आवरण कथा - अब गैर नहीं रहे परदेस में बसे भारतवंशी 
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आवरण कथा – अब गैर नहीं रहे परदेस में बसे भारतवंशी 

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Nov 24, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 24 Nov 2014 13:05:15

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आस्ट्रेलिया दौरे की खूब चर्चा हर स्तर पर हो रही है। बाद में वे फिजी भी गए। मोदी की फिजी यात्रा से वहां के 44 फीसदी भारतीय मूल के लोगों और दुनिया के चप्पे-चप्पे में बसे भारतवंशियों को सुकून मिला कि कोई है उनका दुख-दर्द सुनने वाला।
प्रधानमंत्री मोदी 19 नवंबर को फीजी पहुंचे। वहां वे प्रधानमंत्री रियर एडमिरल (सेनि) फ्रैंक बेनीमारामा से मिले। वे वहां बसे भारतवंशियों से भी मिले। एक लंबे अंतराल के बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री फिजी गया था इसलिए गजब का उत्साह था। 1981 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी वहां गई थीं। 33 साल बाद अब प्रधानमंत्री मोदी की फिजी यात्रा वास्तव में ऐतिहासिक रही। फिजी में बसे भारतवंशी इस यात्रा से बेहद उत्साहित हुए।
दरअसल फिजी के भारतीय मूल के पूर्व प्रधानमंत्री महेन्द्र चौधरी को जिस तरह से बीते सालों के दौरान सत्ता से बेदखल किया गया, उससे वहां के भारतवंशी हिल गए थे। फिजी में कुछेक साल पूर्व महेन्द्र चौधरी सरकार का तख्ता पलट दिया गया था। उसके बाद वहां से भारतवंशियों ने बड़ी तादाद में पलायन करना शुरू कर दिया था। उन्हें कहीं न कहीं महसूस होने लगा था कि अब उनके लिए फिजी में जगह नहीं रही है। चौधरी फीजी के प्रधानमंत्री बनने वाले भारतीय मूल के पहले व्यक्ति हैं। 19 मई 2000 को जार्ज स्पेट के नेतृत्व में विद्रोहियों ने उनकी सरकार का तख्ता पलट दिया था और चौधरी सहित कई प्रमुख लोगों को 56 दिन तक बंधक बना कर रखा था ।
जैसा पहले बताया, फिजी की कुल 820,000 जनसंख्या में लगभग 44 प्रतिशत लोग भारतीय मूल के लोग हैं। इनमें से काफी बड़ी तादाद में लोग अब आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के लिये पलायन कर गए हैं। महत्वपूर्ण है कि19वीं सदी के आखिरी व 20वीं सदी के प्रारंभिक वषोंर् में पूर्वी उत्तर प्रदेश के आंचलिक क्षेत्रों से हजारों लोग रोजी-रोटी की तलाश में फिजी गए थे। इतना लंबा वक्त गुजर जाने के बाद भी उन भारतीयों की आगे की नस्लें भारत से भावनात्मक स्तर पर जुड़ी हैं।
फिजी में भारत से लोग 'गिरमिटिया' यानी अनुबंधित श्रमिक के तौर पर गए थे। लंबी समुद्री यात्रा में कई लोगों को अपने प्राण गंवाने पड़े थे। जीतोड़ मेहनत के साथ पराए देश के लोक-संस्कार, आचार-व्यवहार में स्वयं को जैसे-तैसे ढालकर इन लोगों ने उन वीरान द्वीपों को आबाद कर दिया। फिर वे वहीं के हो गए। उस बात को डेढ़ सौ साल से अधिक हो गए, फिजी उनका घर तो बन गया, लेकिन वे अभी भी अपनी मातृभूमि भारत को ही मानते हैं। पर, अफसोस कि फिजी में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों को आज भी वहां पर विदेशी और दूसरे दजेंर् का नागरिक ही समझा जाता है। फिजी के इतिहास, संस्कृति और लोकजीवन पर भारतीय प्रभाव साफ दिखता है।
फिजी से भारतीय मूल के दो खिलाडि़यों ने विश्व स्तर पर नाम भी कमाया। महान गोल्फ खिलाड़ी विजय सिंह भारतीय मूल के नागरिक हैं। हालांकि अब वे अमरीका में रहते हैं। उन्हें टाइगर वुड्स के बाद दुनिया का सर्वश्रेष्ठ गोल्फ खिलाड़ी माना जाता है। इसी तरह कुछ साल पहले विश्व कप फुटबाल चैंपियनशिप जीतने वाली फ्रांस की टीम में विकास धुरूसु थे। वे भी भारतीय मूल के फिजी से संबंध रखने वाले थे। हालांकि उनके माता-पिता फ्रांस में बस गए थे।
इसमें कोई शक नहीं कि मोदी की फिजी यात्रा से जहां दोनों देशों के संबंधों में मधुरता आई है, वहीं भारतवंशियों में यह अहसास गहरा हुआ है कि सात समंदर पार उनकी खैरियत पूछने वाला कोई है। एक बात और। प्रधानमंत्री का पदभार संभालने के बाद नरेन्द्र मोदी जिस देश में भी गए, वे वहां पर रहने वाले भारतीय मूल के लोगों से जरूर मिले। उनके मसलों को सुना और उन्हें हल करने का वादा भी किया।
