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सर्द कश्मीर की सियासत गरमाने लगी है। हालांकि 25 नवम्बर से 5 चरणों में होने वाले जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनावों के प्रचार ने अभी जोर नहीं पकड़ा है, लेकिन दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ कश्मीर के अलगाववादी नेता सज्जाद लोन की मुलाकात से कश्मीर सुर्खियों में आ गया। दिल्ली में कश्मीर की राजनीति की बात हो रही है, तो कश्मीर में ये चर्चा है कि आखिर दिल्ली में सत्तासीन हुई भाजपा गठबंधन की नई सरकार जम्मू-कश्मीर से जुड़ी क्या योजना लेकर आगे बढ़ रही है। जम्मू की राजनीति में भाजपा का वर्चस्व हमेशा से रहा है। पर इस बार जो लोग पहले से ही मुस्लिम बहुल कश्मीर में भाजपा की आक्रामक चुनावी रणनीति को देखकर परेशान थे, सज्जाद लोन के साथ प्रधानमंत्री की मुलाकात ने उनके पेशानी पर चिंता की लकीरें कुछ और बढ़ा दी हैं।
भाजपा मिशन 44+ के साथ जम्मू कश्मीर में चुनाव लड़ रही है। सभी जानते हैं कि जम्मू (37) और लद्दाख (04) की सभी सीटें जोड़ लें, तब भी यह संख्या 41 तक पहुंचती है। ऐसे में अगर भाजपा 44+ की बात कर रही है, तो साफ है कि चुनावी रणनीति के उसके राडार पर घाटी की 8 से 10 मुस्लिम बहुल सीटेें भी हैं। इस बीच भाजपा ने कश्मीर की कुछ सीटों पर जिस तरह के उम्मीदवार उतारे हैं, उन्हें देखकर भी इस बात का बखूबी अंदाजा होता है कि पार्टी अपने मिशन को लेकर कितनी गंभीर है।
इनमें सबसे दिलचस्प नाम अमीरा कदल से भाजपा उम्मीदवार डा.हिना भट्ट का है। हिना भट्ट नेशनल कांफ्रंेस के पूर्व सांसद और विधायक मोहम्मद शमी भट्ट की बेटी हैं, जो सरकारी नौकरी छोड़कर पिछले कई वर्षों से समाज सेवा कर रही थीं। हिना भट्ट के अलावा भी घाटी के कई मुस्लिम राजनीतिक कार्यकर्त्ता और नेता भाजपा से जुड़ रहे हैं। स्थानीय सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी की नेता दरक्शन अंट्राबी ने तो अपनी पूरी पार्टी का ही भाजपा में विलय कर दिया है और अपने सैंकड़ों समर्थकों के साथ भाजपा में शामिल हो गईं।
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इस सारी पृष्ठभूमि में सज्जाद लोन जब नरेन्द्र मोदी से मिले, तो इसके कई मतलब निकाले जा रहे हैं। हालांकि भाजपा ने कहा है कि प्रधानमंत्री का अलग-अलग विचारधाराओं से जुड़े देश के नेताओं से मुलाकात करना एक सामान्य प्रक्रिया है। इसलिए इस मुलाकात का कोई राजनीतिक मतलब नहीं निकालना चाहिए। लेकिन खुद सज्जाद लोन ने ऐसे संकेत दिये हैं कि उनकी पार्टी पीपुल्स कांफ्रेंस भाजपा से चुनावी नतीजे आने के बाद, कोई गठबंधन कर सकती है। सज्जाद लोन का यह बयान राजनीतिक विश्लेषकों के इस अनुमान को पुख्ता करता है कि कहीं न कहीं दिल्ली की इस मुलाकात का संबंध जम्मू कश्मीर में भाजपा की पहली सरकार बनाने की कोशिशों से जुड़ा है।
लेकिन इस बारे में अटकलबाजियां करना अभी जल्दबाजी होगी। क्योंकि सज्जाद लोन की पीपुल्स कांफ्रेंस घाटी की करीब 18 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, और इनमें से कितनी सीटें वह जीत पाएगी, यह अभी कहना मुश्किल है। खासकर ये देखते हुए कि बीते कुछ चुनावों में अपवादों को छोड़ दें, तो पीपुल्स कांफ्रेंस से जुड़े उम्मीदवारों को चुनावी जीत नसीब नहीं हुई है। खुद सज्जाद 2009 के लोकसभा चुनावों में बारामूला लोकसभा सीट से हार चुके हैं। पर उन्हें करीब 65000 वोट मिले थे। और इस बार 2014 के लोकसभा चुनावों में उनके उम्मीदवार को 71 हजार से ज्यादा वोट मिले।
चुनावी अंकगणित एक बात है, पर सच तो यह है कि प्रधानमंत्री मोदी से सज्जाद लोन की मुलाकात कश्मीर की राजनीति के लिए एक सुखद संकेत है। इन संकेतों को पढ़ने के लिए हमें सज्जाद लोन और उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को समझना होगा और थोड़ा पीछे जाना होगा, करीब 12 साल पहले।
साल 2002, जम्मू कश्मीर के चुनावी इतिहास में यह साल हमेशा याद रखा जाना चाहिए। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने नये साल के सम्बोधन में जम्मू कश्मीर में निष्पक्ष चुनाव करवाने का संकल्प जताते हुए कहा, 'हमने यह घोषणा की है कि जम्मू कश्मीर का भविष्य वहां के लोग ही तय करेंगे।' उन्होंने कश्मीर में निष्पक्ष चुनाव होंगे यह साबित करने के लिए ऐलान किया कि दुनिया के जो भी देश इन चुनावों की प्रक्रिया को देखने के लिए अपने प्रतिनिधि भेजना चाहें, भेजें, हम उनका स्वागत करेंगे।
