संस्कृति सत्य - लुटेरों के राज में फला-फूला लूथेरन चर्च का मतांतरण
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संस्कृति सत्य – लुटेरों के राज में फला-फूला लूथेरन चर्च का मतांतरण

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Dec 15, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Dec 2014 12:37:39

पिछलेे कुछ वषोंर् में भारत में सक्रिय ईसाई संगठनों द्वारा तेजी से मतांतरण का कुचक्र चलाया गया है। इस कारण देश के सामने एक बड़ी चुनौती उठ खड़ी हुई है। 'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक ने हमें जिस महत्वपूर्ण बिन्दु के संदर्भ में आगाह किया है, उनमें एक है 'गुरुकुल लूथेरन'मत। 'गुरुकुल' नाम भारत में लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए अपनाया गया है। पिछले 300 वर्ष से इस देश के विभाजन एवं पश्चिमी लोगों द्वारा यहां मतांतरण के लिए अनुकूल भूमि तैयार करवाने में लूथेरन मत का स्थान शायद सबसे ऊपर है। दुर्भाग्य से हमारे यहां मतांतरण की समस्या अभी तक राष्ट्रीय समस्या नहीं मानी जाती। लेकिन इस संस्था ने पिछले कुछ वषार्ें में 'वर्ल्ड काउंंसिल ऑफ चर्चेस' नामक वैश्विक स्तर के संगठन में 'अंतरराष्ट्रीय वंचित' के संबंध में एक विषय उठाया है। आज तक इन संगठनों की पृष्ठभूमि यही रही है। वंचितों की समस्या सुलझाना यानी उनका मतांतरण कर स्वतंत्र 'दलितस्थान' की मांग करना। डा. बाबासाहेब अंबेडकर ने भी इस बारे में सचेत किया था कि मतांतरण से राष्ट्रांतरण होता है जो इस देश के लिए सही नहीं है। अंग्रेजों एवं ईसाई मिशनरियों के काम की शैली इस देश को परावलंबित करना एवं गुलामी के लिए तैयार करना है।
भारत में जो अनेक ईसाई धाराएं मतांतरण में जुटी हैं, उनमें लूथेरन अति-आक्रामक रीति से यानी अतिरेकी मार्ग का अवलंबन कर मतांतरण करने में सबसे आगे है। भारत में इस मत की जडें़ जमे 300 वर्ष बीत चुके हैं। ़इस पंथ का काम मुख्य रूप से तमिलनाडु एवं दक्षिण के राज्यों में है। लगभग 70 वर्ष पूर्व एवं उसके बाद भी महात्मा गांधी ने आजादी से पहले इस मत के अनुयायियों से मतांतरण न करने की अपील की थी। उस समय के बिशप जोहान्स संडेग्रेन ने उस अपील को नकारते हुए टिप्पणी भी की थी कि महात्मा गांधी इस मतांतरण को रोककर समाज में विष फैला रहे हैं। महात्मा गांधी की इस भूमिका का दक्षिण भारत में बडे़ पैमाने पर स्वागत हुआ था। इनमें अनेक ईसाई संगठन भी थे। लेकिन यह विरोध बढ़ेगा, यह डर लूथेरन पंथियों को था। उसी दौरान डा़ बाबासाहेब अंबेडकर हिंदुओं में छुआछूत मिटाकर व्यापक हिंदू समाज में सब सहभागी हांे, इस उद्देश्य से जुटे हुए थे। उनका वह काम भी लूथेरन पंथ के लिए उपद्रवकारी हो सकता है, यह बिशप संडेग्रेन का विचार था। उन्हें डर था कि वंचित और उच्च जाति के हिंदुओं के बीच भेद खत्म हो गया तो मतांतरण पर अनजाने ही प्रतिबंध लग जाएगा।
लूथेरन पंथ का काम आज पूरे देश में फैला है। फिर भी तमिलनाडु में उनका किया काम इस बात का सबूत है कि ईसाई मिशनरी कितने आक्रामक हो सकते हैं। जर्मन विचारक मार्टिन लूथर ने 400 वर्ष पूर्व ईसाई मत की पापमुक्ति के प्रमाणपत्रों के विरोध में विद्रोह करते हुए अलग पंथ की स्थापना की थी। ईसाइयों को केवल आध्यात्मिक काम करना चाहिए, इस भूमिका के साथ स्थापित हुए इस मत ने भारत में मतांतरण के लिए अतिरेकी मार्ग को भी स्वीकार किया। इसी का असर था कि पिछली सदी में ब्रिटिशों की जडे़ं भारत में गहरे तक गईं। यूरोपीय उपनिवेशकों की जडें़ भारत में गहरी हों, इसके लिए हर तरह के प्रयास एवं परिश्रम लूथेरन मत ने किए। 