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इक्कीसवीं सदी तक विज्ञान का विकास सूचना तकनीक, जैव विज्ञान और नैनोविज्ञान तक आ चुका है लेकिन आज भी विश्व का इतिहास 'वंशवाद' नामक दकियानूसी सिद्घांत पर ही निर्भर है। विश्व का े विभाजन है आज भी 'वंश'सिद्घांत पर ही आधारित है। यह सिद्घांत कहता है कि आज के विश्व का विस्तार नोहा की कहानी के आधार पर तुर्किस्तान के अरावत पर्वत से हुआ है़,यह कहानी जेनेसिस में है। उसी को आधार मानकर आज विश्व के 80 प्रतिशत देशों की पाठशालाओं में यह इतिहास पढ़ाया जा रहा है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। यद्यपि तुर्किस्तान एशिया का हिस्सा है और यूरोप से सटा हुआ है, लेकिन जेनेसिस, बाइबिल, मोजेस के इतिहासों पर ही यूरोप का इतिहास निर्भर है। उसी के आधार पर यूरोपीय लोगों ने विश्व पर अपने वर्चस्व का इतिहास रचा है। पिछले 60-65 वषोंर् में विश्व के 50-60 देशों के अध्ययनकर्ताओं ने इस इतिहास को चुनौती दी है। पिछले 150 वषोंर् से विश्व के विश्वविद्यालय जगत पर यूरोपीय विश्वविद्यालयों का ही प्रभाव है। इसी से आगे का इतिहास आज पढ़ाया जाता है। इसलिए जब तक इस इतिहास को ही चुनौती नहीं दी जाती तब तक कोई भी देश अपना इतिहास नहीं खोज पाएगा, यह सच्चाई है। पिछले 400-500 वषोंर् में विश्व के तीन चौथाई हिस्से पर यूरोपीय आक्रमकों का ही साम्राज्य था। पहले दो- तीन सौ वर्ष तक उन देशों ने लूट की। उसके बाद इतिहास जैसे विषय की ओर गौर करना शुरू किया। कई सदियों तक लूट मचाने व यंत्रणा देने के बाद यह इतिहास लादना शुरू किया, कि 'विश्व का इतिहास जेनेसिस पुस्तक में दिए हुए वक्तव्य के से शुरू होता है'। नोहा की कथा में उल्लेख है कि यूरोपीय लोगों को विश्व को लूटने का अधिकार है। उसी के आधार पर उन्होंने 'लूट के अधिकार वाला इतिहास' लिखवाया। आज भी विश्व के आधे से अधिक देशों की सरकारों, विश्वविद्यालयों, पाठ्यपुस्तकों और सरकारी कायदे कानूनों के दस्तावेजों में भी वह चल रहा है। इतना ही नहीं, विश्व की बहुतांश भाषाओं के ज्ञानकोश में भी यही 'थ्योरी' स्वीकारी जा चुकी है। विश्व के अनेक देशों ने अब फिर से अपना स्वतंत्र इतिहास लिखना शुरू किया है। कुल मिलाकर आज भी विश्व पर यूरोपीय वर्चस्व का बोझ होने के कारण जेनेसिस के आधार पर तैयार किया गया इतिहास प्रचलन में है। इसे फेंक देने की हिम्मत बहुत कम देश दिखा पाए हंै। भारत भी आज तक उसका शिकार है। 'आर्य बाहर से आए और अनार्य दक्षिण में अफ्रीका से आए', यह उसी जेनेसिस पुस्तक के कथन का हिस्सा है। पूरे विश्व में हर देश ने जेनेसिस मिथक को उखाड़ फेंकने का प्रयास जारी रखा है। उसे यदि संगठित रूप प्राप्त हो तो ही उसके जल्द से जल्द फेंके जाने की संभावना हैं। विश्व के एक हजार से अधिक विश्वविद्यालयों ने पिछले 150-200 वर्ष इसी इतिहास को केंद्र में रखकर सभी संशोधन किए है। भारत के भी सभी विश्वविद्यालय इसी सूची में आते हंै।
