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वर्तमान जनतांत्रिक युग में मीडिया के विभिन्न साधनों तथा सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ा है। डिजिटल युग के इस दौर में प्रजातंत्र में कार्यपालिका, व्यवस्थापिका व न्यायपालिका के साथ ही इसे महत्वपूर्ण चौथा स्तंभ माना जाता है। इसे प्रजातंत्र की रक्षा का सतत् प्रहरी तथा 'वाचडॉग' भी कहा जाता है। समाचार पत्र,पत्रिकाएं लोकमत बनाने और उसे प्रकट करने का एक प्रमुख साधन हैं। मीडिया समाज तथा शासन के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी है। यह शासन की सकारात्मक आलोचना करके उसे जागरूक रखता है। इसे सत्य की तटस्थ अभिव्यक्ति का मौलिक सिद्धांत माना गया है। यह जनभावनाओं का प्रतिबिम्ब है।
पत्रकारिता की वर्तमान दशा
स्वतंत्रता के पश्चात पिछले दो दशक में भारतीय पत्रिकाओं तथा समाचार पत्रों की दिशा और दशा में जितना बदलाव आया है उतना पिछले दो सौ वषोंर् में भी नहीं आया था। एक विद्वान पत्रकार के अनुसार समकालीन संसार में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को उत्तर आधुनिक चिंतन की पीठिका और उत्तर औपनिवेशिक व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है। भारतीय पत्रकारिता पर भी साहित्य, कला, संस्कृति और जनसंचार के संदर्भ में पश्चिम चिंतन और आन्दोलनों का प्रभाव बढ़ा है। अब यह बाजारवाद के असर व दबाव में एक व्यवसाय और उद्योग का रूप ले चुका है। पत्रों में सम्पादकों की जगह मालिकों तथा प्रबंधकों ने ले ली है। (विस्तार के लिए देखें- डॉ. अरुण वर्मा, हिंदी पत्रकारिता,मीडिया लेखन और भूमण्डलीकरण की चुनौतियां)। आज समाचार पत्र भी देशी बहुराष्ट्रीय पूंजी और बाजार के शिकंजे में जकड़े जा रहे हंै। भारतीय पत्रकारिता में कुछ नई प्रवृत्तियां आ रही हैं,जिससे छोटे एवं मध्यम समाचार पत्रों, पत्रिकाओं का अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है। समाचार पत्र की व्यावसायिक सफलता के कारण उसमें विषयवस्तु की गुणवत्ता कम हो रही है।
विज्ञान का विस्तार तेजी से हुआ है। अंग्रेजी तथा हिंन्दी के कई प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों के पहले दो पृष्ठों तथा अंतिम पृष्ठ पर विज्ञापन ही दृष्टिगोचर होते हैं। पत्रों में चितंन-विश्लेषण, आलेख का स्थान हल्के- फुल्के साहित्य को प्रोत्साहन मिल रहा है। परन्तु यह भी सत्य है कि एक विश्वव्यापी सर्वर्ेक्षण के अनुसार यूरोप, अमरीका तथा जापान में वित्तीय कारणों से समाचार पत्र के पाठकों की संख्या कम होती जा रही है। जबकि भारत में यह संख्या प्रतिवर्ष 10़12 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ती जा रही है। साथ ही 'द हिन्दू' के मुख्य सम्पादक एन.राम का विचार है कि समाचार पत्रों की पुरानी परम्परा में विविधता,बहुवाद तथा तुलनात्मक दृष्टि से ज्यादा स्वतंत्रता थी, जबकि वर्तमान में मीडिया पर सरकारी नियंत्रण बढ़ा है।
