होंने 26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा करने के बाद आकाशवाणी पर कहे थे। इस भाषण को आप सूचना और प्रसारण विभाग के प्रकाशन में देख सकते हैं।
खैर, भारत के 'आम आदमी' और 'आम औरतों' को फायदा पहुंचाने के इंदिरा गांधी के प्रगतिशील उपाय क्या कर रहे थे? आधी रात को छापे पड़ते थे, जिसमें सत्तारूढ़ कांग्रेस के सतर्क और चुस्त किस्म के नेता, कार्यकर्ता शामिल रहते थे। विपक्षी दलों के नेताओं-कार्यकर्ताओं, बुद्घिजीवियों, पत्रकारों को घर से घसीट कर निकाला जाता था। मारा-पीटा जाता था और जेल में डाल दिया जाता था। प्रेस को डरा-धमकाकर और सेंसरशिप के जरिए चुप करा दिया जाता था। कैदियों को जघन्य याताएं दी जाती थीं। घरों और बाजारों को बुलडोजरों से समतल कर दिया जाता था। 'आम आदमियों' और 'आम औरतों' को मवेशियों की तरह खदेड़कर परिवार नियोजन केंपों में ले जाया जाता था। हर दीवार पर लिखा होता था- 'हम सुनहरे कल की ओर बढ़ रहे हैं।' किसे सुनहरे कल की ओर बढ़ाना है, किसे जेल में डालना है, किसकी नसबंदी करनी है, किसका घर तबाह करना है, यह फैसला कांग्रेस के स्थानीय नेता करते थे। मोहल्ला कमेटी की तर्ज पर। एक चौकड़ी राज कर रही थी, जो 'सिस्टम' को, कानून को नहीं मानती थी, उससे ऊपर थी। चाटुकार विरुदावलियां गाते थे।
अब आप 2014 में आ जाएं। दिल्ली के कानून मंत्री हैं सोमनाथ भारती। सतर्क और चुस्त किस्म के। जो संभवत: युगांडा की महिलाओं पर सख्त पहरा बनाए रखते हैं। आधी रात को उनके घरों पर छापे मारते हैं, आधी रात को दुकानों पर छापे मारते हैं और डेनमार्क की बलात्कार पीडि़ता का नाम भी उजागर कर देते हैं। मंत्री पर महिलाओं के साथ बदतमीजी करने का आरोप लगा। इसकी शिकायत महिला आयोग में हुई। आयोग ने मंत्री को तलब किया। मंत्री महिला आयोग नहीं आए और पतंगबाजी करने लगे। महिला आयोग की अध्यक्षा को हटाने का आदेश हो गया। किसे जेल में डालना है, कहां छापा मारना है, किस दुकान को बंद कराना है- ये फैसले वे स्वयं करते हैं। यह सतर्कता, चुस्ती और क्रांति का प्रतीक है। मोहल्ला कमेटियां अभी निर्माणाधीन हैं।
यह सब उस सरकार ने किया, जिसे जनता ने बदलाव के नाम पर वोट दिया था। बदलाव यह हुआ कि आम आदमी के नाम पर, कानून और न्याय की कीमत पर, आम लोगों पर सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार का मिला-जुला कहर तेज हो गया है। गणतंत्र दिवस की परेड का मजाक उड़ाया गया, परेड पर खतरा पैदा हुआ। खुफिया गलियारों में एक कानाफूसी थी कि गणतंत्र दिवस की परेड के मुख्य अतिथि जापान के प्रधानमंत्री का भारत दौरा खटाई में डाला जाना एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। मुख्यमंत्री ने खुला ऐलान किया-'हां, मैं अराजक हूं।' अदालत के फैसले को सरेआम गलत कहा गया। दस साल की बिजली चोरी को माफ करने की घोषणा की गई। जिन्होंने ईमानदारी से बिल चुका दिए थे, ईमानदारी के इस कहर में वे बेवकूफ साबित हुए।
