जम्मू-कश्मीर चुनाव - अलगाव को नकार की बही बयार
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जम्मू-कश्मीर चुनाव – अलगाव को नकार की बही बयार

by
Dec 29, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 29 Dec 2014 14:48:53

हर लहर तट से टकरा कर वापस लौटती है। उसे बुद्घिमान नहीं कहा जा सकता जो उसके लौटने को कमजोरी मान ले। लहर की ताकत का मूल्यांकन तो इस बात से ही होगा कि तट पर उसके द्वारा छोड़े गये निशान कितने गहरे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश में चल रही भाजपा की लहर का मूल्यांकन भी इसी मापदंड पर होगा। जो राजनैतिक विश्लेषक कश्मीर घाटी में भाजपा को एक भी सीट न मिलने को मोदी लहर की असफलता मान रहे हैं और उसकी समाप्ति की घोषणा कर रहे हैं वे वस्तुत: दृष्टिदोष के शिकार हंै।
जम्मू-कश्मीर के हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनाव कुछ मामलों में अभूतपूर्व हैं। स्थानीय के साथ ही इसके राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव भी हैं। इस चुनाव में मतदान के लिये जिस प्रकार मतदाता उमड़े, उसने छह दशक से अधिक से चले आ रहे इस मिथक को चूर-चूर कर दिया कि घाटी के लोग भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में शामिल होने को तैयार नहीं हैं। पूरे राज्य में हुए 66 प्रतिशत से अधिक मतदान से न केवल कश्मीरी अलगाववादियों के पैरों तले से जमीन खिसक गयी बल्कि पाकिस्तान दुनिया भर में जो ढिंढोरा पीट रहा था उसकी भी कलई खुल गयी।
निवर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और विपक्ष की नेता महबूबा मुफ्ती सहित सभी दलों ने चुनाव के स्वतंत्र और निष्पक्ष होने की प्रशंसा की। यह उस राज्य में संभव कर दिखाया गया जहां का इतिहास चुनावी धांधलियों से रंगा हुआ है। यहां तक कि 1951 में हुए राज्य की संविधान सभा के चुनाव में अधिकांश विपक्षी प्रत्याशियों के नामांकन निरस्त कर शेख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस के 75 में 73 प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित कर दिये गये थे। फिर भी केन्द्र की तत्कालीन सरकार ने इसे मान्यता दे दी। बाद में भी इतने भारी पैमाने पर तो नहीं, लेकिन हरेक चुनाव में धांधली की शिकायतें की जाती रहीं। राष्ट्रीय स्तर पर यह भ्रम बना हुआ था कि जम्मू-कश्मीर माने कश्मीर और कश्मीर माने एक अलगाववादी राज्य, जहां राष्ट्रीय विचारों के लिये कोई स्थान नहीं है। इस चुनाव में इस भ्रम का भी निवारण हो गया। अब यह स्थापित है कि राष्ट्रीय विचार भी यहां की राजनीति में समान रूप से महत्वपूर्ण हैं और प्रयास करें तो निर्णायक भूमिका में भी आ सकते हैं। पूरे राज्य को कश्मीर की दृष्टि से देखने के चलन पर भी अब विराम लग सकेगा। जम्मू के मुस्लिम बहुल निर्वाचन क्षेत्रों से भाजपा को मिले समर्थन ने भी न केवल भाजपा की स्वीकार्यता सिद्ध की है बल्कि राज्य के मुस्लिम समाज पर अलगाववाद समर्थक होने के एकतरफा आरोप को भी निरर्थक साबित किया है।
यह ठीक है कि कश्मीर घाटी में गत दशकों में अलगाववादी तत्वों का बोलबाला रहा है। राज्य सरकार के समर्थन और केन्द्र के आंख मूंद लेने के कारण उन्होंने बूथ स्तर पर मतदान का एक ऐसा ढांचा तैयार कर लिया है जिसमें वे यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि वे जिसे जिताना चाहें वहीं जीत सके। लेकिन बहिष्कार की अपील के बावजूद वे इन मतदान केन्द्रों पर न तो लोगों को जुटने से रोक सके और न स्वतंत्र मतदान से। इन मतदान केन्द्रों पर भाजपा को पड़ने वाला प्रत्येक मत वास्तव में इस ढांचे पर चोट करता है।
लद्दाख में लोकसभा में भाजपा प्रत्याशी की जीत के आधार पर विधानसभा में भी भाजपा की जीत का अनुमान मीडिया के सर्वेक्षण बता रहे थे। लेकिन वहां केवल एक ही सीट ऐसी है जिस पर भाजपा कोई उम्मीद पाल सकती थी। लेकिन वह उस पर पिछड़ गयी और दूसरे नंबर पर रही। यहां पहले चरण में मतदान था जिसके कारण तैयारी के लिये अधिक समय नहीं मिल सका। क्षेत्रफल के आधार पर तुलना करें तो लद्दाख में 40 दिल्ली समा सकती हैं, जिसमें केवल 4 विधानसभाएं हैं।
