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एक समय था जब अपने समाज में नारी दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी रूपा थी। अन्नपूर्णा रूप में भी नारी का वर्चस्व ही समाज स्वीकार करता था। मेरा मानना है कि अन्नपूर्णा का तात्पर्य किसी ऐसी देवी से नहीं है जो कहीं ब्रह्मलोक से धन आदि लाकर लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करती थी अथवा छप्पर फाड़कर अन्न-धन बरसा देती थी; एक अच्छी गृहिणी और अच्छी मां ही अपने परिवार का भरण-पोषण मेहनत और ईमानदारी से कमाए सीमित धन से कर देती थी। समय बदला। विदेशी और विधर्मी शासकों के अत्याचारों का शिकार भी हमारी बेटियां हुईं। यद्यपि ऐसी भी लाखों वीर महिलाएं थीं, जिन्होेंने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अग्नि की गोद में समा जाना स्वीकार किया, लेकिन अपने सम्मान पर आंच नहीं आने दी।
ब्रिटिश शासकों से संघर्ष के युग में यद्यपि समाज में महिलाओं पर बहुत सारी धार्मिक और सामाजिक पाबंदियां थीं, फिर भी कहीं से रानी लक्ष्मीबाई, कहीं से रानी गाइदिंल्यू, कनकलता, दुर्गा भाभी, कैप्टन लक्ष्मीबाई जैसी हजारों वीरांगनाएं राष्ट्र-पटल पर कर्म करती हुई इतिहास के पन्नों पर छा गईं।
स्वतंत्रता के साथ ही भारत के संविधान में महिलाओं को समानता का अधिकार दिया गया। लिंग के आधार पर कोई भी भेदभाव अपराध हो गया। शिक्षा मंदिरों के दरवाजे खुल गए और भारत की बेटियों ने सागर से लेकर आकाश तक की गहराइयों और ऊंचाइयों को नाप लिया। पर इसी बीच यह दुखद दृश्य भी देखने को मिला कि सामाजिक जीवन की मर्यादाओं को तार-तार करते हुए स्वतंत्रता स्वच्छंदता हो गई। कड़वे करेले पर नीम यह चढ़ी कि देश के कानून ने भी उस जीवन पद्घति को मान्यता दे दी जो न तो महिलाओं के हित में है, न ही समाज जीवन के पक्ष में।
जिस समाज में विवाह संस्कार में बंधे पति-पत्नी इस लोक में सात जन्म तक साथ निभाने का ही नहीं तो परलोक की यात्रा को भी सुखद बनाने का संकल्प निभाया करते थे उसी समाज में विवाहेतर संबंधों को मान्यता दी जाने लगी। अफसोस की बात तो यह रही कि कोई भी स्त्री और पुरुष पति-पत्नी के रूप में रहने लग जाएं तो देश के सवार्ेच्च न्यायालय की दृष्टि में भी वह अपराध न रहा! इससे भी बढ़कर अति तो तब हो गई जब मध्य प्रदेश की एक अदालत ने वैध विवाह सूत्र में बंधे पुरुष को 'लिव इन' यानी बिना विवाह उसके साथ रह रही महिला को घर ले जाने, धन और समय बांटकर देने तथा इस सहजीवन संबंध से उत्पन्न महिला के बच्चों को भी संपत्ति में अधिकार देने की बात कही। कौन नहीं जानता कि देश में ऐसी बहुत सी युवतियों और महिलाओं को अपने जीवन से हाथ केवल इसलिए धोना पड़ा कि पहले वे तथाकथित प्रेम संबंधों अथवा सहजीवन के जाल में फंस जातीं और उसके पश्चात पुरुष मित्र उनसे छुटकारा पाने के लिए उनका जीवन तक समाप्त कर देते।