आइए 2014 से 30 वर्ष पीछे चलें। 1984। सिखों का कत्लेआम हुआ। सत्तारूढ़ नेता हाथ से इशारे करके दंगाइयों को उन आम आदमियों के घर बता रहे थे, जो उनके निशाने पर थे। पुलिस थी, पर आंख-नाक-कान से लाचार थी। सीबीआई ने कहा- कत्लेआम दिल्ली पुलिस की मिलीभगत से हुआ। कानून था, पर नहीं था। हां, मैं अराजक हूं- कहने की जरूरत नहीं बची थी। यह जरूर कहा गया कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती कांपती ही है। यह कहने की जरूरत ही नहीं थी कि उसे कांपना ही होगा। देखते हैं, कैसे नहीं कांपती है? 1975-77 के विपरीत, विरुदावलियों का स्थान तलवारों, चाकुओं, डंडों, मिट्टी के तेल और पेट्रोल के कनस्तरों ने ले लिया था। 'वोटर लिस्ट' का इस्तेमाल 'हिटलिस्ट' बनाने में किया गया। 'सुनहरे कल की ओर बढ़ने' की इबारत दीवार पर लिखने का स्थान हवा में तैरते खून का बदला खून के नारे ने ले लिया- तरलोचन सिंह से पूछिए, ज्ञानी जैल सिंह की आत्मा से पूछिए। मार-काट डालने के लिए नकद इनाम देने की घोषणा माइक पर की गई, बाइज्जत बरी रहते हुए, 'माननीय' बने रहते हुए की गई। विशुद्घ अराजकता।
ऊपर लिखी हर घटना की सफाई पेश करने वाले आपको आज भी मिल जाएंगे। सवाल किसी सफाई से सहमत या असहमत होने का नहीं है। इस बहस को सिरे से खारिज करना होगा, जो किसी भी तरह की अराजकता को किसी भी ढंग से जायज ठहराती हो।
फिर इन घटनाओं को किस रूप में लिया जाए? कमजोर सत्ता या कमजोर होती सत्ता, अपना वजूद जताने के लिए हिंसक होने लगती है। या तो उसे विश्वास रहता है कि वह (1975 की तरह) अत्याचारों के बूते करोड़ों भारतीयों को बंधक बना सकती है और उन पर राज कर सकती है, या फिर ये ही करोड़ों भारतीय यह साबित करते हैं कि हां, उन पर दबा-धमकाकर राज किया जा सकता है। उनके और सत्ता के दमन के बीच कानून नाम का जो 'बफर' है, उसे कुचला जा सकता है।
बात लंबी है। संक्षेप में- आज 1975 की चर्चा कोई नहीं करता। कल 1984 की कोई नहीं करेगा। 1975 के बाद सिद्घांतकारों की फौज पैदा हुई, जिसने आइडिया ऑफ इंडिया नामक चुटकुले से साबित करने की कोशिश की कि 1975 को भूल जाना ही जरूरी है, वही सच्चा देशप्रेम है। यही बात प्रकारांतर से 1984 के लिए साबित की जा रही है। आपको वैसी ही सरकार, वैसी ही व्यवस्था मिल सकती है, जिसके आप योग्य हैं। इसके बाद, जिसके हित आपकी अयोग्यता से जुड़ते हैं, वह आपकी अयोग्यता को क्रांति, ईमानदारी, आम आदमी का हित वगैरह साबित करता रहेगा। उसके बाद आपसे कहा जाएगा कि जो हुआ, उसे भूल जाएं।
भूल जाना, आपकी अपनी अयोग्यता का हिस्सा होता है, जो आपको आम आदमी बने रहने में मदद करता है। सत्ता कभी आम आदमी की नहीं होती, लेकिन वह यह कहना जरूरी समझती है कि वह आम आदमी की है।   ज्ञानेन्द्र बरतरिया

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