गुलाम नबी आजाद जैसे मंझे हुए राजनेता के क्षेत्र से चार विधानसभा क्षेत्रों में जीत दर्ज कर भाजपा ने कीर्तिमान बनाया है वहीं राजौरी जैसे क्षेत्र भी हैं जहां हिन्दू मतों से अधिक मुस्लिम मत भाजपा को मिले। नौशेरा और उस जैसे अनेक विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा ने पहली बार खाता खोला है। एक और उल्लेखनीय बात इन चुनावों में देखने को मिली है। जम्मू-कश्मीर की राजनीति में कांग्रेस की हैसियत हमेशा बनी रही। लेकिन उसकी पहचान ऐसे राष्ट्रीय दल के रूप में थी जो राज्य में हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करती थी। इस बार उसकी यह पहचान भी छिन गयी। पूरे देश में जनाधार खोने के बाद उसकी राष्ट्रीय पहचान जहां पहले से संकट में है, अब राज्य में उसके 12 विजयी प्रत्याशियों में से 10 मुस्लिम हैं जबकि दो बौद्ध। जम्मू में जहां कालाकोट विधानसभा से भाजपा के मुस्लिम प्रत्याशी अब्दुल गनी कोहली ने जीत हासिल की है वहीं कांग्रेस का एक भी हिन्दू प्रत्याशी विधानसभा में नहीं पहुंच सका।
बदलाव की यह बयार राज्य में बहने का एक सकारात्मक कारण था, जिसे राजनैतिक विश्लेषक अपनी सुविधा के लिये नजरअंदाज कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने पूरे देश के समान ही जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के साथ सीधे संवाद की पहल की। यह पहल ही वहां एक ताजी हवा के झोंके की तरह अनुभव की गयी जो चुनाव के समय परिवर्तन की लहर में बदल गयी। इससे पहले दिल्ली उनसे अब्दुल्लाओं, मुफ्तियों, गिलानियों और उन जैसे तमाम लोगों को माध्यम बना कर बात करती थी। जनता यह मानने के लिये विवश थी कि उनके इन नेताओं के स्वायत्तता और स्वशासन जैसे नारों को केन्द्र की मौन सहमति प्राप्त है। सीधे संवाद के जरिये राज्य की जनता को केन्द्र के विचार सुनकर अपनी राय बनाने का अवसर मिला। दूसरी ओर बाढ़ के समय उसने देखा कि उसके नाम पर केन्द्र से निरंतर सहायता पाने वाले सिरे से गायब थे और उनकी रक्षा वही सेना कर रही थी जिस पर इन कथित नेताओं के बहकावे में आकर उन्माद-पसंदों ने पत्थर फेंके थे। अलगाववादियों और आतंकवादियों की फौज भी इस समय गायब थी। इसने जनता को अपना मन बनाने में मदद की। बढ़ा मतदान प्रतिशत इसका परिणाम है।
चुनाव परिणाम से स्पष्ट है कि राज्य में गठबंधन की राजनीति का दौर जारी रहेगा। इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त यह उत्कंठा बनी हुई है कि सरकार कौन बनाता है। सभी दल विकल्प खुले होने की बात कर रहे हैं फिर भी कुछ बातें पूर्व निश्चित हैं। नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच तथा कांग्रेस और भाजपा के बीच गठबंधन होना प्राय: असंभव है। ऐसी स्थिति में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी, दोनों के सामने भाजपा का दामन थामने की मजबूरी है। एक कमजोर सी संभावना पीडीपी और कांग्रेस के सरकार बनाने की हो सकती है, लेकिन उसके लिये शर्त है कि कम से कम चार निर्दलीय विधायक इस गठबंधन के समर्थन में आयें। लेकिन यह एक बार फिर असंभव सी लगने वाली बात है। साय ही जम्मू-कश्मीर सहित केन्द्रीय सहायता पर निर्भर सभी राज्यों के राजनैतिक दलों की यह सामान्य प्रवृत्ति है कि वे उस राष्ट्रीय दल के साथ गठबंधन चाहते हैं जो केन्द्र में सत्ता में हो। इसके चलते भी दोनों ही क्षेत्रीय दलों की प्राथमिकता भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाने की होगी। -आशुतोष भटनागर

विधानसभा चुनाव-2014
कुल स्थान-87
पार्टी सीटें
भाजपा 25
पीडीपी 28
नेशनल कांफ्रेंस 15
कांग्रेस 12
अन्य 7

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