पता नहीं क्यों पहले कभी इस तरह से नहीं हुआ था। मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद इराक में फंसे भारतीयों में निकालने की जिस तरह से कोशिशें हुईं उससे साफ है कि अब दुनिया के चप्पे-चप्पे में बसे भारतीयों के हितों को देखने वाली सरकार आ गई है नई दिल्ली में। कुछ साल पहले सोमालिया के समुद्री डाकुओं ने उस समुद्री जहाज का अपहरण कर लिया था, जिसमें काफी संख्या में भारतीय भी थे। जिनके परिजनों को लुटेरों ने अगवा कर लिया था, वे सरकार से विनती करते रहे कि उनके अपने संबंधी मुक्त कराए जाएं, पर हमारी सरकार बार-बार उन्हें वादे और आश्वासन देती रही। पल-पल मौत से दो-चार होने होने के बाद इन्हें छोड़ा गया तो मुख्य भूमिका पाकिस्तान के एक प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता ने निभाई। हमारी सरकार कहती रही कि वह डाकुओं से बात नहीं कर सकती,उनकी मांगों को नहीं मांग सकती। जबकि उस पाकिस्तानी मानावाधिकारकर्मी कहना था कि अगर किसी की जिंदगी बचाने के लिए यह सब करना पड़े तो करना चाहिए।
खाड़ी के देशों में लाखों की तादाद में रहने वाले भारतीय श्रमिक इस बात से त्रस्त हैं कि उन्हें वहां पर ले तो जाया गया, पर उन्हें न्यूनतम वेतन और दूसरी सुविधाएं भी नहीं मिल रहीं। वहीं, मलेशिया से आने वाले भारतीय मूल के लोगों की शिकायत रहती है कि वहां उनके साथ दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में व्यवहार किया जा रहा है। वहां पर सौ साल पहले बसने के बाद भी मलेशिया सरकार उनके मंदिरों और दूसरे प्रतिष्ठानों पर लगातार होने वाले हमलों को रोकने की कोशिश नहीं करती। इस संबंध में भारत सरकार को बार-बार शिकायतें करने के बाद भी साऊथ ब्लाक में बैठे अधिकारी सिर्फ इसी जद्दोजहद में लगे रहे हैं कि भारत को संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता कब मिलेगी।
क्या अपने भाई-बंधुओं के साथ देश से बाहर हो रहे इस तरह के व्यवहार को हमें सहन करना चाहिए था? क्या बयानबाजी से ही बात बन जाती? क्या हमारी पहले वाली सरकार की कमजोर विदेश नीति के चलते हमें यह कहने का अधिकार बचता था कि हम उभरती हुई विश्व महाशक्ति हैं? आप किसी भी प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन में हो आइये, आपको दुनिया के कोने-कोने से आने वाले भारतीय अपनी व्यथा-कथा सुनाते ही मिलेंगे।
यहां बताते चलें कि दुनिया में करीब सवा दो करोड़ भारतीय मूल के लोग विभिन्न देशों में रह रहे हैं। सर्वाधिक भारतीय मलेशिया तथा दक्षिण अफ्रीका में बसे हैं। इन दोनों में इनकी तादाद लगभग 25 लाख के आसपास है।
मलेशिया के एक प्रमुख भारतीय मूल के नेता सेम वेल्लू ने एक बार बताया था कि उनके देश में चीनी मूल के लोगों के साथ सरकार किसी तरह की भेदभावपूर्ण नीति अपनाती है, तो चीन सरकार तुरंत सक्रिय हो जाती है। चीन कड़े शब्दों में मलेशिया सरकार को धमका देता है।
खैर,परदेस में रहने वाले भारतीयों के साथ इस तरह की तमाम कहानियां सुनने को मिलती हैं प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन में । पर पहले के माहौल में क्या मजाल कि भारत सरकार का कोई बड़ा नुमाइंदा उन्हें कार्रवाई का भरोसा देता। मंत्री से लेकर अफसर तक सात समंदर पार बसे भारतीयों से अपने देश में और निवेश करने की ही मांग करते रहते हैं। मतलब माल लाओ, बाकी की बातें छोड़ दो। बहरहाल, अब हालात बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। यानी लगने लगा है कि दिल्ली में कोई तो है भारतवंशियों का।
अफ्रीकी देश युगांडा में 70 के दशक में हजारों भारतीयों को वहां के तत्कालीन बर्बर राष्ट्रपति ईदी अमीन ने खदेड़ दिया था। हालांकि दशकों से बसे भारतीय वहां की अर्थव्यवस्था की प्राण और आत्मा थे। तब भी हमारी सरकार ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल नहीं किया ताकि भारतीयों के हकों की रक्षा हो सके। हालांकि विश्व फलक पर हमारी तब वैसी स्थिति नहीं थी जैसी वर्तमान में है,पर हम गुटनिरपेक्ष आंदोलन के तो अगुआ थे ही। भारतीय वहां पर लुटते-पिटते रहे और हम देखते रहे। नतीजा यह हुआ कि वे हजारों की संख्या में कनाडा और ब्रिटेन में जा बसे। निस्संदेह हम अपने नागरिकों के हकों के लिए किसी देश पर आक्रमण नहीं कर सकते, पर उनके हक में खड़े तो हो ही सकते हैं। आखिर भारत की ताकत तो भारतीयों से ही बनती है। -विवेक शुक्ला

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