प्रधानमंत्री वाजपेयी की यह घोषणा इसलिए बहुत अहम थी क्योंकि कांग्रेस और शेख अब्दुल्ला की शह पर जम्मू कश्मीर के चुनावों में धांधलियों का एक लम्बा इतिहास रहा है। 1987 के विधानसभा चुनावों मे तो चुनावी धांधलियों और ज्यादतियों के चलते ही कई कश्मीरी नौजवान नियंत्रण रेखा पार करके पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में चले गये, और वहां जाकर उन्होंने हथियार उठा लिये।
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पर 2002 में प्रधानमंत्री वाजपेयी के आश्वासन के बाद मुख्यधारा से कट चुके बहुत से अलगाववादी चुनावी राजनीति में फिर से कूदने का मन बनाने लगे थे। घाटी में अलगाववादियों के सबसे बड़े संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस के भीतर भी बेचैनी बढ़ने लगी थी। हुर्रियत के एक नेता जो उस वक्त चुनाव का समर्थन कर रहे थे और भारत सरकार के साथ मिल बैठकर कश्मीर समस्या का राजनीतिक हल निकालने पर सहमत थे उनका नाम था अब्दुल गनी लोन। लेकिन चुनाव से 6 महीने पहले 21 मई 2002 को श्रीनगर के ईदगाह में हुर्रियत कांफ्रेंस की एक रैली के दौरान अब्दुल गनी लोन की हत्या कर दी गई। सज्जाद लोन इन्हीं अब्दुल गनी लोन के बेटे हैं।
अब्दुल गनी लोन की हत्या के बाद कई बातों का खुलासा हुआ। यह पता चला कि वे घाटी से विदेशी आतंकवादियों को बाहर निकालने के पक्ष में थे और इस मुद्दे पर हुर्रियत के कट्टरपंथी नेता सैय्यद अली शाह गिलानी से उनके गहरे मतभेद हो गये थे।
अप्रैल 2002 में अब्दुल गनी लोन शारजाह गये थे। बताया जाता है कि वहां उनकी पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के नेता सरदार अब्दुल कयूम खान और आईएसआई के तत्कालीन चीफ लेफ्टिनेंट जनरल एहसान उल हक से मीटिंग हुई। अब्दुल गनी लोन ने इन बैठकों में दोनों को साफ कर दिया था कि हुर्रियत दिल्ली से सीधे संवाद करने का इच्छुक है। दरअसल लोन को दिल्ली की सरकार और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की नीति और नीयत में ईमानदारी दिख रही थी, इसलिए वे कश्मीर मुद्दे का राजनीतिक समाधान निकालने के लिए दिल्ली से हाथ मिलाने को तैयार हो चुके थे। पर शारजाह में आईएसआई चीफ के साथ इस बैठक के कुछ दिन बाद ही अब्दुल गनी लोन की हत्या हो गई। इस हादसे के तुरंत बाद सज्जाद लोन ने बयान दिया कि उनके पिता की हत्या के पीछे आईएसआई और हुर्रियत के कुछ नेताओं (इशारा-गिलानी की तरफ था) का हाथ है। सज्जाद लोन ने उस वक्त अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने आये सैय्यद अली शाह गिलानी को लगभग धक्का देकर वहां से उलटे पैर भागने को मजबूर कर दिया था। हालांकि बाद में अपनी मां के दबाव में सज्जाद ने बयान बदल दिया। जाहिर सी बात है कि सज्जाद की मां अपने पति को खोने के बाद, बेटे को भी खोना नहीं चाहती थी। पर 2011 में सज्जाद ने एक अंग्रेजी अखबार में लेख लिखा और यह रहस्योदघाटन किया कि उनके पिता की हत्या आईएसआई ने ही करवाई। सज्जाद ने अपने लेख में यह भी स्वीकारा कि पिता की मौत के अगले दिन उनकी मां ने उन्हें बुलाया और रोते हुए बेटे के पैरों में अपना आंचल बिछा कर कहा कि वह अपना बयान वापस ले ले, क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि पति के बाद वे गोलियों से छलनी बेटे की लाश देखें। इसके बाद 2002 से 2014 तक सज्जाद लोन का सफर बहुत उतार चढ़ाव भरा रहा। खरी-खरी बात करने, पाकिस्तान के खिलाफ और चुनाव के पक्ष में बात करने के कारण हुर्रियत कांफ्रेंस से उन्हें निष्कासित किया जा चुका है।
सज्जाद और उनकी बहन शबनम लोन चुनाव लड़े और हार गये। लेकिन उत्तर कश्मीर के कुपवाड़ा और हंदवाड़ा जैसे इलाकों में उनका खासा प्रभाव है। और अब जबकि सज्जाद लोन प्रधानमंत्री से मिले प्रधानमंत्री मोदी को बड़े भाई जैसा बताया और जिस तरह लगातार वह भाजपा नेताओं के सम्पर्क में हैं, उससे ऐसा लगता है कि 2002 में अब्दुल गनी लोन जो काम अधूरा छोड़ गये थे, सज्जाद ने आज उसी मिशन कश्मीर को पूरा करने के लिए दिल्ली के दरवाजे पर दस्तक दी है। और अगर वास्तव में उनका मिशन कश्मीर में शांति बहाली करके लोकतांत्रिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाना, अलगाववादियों को मुख्यधारा में लाना और घाटी में पाकिस्तानी मंसूबों को नाकाम करना है, तो इस मिशन कश्मीर में भाजपा से बेहतर सहयोगी उन्हें और कौन मिलेगा। -अशोक श्रीवास्तव
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