अभी ताजी घटना है। मणिपुर की एक बेटी दिल्ली में तथाकथित सहजीवन अर्थात बिना शादी किए किसी पुरुष के साथ रह रही थी, शराब की पार्टियां दोस्तों के साथ घर में होती थीं। अंत में वह मौत का शिकार हो गई। अच्छा हो भारत सरकार ये आंकड़े बताए कि कितनी लड़कियां और कितने परिवार इस बुराई का शिकार हुए। सरकार यह भी बताए कि इन अवैध संबंधों को मान्यता देने के पीछे सरकारी मंशा क्या है? आश्चर्य है कि देश के बुद्घिजीवी और राजनेता इस सामाजिक ह्रास को देखकर भी खामोश रहे। मैं नहीं समझ पाई कि यह उनकी अज्ञानता थी अथवा कोई हित इस बुराई से जुड़ा था? स्वतंत्रता और स्वछंदता के नाम पर इस देश के मीडिया ने भी उस दशा और दिशा का समर्थन किया जिस स्थिति में वह स्वयं अथवा अपने परिजनों को कभी देखना पसंद न करता। भारत की बेटियों को विज्ञापनों की दुनिया में बाजार में बिकने वाली वस्तु बना दिया गया। नारी को अश्लील विज्ञापनों का केंद्र बना दिया गया। मनोरंजन की दुनिया में भी जितने कम कपड़ों में एक लड़की परदे पर ही नहीं, मंच पर आ जाए उतना ही उसका मूल्य बाजार में बढ़ गया। इस स्थिति को स्वतंत्रता कहा जाए अथवा कीचड़ की ओर धकेलने वाला कदम, यह निर्णय आज तक इस देश के शासक और सवार्ेच्च पदों पर बैठे अधिकारी नहीं कर पाए हैं। अब हालत इतनी बिगड़ी कि प्रेम संबंधों को निभाने के लिए माता-पिता की हत्या कर देना भी कोई बड़ी बात न रही। आज तक यह तो सुना था कि प्रेमी से मिलकर पत्नी ने अपने पति की हत्या कर दी अथवा पत्नी के अवैध संंबंधों से दुखी पति ने आत्महत्या कर ली।
यह भी होता रहा है कि माता-पिता उस बेटी का जीवन समाप्त कर देते हैं जिस बेटी के विवाहेतर संबंधों को वे अपनी सामाजिक इज्जत के विरुद्घ मानते हैं। पर अब तो यह होने लगा कि प्रेम संबंधों में बाधक बने माता-पिता को बेटियां ही मारने-मरवाने लगी हैं। पंजाब के रोपड़ और तरनतारन जिलों में ऐसी ही घटनाएं कुछ समय पहले हो चुकी हैं। देश के अन्य भागों से भी ऐसी दुर्घटनाओं के दुखद समाचार मिलते रहते हैं। लेकिन वडोदरा की घटना ने तो देश की आत्मा तक कंपा दी है। एक ऐसी बालिका जिसे उसके माता-पिता ने तब गोद लिया था जब वह केवल दो मास की थी, लाड़-प्यार से पालकर जिस बेटी को अपने भविष्य का आधार माता-पिता ने बनाया वही बेटी केवल 16 वर्ष की आयु में एक युवक को प्रेमी बनाकर माता-पिता की कातिल बन गई। ऐसा कभी नहीं सुना गया कि दो महीने तक उन दोनों की लाशें घर में बंद रखी गईं और धीरे-धीरे तेजाब डालकर उनके शरीर को मिटाने का, यूं कहिए पहचान खत्म करने का प्रयास किया गया। आखिर अब कानून के शिकंजे में यह कलियुगी बेटी प्रेमी सहित पहुंच गई है। प्रश्न यह पैदा होता है कि यह उच्छृंखलता समाज को कहां ले जाएगी? स्त्री और पुरुष के प्रेम संबंध सृष्टि के आदिकाल से हैं। निश्चित ही इन्हीं संबंधों से सृष्टि-सृष्टि को जन्म देती है। भारतीय समाज उच्छृंखल संबंधों का तो विरोधी रहा है, पर हमारे देश में विवाह संबंधों को जितना आदर और सम्मान दिया गया वह इसी भावना को प्रकट करता है कि युवक-युवती, पति-पत्नी के रूप में जीवनयापन करें, संतान पैदा करें और आने वाले समय के लिए अच्छे नागरिक देश को दें। जब कभी कोई संस्था अथवा कानून इन अवैध संंबंधों पर रोक लगाने की बात करता है अथवा कुछ सामाजिक संगठन उन लोगों पर शिकंजा कसते हैं जो सरेआम बाग-बगीचों में, सार्वजनिक स्थानों पर अश्लील हरकतें करते हैं तो हमारे बहुत से मीडिया के तथाकथित आधुनिकतावादी उनकी निंदा करते हैं, उन्हें 'नैतिकता की ठेकेदार पुलिस' कहते हैं। उनसे यह सीधा सवाल है कि क्या वे अपने परिवार के बच्चों और भाई-बहनों को इस स्थिति में देखना पसंद करेंगे?