जेनेसिस के टॉवर ऑफ बेवल, नोहा की कहानी और 18वीं सदी में विश्व को कुछ 'वंशों' की सूची में डालने का कौशल-इसी से यह इतिहास तैयार हुआ है। विश्व की हर संस्कृति में ऐसी कुछ कथाएं तो होती ही हंै। उस समय जो ज्ञात प्रदेश है उसी को सारा विश्व मानकर पूरा चिंतन किए जाने की संभावना होती है। लेकिन उसका दकियानूसीपन स्पष्ट होने के बाद उसे परे रखने की आवश्यकता है। किसी चीज का यदि उपयोग हो तभी उसे आगे खींचने का मानवीय स्वभाव सार्थक होता है। लेकिन यदि उससे किसी दूसरे को तकलीफ होती हो तो उन्हें ही वह सावधानी रखनी होती है। भारतीय भाषाओं का सृजन भारत में ही हुआ और उसमें संस्कृत की अहम भूमिका है,यह भारतीय सिद्घांत है। लेकिन संस्कृत् ा सहित सभी भाषाओं की उत्पत्ति जेनेसिस की कहानी के टॉवर ऑफ बेवल से हुई है, यही सिद्घांत यूरोपीय विश्वविद्यालयों और विश्व पर राज कर रहे प्रमुख देशों ने माना है। यूरोपीय देशों द्वारा स्वतंत्र रूप से और एकत्र आकर बनाए हुए इस सिद्घांत को, कि भारत में आर्य बाहर से आए, चुनौती देने वाला बनाया गत सदी के अहम व्यक्त्वि यानी डा. बाबासाहेब अंबेदकर ने आर्य बाहर से आए हैं, इस विषय कोे सर्वप्रथम पूरी शक्ति और तर्क से नकारा। पिछले 60 वषोंर् में डा.अंबेदकर का सिद्घांत सत्ताधारियों को महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं हुआ।
लोककथा के मिथक के आधार पर अंग्रेजों ने भारत की सभी यंत्रणाओं में जो इतिहास जुड़वाया है वह अधिक गंभीर है। यह विषय केवल इतिहास तक सीमित नहीं है। भारत के प्रत्येक राज्य की भाषा, सांस्कृतिक माहौल, वहां का धार्मिक वातावरण, अलग-अलग जातियों के संबंध, संगीत, कला, लोककथा, धर्मग्रंथ इनमें से हर एक पर असर किया है। अंग्रेजों का किया हुआ यह प्रयास कितना सुदृढ़ होगा, इसका जायजा 'ब्रेकिंग इंडिया' ने अत्यंत सशक्त रूप से लिया है। जेनेसिस एवं बाइबिल ग्रंथ के आधार पर उन्होंने विश्व को मुख्य रूप से तीन विभागों में बांटा है। ये विभाग नोहा की कहानी के आधार पर किए गए हंै। संक्षिप्त में कहें, तो नोहा की कहानी इस तरह है,-बाइबिल के पूर्व समय में एक बार एक बड़ा प्रलय हुआ। उसमें केवल नोहा नामक व्यक्ति बच गया। उनके मत में विश्व की आज की पूरी जनता नोहा की वंशज है। इस नोहा के तीन बेटे थे-साम, हाम एवं जेफेथ एक बार इनमें से हाम नामक बेटे ने पिता नोहा को शराब पीकर निर्वस्त्र स्थिति में पड़ा पाया और वह हंस पड़ा, लेकिन दूसरे बेटे साम ने पिता की ओर पीठ कर यानी उन्हें निर्वस्त्र देखना टालते हुए पहनने को वस्त्र दिए। इससे नोहा साम पर खुश हुआ एवं हाम को उसने श्राप दिया कि वह अश्वेत बनेगा, दक्षिण की ओर जाएगा और उसके बच्चों को साम के बच्चों की पीढि़यों तक सेवा करनी होगी। इस कथा का प्रत्यक्ष परिणाम यह हुआ कि आधे से अधिक दुनिया आज सेमेटिक, हेमेटिक और जेफेथेटिक हिस्सों में बंटी है। भारत को उन्होंने एक ऐसा देश माना है जहां के आर्य सेमेटिक हैं क्योंकि वे साम के वंश से हैं। अनार्य हेमेटिक है, क्योंकि वे अफ्रीका के मार्ग से दक्षिण भारत में आए हैं। भारत में आज हेमेटिक के लिए अनार्य, द्रविड़, तमिल, ये शब्द प्रयोग किए जाते हैं। भारत में कहीं भी साम-हाम शब्द नहीं दिखते। लेकिन तमिलनाडु ऐसा राज्य है जहां द्रविड़ एवं तमिल का संदर्भ उन्होंने साम एवं हाम तक खींचा है। प्रत्येक राज्य की भाषा, सांस्कृतिक वातावरण, जातीय संबंध, संगीत, कला, लोककथा, धर्मग्रंथ, शिक्षण क्षेत्र, शासकीय इतिहास को यदि दस मुद्दों का क्रम मानें तो तमिलनाडु में 70-80 प्रतिशत में इसका प्रभाव है। दक्षिण के कर्नाटक, आंध्र, केरल में कहीं 30 प्रतिशत तो कहीं 60 प्रतिशत तक हैं। महाराष्ट्र में 20-25 प्रतिशत है। उत्तर में भी कहीं 20-25 प्रतिशत तो कहीं 