'गुरुकुल लूथेरन'की यह विशेषता थी कि वह ब्रिटिशों को साम्राज्य खड़ा करने में यथासंभव मदद करने वाले सेरामपूर कॉलेज से संबंधित थी। एम. हजारिया और एम. एम. थॉमस वे महत्वपूर्ण नाम हैं जिन्होंने दुनियाभर में इन संस्थाओं के कामों यानी तमिल लोगों का भारतीय होने से अधिक स्वतंत्र परिचय कराए जाने की आवश्यकता है, को जगह-जगह उठाया। उसी तरह यूरोप एवं अमरीका में द्रविड़ आंदोलन और तमिल आंदोलन को समर्थन देने वाली संस्थाएं भी बनाईं।
भारत में काम करने वाले इस मत की मूल संस्था का नाम 'लूथेरन वर्ल्ड फेडरेशन' है। पिछले 25-30 वषार्ें में इस संगठन का नाम एलटीटीई संगठन से भी जोड़ा गया। भारत में इस मत का काम सन् 1706 मेंं शुरू हुआ। स्वतंत्रता पूर्व यह संगठन जितना आक्रामक था उतना ही आक्रामक यह स्वतंत्रता के बाद भी है। भारत के विरोध में यूरोप में, खासकर संयुक्त राष्ट्र संघ में मुहिम छेड़ने में यह संगठन हमेशा अग्रणी रहता है। भारतीय समाज विभाजित हो और ईसाईकरण के लिए अनुकूल वातावरण बने, यह इस संगठन का हमेशा प्रयास रहा है। यूरोप के अग्रणी देश, अमरीका की संस्थाएं और अन्य बड़ी वैश्विक संस्थाओं से यह संगठन बडे़ पैमाने पर मदद लाता है। भारतीय समाज में जो घटक विभाजनवादी स्वभाव के हैं उन्हें संगठित करने, उनसे संपर्क बढ़ाने और उन्हें यूरोप के अन्य ईसाई संगठनों से जोड़ने का उनका हमेशा से ही प्रयास रहा है। इसी के आधार पर भारत के विरोध में पूरे विश्व में अपीलें करना, विरोध प्रदर्शन करना आदि उनकी हरकतें चलती रहती हैं।
भारत में इस मत का प्रचार 1706 में बाथार्ेलोम्यो जिगेनबाल्ग नामक मिशनरी ने शुरू किया था। यह काम करने के लिए उसे डेनमार्क के राजा फ्रेड्रिक चतुर्थ ने भेजा था। शुरू के कुछ वर्ष उसने तारीफें करनी शुरू कीं कि हिंदू बडे़ ही शांत स्वभाव वाले, सद्गुणी और प्रामाणिक होते हैं। हिन्दुओं का विश्वास कुछ हद तक जीतने के बाद उसने हिंदुओं में दोष निकाले। फिर उनका मतांतरण करने के लिए माहौल तैयार करने का प्रयास शुरू किया। मूर्र्ति-पूजा की आलोचना करना उनके काम का पहला चरण था। उसने अपनी डायरी में लिखा, 'मैं स्वयं अनेक मंदिरों से मूर्तियों को गायब करता था अथवा तोेड़ता था। मूर्र्ति-पूजा मनुष्य को नपुंसक बनाती है। वह संकट से तो बचा ही नहीं सकती है'। ऐसा वह खुलेआम कहा करता था। वह श्रद्धालुओं का 'देहाती धर्म का पालन करने वाले' कहकर मखौल उड़ाता था। इस संस्था का 300वां स्थापना दिवस भारत में जर्मन राजदूत की उपस्थिति में मनाया गया था। उस समय जर्मनी के कुछ चर्च संगठनों के साथ सहमति पत्र तैयार किया गया था।
भारत के अन्य राज्यों एवं तमिलनाडु में काम के बीच महत्वपूर्ण फर्क यह है कि वे यह मानकर ही सभी चीजें करते हैं कि 300 वर्षों के प्रयास से ये सारा प्रदेश ईसाई देश है। आज विश्व में वर्तमान में दो अरब ईसाई जनसंख्या को तीन अरब में परिवर्तित करने की बड़ी मुहिम जारी है। अगले कुछ वषार्ें में चीन में भी 25 करोड़ और भारत में भी उतने ही ईसाई होने चाहिएं, यह उद्देश्य सामने रखकर वे काम कर रहे हैं। इसलिए इससे पहले इन संस्थाओं ने 200-300 वर्ष पूर्व किस तरह काम शुरू किया था, उसे समझना काफी मायने रखता है। पहले यहां के समाज के लिए प्रशंसाभरी भाषा, बाद में दोष निकालने वाली भाषा और उसके बाद संबंधित समाज के विरोध में आक्रामक होने की भाषा का यह क्रम समझ लेना आवश्यक है।