स्वतंत्रता से पूर्व यदि थोड़ा अतीत में झांककर देखें तो ज्ञात होता है कि भारतीय समाचार पत्रों, पत्रिकाओं की संख्या बहुत कम थी। भारत में पत्र अल्पजीवी थे। पाठकों की संख्या भी कम थी तथा पत्र का आकार भी बहुत छोटा था ,परन्तु समाचार पत्र को एक 'मिशन' माना जाता था। उद्योग न होकर उसका मुख्य कार्य राष्ट्रीय आन्दोलन में स्फूर्ति पैदा करना, सांस्कृतिक चेतना जगाना, समाज तथा धार्मिक सुधार आन्दोलन में जागृति लाना एवं आध्यात्मिक तथा मानसिक विकास करना था। ये मानव संवेदनाओं से भरपूर होते थे। ये भारतीय जनमानस में व्याप्त जन अंसतोष तथा पीड़ाओं की अभिव्यक्ति होते थे साथ ही ये प्रचार के वाहन थे। भारतीय समाचार पत्र भूमण्डलीकरण या विदेशी पूंजी से पीडि़त न थे, परन्तु अंग्रेजी राज तथा औपनिवेशवाद की तलवार उन पर सदैव लटकी रहती थी। विशेषकर 1857 के महासमर के पश्चात अंग्रेज सरकार ने 1857़,1878, 1910़,1931 तथा 1934 में भारतीय जनवाद का गला घोंटने के लिए अनेक दमनकारी तथा वीभत्स नियम बनाये थे। इसी के निमित्त अनेक राष्ट्रीय नेताओं, विद्वानों एवं पत्रकारों को कठोर सजायें, लम्बे कारावास, देश निकाला तथा जेलों में अनेक यातनायें तक दी गई थीं ।
राष्ट्रीय नेताओं की दृष्टि
ब्रिटिश सरकार में अनेक स्वतंत्रता सेनानियों तथा नेताओं को कष्ट दिये गए परन्तु वे संघर्ष, त्याग और आत्मबलिदान के मार्ग पर चलते रहे। भारत के नेता भारतीय पत्रकारिता को राष्ट्र की संजीवनी बूटी की तरह समझते थे। उन्होंने भारतीय पत्रकारिता का विकास ही नहीं किया बल्कि उसे सशक्त दिशा एवं दृष्टि दी। इस संबंध में यहां कुछ उदाहरण देना उपयुक्त होगा ।
महात्मा गांधी ने 1909 में 'हिंद स्वराज्य' में भारतीय पत्रकारिता के लिए तीन कार्य बताएं- अखबार का एक काम है लोगों की भावनायें जानना और उन्हें जाहिर करना। दूसरा काम है लोगों में जरूरी भावनायें पैदा करना और तीसरा काम लोगों मंे जो दोष हों तो चाहें कितनी मुसीबतें आने पर भी बेधड़क होकर उनको दिखाना। अत: गांधी जी के अनुसार पत्रकारिता का कार्य मानव की सही जनभावना का प्रकटीकरण था। उन्हांेेने अंग्रेजों की पांथिक पुस्तक बाइबिल को व्यंग्य बताया जो उनके अनुसार प्रामाणिक नहीं थी और अंग्रेजों की दुर्दशा का कारण भी थी। महात्मा गांधी ने स्वयं यंग इंडिया तथा हरिजन जैसे पत्रों का सम्पादन किया, जो भारतीय जनभावना के साथ मनोवैज्ञानिक तरीके से जुड़े थे। लोकमान्य तिलक ने 'केसरी' तथा 'मरहम' पत्रों द्वारा जनभावनाओं का प्रकटीकरण किया। ब्रिटिश साम्राज्यवादी पत्रकार वेलेंटाइन शिरोल इसी कारण उन्हें भारतीय असन्तोष का जनक कहता था। उन्हांेने अपने पत्रों में राष्ट्रीयता की धर्म तथा स्वराज्य को अपना जन्मसिद्व अधिकार बताया। उन्हांेने 'मरहम' में लिखा -'मैं एक उदारवादी हिन्दू हंू और सर्वदा सुधारों का समर्थक हूं, विद्रोह का नहीं।' ( देखें-'मरहम', 20 सितम्बर, 1896) उन्हांेने पढ़े- लिखे लोगों के नेतृत्व के लिए जनता व समाज में मिलने-जुलने तथा उनकी आवश्यकताओं को ध्यान देने को प्रमुखता दी ( देखें 'केसरी ' 8 सितम्बर, 1896)। पंजाब में लाला लाजपतराय ने स्वयं 1920 में दैनिक उर्दू पत्र वन्देमात् भ् ारम् चलाया। वे मजदूरों एवं श्रमिकों के नेता थे तथा उनकी दशा सुधारना चाहते थे। वे यूरोपीय ढंग की प्रचलित मजदूरोंे की दुर्दशा के विरुद्ध थे। उन्हांेने सत्यता तथा निष्पक्षता को अपने पत्र का आधार बनाया। धनिकांे की बिना चिंता किये गलत कायोंर् की अपने पत्र में कटु आलोचना की। 1920 में वन्देमातरम् में उन्होंने अपने एक लेख में पत्र का उदेेश्य लिखा-
मेरा मजहब हक परस्ती ( सत्य की उपासना) है मेरी मित्रता कौम परस्ती (राष्ट्र की पूजा) है मेरी इबादत (पूजा)- खलक परस्ती ( विश्व की उपासना) है मेरी अदालत- मेरा अन्त:करण है।
मेरी जायदाद- मेरी कलम है। मेरा मंदिर- मेरा दिल है।
मेरी उमंगें सदा युवा रहना है।