40 प्रतिशत तक इसका असर हुआ है। भारत में हम दो प्रवाह मानते हैं। आर्य बाहर से आए, वे यहीं के थे। लेकिन यह समस्या विश्व के तीन-चौथाई देशों में है। हर स्थान पर सेमेटिक, हेमेटिक शब्द प्रयुक्त किए जाते हैं। लेकिन चर्च,'ब्रिटिश, पुर्तगाली, स्पेनिश एवं इतालवियों ने अमरीका की मदद से फिर से इन प्रयासों को गति देनी शुरू की है। इसमें भारत की स्थिति हम गहरे तक देख सकते हैं। भारत में यूरोपीय लोग किस तरह आए और उन्होंने किस तरह राज हथिया लिया, इस इतिहास को दुहराने की यहां आवश्यकता नहीं है। यूरोपीय लोगों ने यहां आते के बाद 200-300 वर्ष अपना डेरा जमाने में बिताए। यहां पक्के तौर पर सत्ता हाथ में आने के बाद यहां सेमेटिक-हेमेटिक इतिहास लादने का प्रयास शुरू हुआ। अश्वेत आमतौर पर 19 वीं सदी के आरंभ से यानी ई़ 1800 से शुरू हुआ। यह काम शुरू किया मिशनरियों एवं ब्रिटिश शासकों ने मिशनरियों की तरफ से बिशप काल्डवेल और ब्रिटिश प्रशासकों की तरफ से फ्रान्सिस एलीस और एलेक्जेंडर कैम्पबेल लगे। इसमें अहम बात यह है, कि उपरोक्त दस मुद्दों वाला कार्यक्रम उन्होंनंे हर 15 वर्ष बाद एक कदम आगे बढ़ाया।
इस बीच हेमेटिक-सेमटिक परंपरा लादने के लिए यूरोप में 'वंशवाद' का सिक्का तैयार हो चुका था। भारतीयों को एक बात की गंभीरता से जानकारी लेना आवश्यक है कि इस सेमेटिक- हेमेटिक के लिए यूरोपीय लोगों ने भारत में जिस तरह से आर्य नामक काल्पनिक टोलियों को भेजा, उसी तरह उन्होंने पूरे विश्व में ऐसी काल्पनिक टोलियों को भेज दिया। अफ्रीका में काल्पनिक हेमेटिक टोलियां भेज दीं। दक्षिण पूर्व एशिया में कुछ हेमेटिक तथा कुछ सेमेटिक भेज दिए। इस बीच अमरीका में भी सेंट थॉमस के जाने से कुछ सेमेटिक एवं कुछ हेमेटिक टोलियां भेज दीं। तमिलनाडु में जिस तरह एक एक चरण पार किया उसी तरह कहीं अंग्रेजों ने तो कहीं पुर्तगालियों ने वह काम किया। आज की स्थिति यह है, कि वंशवाद का नेशनल इंडेक्स सिद्घांत एवं हेमेटिक-सेमेटिक के रूप में फैलाया गया, इतिहास सिद्घांत दोनों सिद्घांत झुठलाए गए हैं। वंश सिद्घांत के स्थान पर 'वाय क्रोमोसोम सिद्धांत' है जो भारत के उत्तर में आर्यवंशीय तथा दक्षिण के अनार्यवंशीय लोगों को अलग नहीं मानता। उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय अथवा आर्य अनार्य की मुहर लगे हुए भारतीय एक ही परंपरा के माने गए हैं। इस तरह यहां की शैव परंपरा एवं तिरुवल्लुवर की संत परंपरा हेमेटिक मार्ग से बाइबिल से जोड़ी गई है। भारतीय संतों की परंपरा एवं बाइबिल की परंपरा को अधिक कड़ाई से जोड़ने के लिए बाद में सेंट थॉमस का भी उपयोग किया गया है। उसी थॉमस को दक्षिण अमरीका में भी ले जाने से उसका झूठापन अधिक स्पष्ट हो चुका है। अंग्रेजों के समय में सभी विश्वविद्यालय उन्हीं के संकेतों पर चलते थे इसलिए एवं बाद में आई हुई सरकारों ने वही इतिहास जारी रखा है। 21वीं सदी में यह विषय केवल आर्य-अनार्य एवं तमिलनाडु में 200 वर्ष के सुनियोजित प्रयासों तक सीमित नहीं रखा जा सकता। उसे प्रत्येक राज्य में अंग्रेजों के किए कामों से जोड़ा जाए एवं दूसरी तरफ सेमेटिक-हेमेटिक विवाद के कारण विभाजित विश्व की स्थिति से जोड़ा जाए तो यह विषय अधिक प्रभावी रूप से सामने आएगा और विश्व को भी वह स्वीकारना होगा। -मोरेश्वर जोशी
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