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राष्ट्रपति की खरी-खरी

by
Feb 1, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Feb 2014 11:42:45

उमेश उपाध्याय

आमतौर पर भारत के राष्ट्रपति के भाषण निरामिष और उबऊ ही होते हैं। लेकिन इस बार गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर दिया गया राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का राष्ट्र के नाम सन्देश अगले दिन तकरीबन सारे अखबारों की सुर्खियों में छाया रहा। कई टीकाकारों ने इसे एक राजनीतिक भाषण बताकर इसकी आलोचना भी की। यहभी कहा गया कि राष्ट्रपति को रोजमर्रा की राजनीति से दूर रहना चाहिए। ऐसा लगा कि अपने भाषण में राष्ट्रपति ने राजनीतिक दलों, खासकर आआपा यानी ह्यआम आदमी पार्टीह्ण पर इशारों इशारों में तीखी टिप्पणी की।
राष्ट्रपति ने कहा कि लोकलुभावन अराजकता शासन का स्थान नहीं ले सकती। उन्होंने यह भी कहा कि चुनाव में मतदाताओं का विश्वास जीतने के लिए वही वायदे करने चाहिए जो पूरे किये जा सकते हों। मतदाताओं को ऐसे वायदों की मृगतृष्णा दिखाना, जो पूरे किये ही नहीं जा सकते ,बहुत खतरनाक है। सरकार कोई मुफ्तखोरी की दुकान नहीं है जो लोगों को मुफ्त में सुविधाएं बांटेगी। स्पष्ट है कि  ह्यलोकलुभावन अराजकताह्ण का राष्ट्रपति का उल्लेख सीधे ह्यआअपाह्ण पर निशाना  साधता है।
इसी तरह राष्ट्रपति ने भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ लोगों में उमड़ रहे गुस्से का भी बेबाक जिक्र किया और कहा कि जिन लोगों ने सत्ता को अपने लालच पूरे करने का साधन बना रखा है उन्हें लोग नहीं छोडे़ंगे। जो सरकारें भ्रष्टाचार को नहीं दूर करेंगी ऐसी सरकारों को मतदाता हटा देंगे। एक तरह से राष्ट्रपति ने यह कहकर मौजूदा केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया।
याद रखना चाहिए कि राष्ट्रपति का यह भाषण अरविन्द केजरीवाल के उस धरने के कुछ ही दिन बाद दिया गया जो दिल्ली के मुख्यमंत्री ने राष्ट्रपति भवन के बिलकुल पास दिया था। इस धरने के दौरान केजरीवाल ने भारतीय लोकतंत्र के कुछ मान्य प्रतीकों को सीधा निशाना बनाया था। जिसमें दिल्ली में निकलने वाली 26 जनवरी की परेड भी शामिल हैं। उन्होंने कहा था कि अगर उनकी मांगंे नहीं मानी गयीं तो वे राजपथ को लाखों लोगों से भर देंगे ताकि परेड ही न हो पाए। उनका यह बयान किसी भी भारतीय के गले नहीं उतर सकता। इस बयान की तुलना कुछ दशक पहले मुस्लिम नेता सैयद शहाबुद्दीन द्वारा 26 जनवरी के दौरान भारतीय संविधान की प्रतियां जलाने के कृत्य से की जा सकती है। यह अलग बात है कि उसके बाद से ही सैयद शहाबुद्दीन भारतीय राजनीति में हाशिए पर चले गए़ वे एक पढ़ें-लिखे नेता थे और जिस तरह केजरीवाल भारतीय प्रशासनिक सेवा से राजनीति में आये है उसी तरह शहाबुद्दीन जीवन भर भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी रहे थे। वैसे दिल्लीवालों को ये दिलचस्प लगा कि उनके ह्यआअपाह्ण मुख्यमंत्री केजरीवाल ने 26 जनवरी की परेड राजपथ पर खास आदमियों के लिए बनाई वीआईपी दीर्घा में ही बैठकर देखी है।
केजरीवाल को ध्यान रखना होगा कि भारत का मानस उन लोगों को अस्वीकार कर देता है जो देश की व्यवस्था के फायदे उठाने के बाद अपनी राजनीति चमकाने के लिए उसे ही गाली देने लगते हैं। इस तरह की मौकापरस्ती को वह स्वीकार नहीं करता। केजरीवाल एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं। मुख्यमंत्री बनने के समय उन्होंने विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान में सच्ची निष्ठा की शपथ खाई थी। इस शपथ का अर्थ होता है हर हालत में न सिर्फ भारतीय कानून का पालन करना बल्कि उसका पालन करवाना भी है। दिल्ली में लगी धारा  भी इसी के दायरे में आती है। उन्हें केंद्र सरकार से बहुत सी शिकायतें होंगी। वे अकेले ऐसे मुख्यमंत्री नहीं हैं, जो केंद्र से नाराज हैं बहुत से मुख्यमंत्रियों को केंद्र से बहुत से गिले शिकवे हैं। उन्हें कानून का पालन करते हुए उसकी सीमाओं के दायरे में उन्हें उठाने का पूरा अधिकार है,पर वे कानून तोड़कर उसकी मर्यादा नहीं लांघ सकते। मानस में तुलसी दास ने कहा कि आप गाल फुलाना और हंसना, दोनों काम एक साथ नहीं कर सकते। आप ठहाका भी मारना चाहें और साथ गाल को फुलाना भी, किसी भी आदमी के लिए यह संभव नहीं हैं ,चाहे वो आम हो वह खास। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी एक बहुत ही अनुभवी और सुलझे हुए नेता हैं। अपने भाषण के जरिये उन्होंने देश के राजनीतिक दलों को तुलसीदास की ही तरह समझाया है कि संविधान ने जो मर्यादाएं उनके लिए बांधी हैं उनका अतिक्रमण करना खतरनाक है। कोई भी सरकार और पदासीन नेता उस लक्ष्मण रेखा को नहीं तोड़ सकता जो लिखित रूप में संविधान में विद्यमान है या उसकी परम्पराओं से पैदा हुई है । आप राष्ट्रपति की बातों को राजनीतिक कहकर उनकी आलोचना कर सकते हैं, लेकिने मानना पड़ेगा कि उनकी यह खरी खरी आज की जरूरत है, क्योंकि 2014 आम चुनावों को देखते हुए नेताओं द्वारा बहुत सी बातें कही जायेंगी पर इस सबका एक सीमा में रहना बेहद जरूरी है।

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