1925 में जन आंकाक्षाओं की पूर्ति के लिए अंग्रेजी मंे एक साप्ताहिक पत्र 'द पीपुल्स' भी चलाया, जो शीघ्र ही भारत में विख्यात हो गया।
ाारतीय पत्रकारिता को दिशा देने में प्रसिद्ध राष्ट्रवादी विपिन चन्द्र पाल तथा महर्षि अरविन्द का नाम प्रमुख है। अगस्त 1908 में कोलकाता से 'वन्देमारतरम्' पत्र प्रारम्भ हुआ। यह पत्र तत्कालीन युवा क्रांतिकारियों तथा राष्ट्रवादियों की भावना का दिग्दर्शक था। महर्षि अरविन्द ने पत्र की नीति स्पष्ट करते हुए लिखा- 'हिंंसा का हिंसा से सामना करना, अन्याय की पोल खोलना और अपना विरोध करना, अत्याचार के आगे सिर झुकाने से इंकार करना, छल-कपट और विश्वासघात को दूर करना, बहिष्कार तथा स्वदेशी को प्रोत्साहन देना, वन्देमातरम् की नीति के मुख्य फलक हंै।'(एम.पी.पंडित कृत श्री अरविन्द पृ़ 94)। इसी तरह महामना मदनमोहन मालवीय ने 'हिंदुस्थान', अभ्युदय लीडर', मर्यादा आदि पत्रों का सम्पादन कर सम्पूर्ण भारत में एक राष्ट्रीय का शंखनाद किया। उन्हें प्राय: भारतीय पत्रकारिता का प्रकाश स्तंभ माना जाता है। प्रसिद्ध पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने नवम्बर 1913 में 'प्रताप' के माध्यम से नवयुवकों में क्रांतिकारी तथा देशभक्ति का संचार किया। प्रताप के अंक में महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखी पंक्तियां होती थीं ( देखें- सुरेश सलील कृत अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी पृ़ 251)।
जिसको न निज गौरव, निज देश का अभिमान है वह नर नहीं नरपशु निरा है और मृतक समान है।
वस्तुत: ये पंक्तियां 'प्रताप' पत्र का सिद्धान्त बन गई थीं। प्रसिद्ध विद्वान एस. नटराजन ने भारतीय पत्रकारिता का इतिहास बताते हुए विविध समाचार पत्रों, पत्रिकाओं का विवरण देते हुए तत्कालीन पत्रकारों की निर्भीकता तथा निष्पक्षता का वर्णन किया है।(देखें-पुस्तक, ए हिस्ट्री ऑफ दि प्रेस इन इंडिया ) । प्रसिद्व विद्वान एच.पी घोष का कथन है कि किसी भी पत्र का उद्देश्य धन प्राप्ति न था, बल्कि राजनीतिक, सामाजिक जागरण तथा जनभावना का सही प्रस्तुतीकरण था। इन पत्रों की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका भारत के स्वतंत्रता युद्ध में एक ठोस ईमानदार तथा देशव्यापी लहर पैदा करना थी। (देखें -एच. पी. घोष, द प्रेस एण्ड प्रेस लॉ पृ.98)
समय की मांग
नि:संदेह समाचार पत्रों के बाजारीकरण, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पूंजी तथा एक उद्योग- व्यवसाय के रूप में बढ़ने से छोटे तथा मध्यम श्रेणी के पत्रांे के लिए एक बड़ा संकट खड़ाहो गयाा है। इसके लिए आवश्यक है कि इस क्षेत्र में 26 प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश की इजाजत न दी जाए। पत्र-पत्रिकाओं को जनभावनाओं का सन्देश वाहक ही बने रहने दिया जाये, न कि उपभोग की भूख को शांत करने का अस्त्र। जगन्नाथपुरी के शंकराचार्य ने भोपाल के एक विश्वविद्यालय मंे बोलते हुए, कहा 'सुमंगल अतीत की समीक्षा करते हुए उज्ज्वल भविष्य की संरचना में पत्र साहित्य का उपयोग तथा विनियोग ही, यह आवश्यकता है।( देखें- पत्र-साहित्य का धर्म पृ. 31)। भारतीय पत्रकारिता का मुख्य कार्य जन भावना मंे राष्ट्रहित सवार्ेपरि की भावना जगाना होना चाहिए। साथ ही जन-जीवन से जुड़े विभिन्न पक्षों को सत्यता तथा निष्पक्षता से रखना अनिवार्य आवश्यकता है। – डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
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