हमारे यहां आज भी कुछ तथाकथित सेकुलर विचारकों का मानना है कि अगर वे मतांतरण करते हैं तो उसमें बुरा क्या है, हर एक को अपनी अपनी मर्जी के अनुसार अपना पंथ चुनने का अधिकार है। इस तरह के लोगों को दो उत्तर देने आवश्यक हैं। एक तो यह कि इसी मतांतरण के आधार पर उन्होंने भारत और विश्व के अनेक देश अपने गुलाम बनाए। 300 से 500 वर्ष के दौरान उनके द्वारा की गई लूट हमारे पूर्वजों की मेहनत से इकट्ठी की गई खून-पसीने की कमाई थी। इसी तरह यह लूट कुल 100 से अधिक देशों में की गई। भारत के संदर्भ में तो यह समस्या अधिक गंभीर है, क्योंकि इस देश में आक्रमण का काल 1000 वर्ष का है। उस दौरान आक्रामकों ने हमें उनके विरोध में खडे़ होने का प्रयास नहीं करने दिया। जिन्होंने प्रयास किया उन्हें शहीद होना पड़ा। 1000 वर्ष की उस गुलामी के विरोध में किसी भी शक्ति को संगठित नहीं होने दिया। इसलिए इस समाज का आज हर काम उनकी हर हरकत के भावी परिणामों की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए होना आवश्यक है।सबसे पहले ध्यान रखना होगा कि इन आक्रामकों के इतिहास का आकलन केवल वर्षों का स्मरण करके नहीं होगा। उन्होंने आक्रमण किस तरह किया, पराजय की संभावना होने पर उन्होंने कौन सी आक्रामक भूमिका अपनाई तथा पूरा वातावरण किस तरह बदल डाला, इन छोटी-छोटी बातों पर भी गौर करना होगा। उस दृष्टि से लूथेरन मत के जिगेनबाल्ग, जेवियर एवं जिहादी आक्रमण के महत्वपूर्ण घटक अहमदशाह अब्दाली, जिसने पानीपत पर चढ़ाई की थी, के जीवन की कुछ बातें हमें ध्यान में लेनी चाहिए। अहमदशाह अब्दाली लूथेरन मत के इतिहास का हिस्सा नहीं है, लेकिन ये मजहबी आक्रमण जब अधिक परिणामकारी होते हैं तब उनके अपनाये गए मार्ग का सामरिक महत्व-युद्धशास्त्र की दृष्टि से-क्या है एवं उसके परिणाम क्या होंगे, इनका विचार करना होगा। युद्धभूमि में पराजय सामने दिखने के बाद अब्दाली ने सभी सैनिकों को वहीं बैठकर अपने अपने खुदा को गुहार लगाने का आदेश दिया था। उसने भी गुहार लगाई। उसके बाद उसने बेहद आक्रामक होकर हमला बोला और जीत गया। उस घटना पर इतिहास की पुस्तक के एक उल्लेखनीय पन्ने की तरह गौर किए बिना नहीं चलेगा। हमें उसमें देखना चाहिए कि लड़ाई शस्त्र के बल पर नहीं, मजहब के बल पर जीती गई थी। इस तरह की भविष्य में घटने वाली घटनाओं के प्रति आज क्या विचार चल रहा है, उस पर भी ध्यान देना आवश्यक है। योगयुक्त अंत:करण से किए गए काम अधिक प्रभावी होते हैं, यह तो भारतीय योगशास्त्र भी प्रमाणित करता है। फिर उस योगयुक्त अवस्था का अभ्यास हम आज से ही अपने प्रतिदिन के कामों में करें तो समय पर वह विषय हमारे हाथ में होगा। यह स्पष्ट हो चुका है कि हर मिशनरी अपने काम में यह चीज अपनी पद्धति से प्रयुक्त करता है। जेेवियर द्वारा मतांतरित किए जाने वालों की संख्या कुछ लाख मानी जाती है। उसकी तैयारी करने के लिए वह फांसी की सजा सुनाए गए कैदियों के बीच बैठता था। लूथेरन मत का भारत में आने वाला मिशनरी जिगेनबाल्ग 23 साल की आयु में भारत आया एवं 37 साल की उम्र में उसका निधन हुआ। केवल 14 वर्ष में, वह भी छोटी उम्र में उसने जो काम किया उसे केवल कुछ वषार्ें तथा मतांतरण के आंकड़ों से नहीं समझा जा सकता। इस जिगेनबाल्ग ने पूरे विश्व में फैला दिया था कि तमिल प्रदेश ईसाइयों का स्वतंत्र देश है एवं हम अपना अस्तित्व स्वतंत्र रूप से प्राप्त करेंगे। यह वही व्यक्ति था जो यूरोप की मुद्रणकला भारत में लाया था। -मोरेश्वर जोशी

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