प्रश्न यह है कि हमारे बच्चों को परिवारों द्वारा दिए जा रहे संस्कारों अथवा विद्या मंदिरों द्वारा प्रदत्त शिक्षा में कहां कमी रह गई, जो हमारे बेटे-बेटियां अपने सामाजिक जीवन की मान्यताओं से दूर हो रहे हैं? यह समाचार चिंता पैदा करता है कि बड़े-बड़े शहरों में ही नहीं, अपितु अब छोटे नगरों में भी 'रेव पार्टियों' में किशोरावस्था के लड़के-लड़कियां वे सब हरकतें करते पकड़े जाते हैं जो किसी भी प्रकार न तो उनके अपने जीवन के लिए सही हैं और न ही अच्छे समाज के निर्माण में किसी भी प्रकार उपयोगी हो सकती हैं। आखिर क्यों स्कूली शिक्षा पूरी करते-करते ही युवक ही नहीं, युवतियां भी नशों की शिकार हो रही हैंं? कहां कमी रह गई जो विश्वविद्यालय और कॉलेज की दहलीज पार करते ही नशों की दलदल में फंसे युवक-युवतियां अनेक अपराध करते दिखाई देते हैं? यह भी तो सच है कि अपनी अनुचित सुख-सुविधाओं का प्रबंध करने के लिए अब बहुत सी लड़कियां वे काम करने लगी हैं जो किसी भी तरह से उचित नहीं कहे जा सकते और न ही उनका परिवार और समाज उनके ऐसे भटके कदमों का कभी समर्थन करेगा। दुख की बात यह है कि हमारी कुछ युवतियां राजनीतिक और व्यावसायिक क्षेत्रों में आगे बढ़ने की जल्दी में 'शॉर्टकट' रास्ता चुनती हैं, जो उन्हें विनाश और गंदगी की दलदल में फंसा देता है, जिसके बाद पीछे मुड़ने का उन्हें कोई रास्ता नहीं मिलता।
पंजाब के ही कुछ नगरों व महानगरों में यह कुदृश्य देखने को मिले कि भरे बाजार में युवतियां मोटरसाइकिलों पर सवार होकर चीखतीं, शोर मचातीं और शराब के नशे में धुत गिरती दिखाई दीं। क्या इसके लिए उनके माता-पिता अपराधी नहीं? हमारी शिक्षण संस्थाएं भी तो इसके लिए दोषी हैं। क्या यह सच नहीं कि विश्वविद्यालयों, स्कूलों और कॉलेजों के बहुत से अध्यापक ऐसे हैं जो स्वयं भी अनेक प्रकार के नशों का सेवन करते हैं, शराब तो उनके लिए अब नशा रहा नहीं? जिस देश में गुजरात को छोड़कर शेष ज्यादातर प्रांतों की सरकारें मद्यपान को एक तरह से उकसाती हों वहां अपराध और दुराचार से मुक्ति मिल भी कैसे सकती है। बड़ी हिम्मत करके अब केरल की सरकार ने शराब पर प्रतिबंध लगाने का एक प्रयास किया है। कितना अच्छा हो अगर सभी प्रांतों की सरकारें जनहित में ऐसे ही कदम उठाएं।
अब देश में शासन और प्रशासन के क्षेत्र में बहुत बड़ा बदलाव आया है। अब आशा की जानी चाहिए कि नई सोच के साथ समाज जीवन के लिए कुछ ऐसे कानून भी बनेंगे जो देश को प्रगति की दिशा में तो ले जाएं। साथ ही नागरिकों का जीवन भी स्वच्छ, समानतापूर्ण और सुसंस्कारित हो। याद रखना चाहिए कि गंगा जैसी पतितपावनी नदी भी तभी तक पवित्र है जब तक किनारों की मर्यादा में रहती है, अन्यथा किनारों से बाहर जो जल निकल जाए वह या तो कीचड़ कहा जाता है या विनाशक बाढ़।
– लक्ष्मीकांता चावला
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