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सतीश पेूडणेकर
महाराष्ट्र में चुनावी जंग का इस बार अलग ही रंग था। ज्यादातर पुराने गठबंधन टूटे और राजनीतिक दल अपने ही दम पर चुनाव लड़े, इसलिए भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस और मनसे के बीच पांच कोणीय मुकाबला हुआ। शायद हर पार्टी यह जानना चाहती थी कि सबसे ताकतवर कौन? इसका जवाब मिल भी गया। अब तक केसरिया गठबंधन का हिस्सा रही भाजपा अपने बूते चुनाव लड़ी और सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी, लेकिन बहुमत से थोड़ी दूर रह गई। राज्य की 288 सदस्यीय विधानसभा में उसे 122 सीटें मिलीं। यह सफलता भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि यें सीटें उसने अपने दम पर हासिल की हैं। बहरहाल, 31 अक्तूबर को फड़नवीस के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने के बाद कितने ही किन्तु-परन्तुओं पर विराम लग गया। हालांकि सरकार गठन से पूर्व शिव सेना द्वारा उसे समर्थन देने, न देने को लेकर कितनी ही चर्चाएं सुनने को मिलीं। नतीजे आने के कुछ ही घंटों के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस ने तो भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा कर दी थी। लेकिन चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के दौरान राष्ट्रवादी कांग्रेस को चुनाव प्रचार के दौरान भ्रष्टाचारवादी पार्टी बताया था इसलिए उसके समर्थन को लेकर पार्टी असमंजस में रही। शुरू से ही भाजपा अकेले, भले अल्पमत की सही, सरकार बनाने का दावा कर रही थी। महाराष्ट्र में पंद्रह वर्षों से सत्तारूढ़ कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की गठबंधन सरकार के खिलाफ व्याप्त जन-असंतोष का भाजपा और शिवसेना को गठबंधन टूट जाने के बावजूद जबरदस्त फायदा हुआ। शिवसेना की सीटों में भी 19 सीटों का इजाफा हुआ। उसकी सीटें 44 से बढ़कर 63 हो गईं। दरअसल राज्य में कोई भी पार्टी इतनी ताकतवर नहीं थी कि अपने बूते बहुमत हासिल कर लेती इसलिए ही तमाम गठबंधन बने थे। भाजपा को लगा था कि वह अपने बूते बहुमत हासिल कर लेगी लेकिन यह सपना पूरा नहीं हो पाया। इसलिए शिवसेनाभी गठबंधन की बात पर आखिरी वक्त तक भ्रम बनाए रही। यहां हम आपको बता दें कि यह पहला मौका है जब केसरिया गठबंधन यानी भाजपा और शिवसेना का मिला-जुला वोट प्रतिशत पचास से ऊपर पहुंच गया है। भाजपा को 27.8 प्रतिशत वोट मिले तो शिवसेना को 19 प्रतिशत।
वैसे चुनावी नतीजों से एक बात स्पष्ट हो गई कि राज्य में कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ जबरदस्त लहर थी। दूसरी तरफ मोदी का जादू अब भी बरकरार है। यदि भाजपा और शिवसेना साथ चुनाव लड़ते तो उन्हें शायद दो सौ बीस से ज्यादा सीटें मिलतीं। चुनाव के दौरान भाजपा ने शिवसेना की कोई आलोचना नहीं की, केवल कांग्रेस नीत गठबंधन को ही अपना निशाना बनाया, लेकिन शिवसेना ने भाजपा को अपना असली प्रतिद्वंद्वी मानकर उसके खिलाफ जमकर जहर उगला था, उसने भाजपा को अफजल खान की सेना तक बताया यह नजरंदाज करते हुए कि केंद्र सरकार में शिवसेना का भी एक मंत्री है और मुंबई नगर निगम में भाजपा के कारण ही उसका बहुमत बना हुआ है। इसके अलावा उसके द्वारा मोदी और शाह को गठबंधन तोड़ने वाले कारकों के रूप में चित्रित किया गया। शिवसेना ने कई आरोप भी लगाए। इस तरह शिवसेना ने गुजरातियों और मराठियों के बीच असमंजस पैदा करने की कोशिश की लेकिन इसका थोड़ा बहुत ही असर हुआ। लेकिन भाजपा ने शिवसेना के खिलाफ कोई आरोप नहीं लगाया।
भाजपा को कोंकण को छोड़कर राज्य के सभी क्षेत्रों में अच्छी सफलता मिली। उसका सबसे बेहतर प्रदर्शन विदर्भ में रहा जहां उसे 44 सीटें मिलीं जो कभी कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। मराठवाड़ा और मुंबई में भी भाजपा को अच्छी सफलता मिलीं। उसके सभी दिग्गज देवेंद्र फड़नवीस, गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे, विनोद तावड़े, एकनाथ खडसे विजयी हुए। इतना ही नहीं उसे समाज के सभी वगोंर् के वोट मिले। इसके बावजूद भी अगर भाजपा बहुमत से दूर रही तो इसकी वजह यह है कि भाजपा के चार सहयोगी दलों-रिपब्लिकन पार्टी (आठवले गुट), स्वराज्य समाज पार्टी, स्वाभिमानी शेतकारी संगठन और शिवसंग्राम को बहुत कम यानी केवल दो सीटें ही मिलीं। इसके अलावा भाजपा ने 50 अन्य पार्टी से आए नेताओं को टिकट दिए थे लेकिन यह रणनीति बहुत कामयाब नहीं हुई। कभी महाराष्ट्र कांग्रेस का मजबूत गढ़ होता था अब वह कांग्रेस का 'पानीपत' हो गया है, जहां उसे बहुत करारी हार का सामना करना पड़ा। अपने गढ़ में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस इतनी बदनाम हो गई है कि यदि शिवसेना-भाजपा गठबंधन न टूटता तो कांग्रेस और राष्ट्रवादी को कुल मिलाकर 40 सीटें भी न मिल पातीं। लेकिन दोनों गठबंधन टूटे और कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस की लाज बच गई और उन्हें 43 और 41 सीटें मिलीं। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि इस हार के लिए कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व और प्रादेशिक नेतृत्व समान रूप से जिम्मेदार है। केंद्र की सत्ता हाथ से जाते ही कांग्रेस के नेता आपसी झगड़ों में उलझ गए, उनसे राजनीतिक सूझ-बूझ और दूरदर्शिता की उम्मीद करना बेकार था।
राज्य के नेतृत्व की हालत तो और भी बदतर थी। कांग्रेस के पास शरद पवार की टक्कर का एक भी नेता नहीं है। कांग्रेस और राकांपा का गठबंधन पिछले पन्द्रह साल से सत्ता में था और वह भ्रष्टाचार और आपसी झगड़ों का पर्याय बन गया था।
कांग्रेस और राकांपा राज्य का विकास करने के बजाय एक दूसरे की टांग खींचने में लगे रहे। राकांपा का आरोप था कि कांग्रेस के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को सरकार चलाना आता ही नहीं था। उनके हाथों में लकवा लगा हुआ है इसलिए वे फाइलें साइन नहीं कर पाते, दूसरी तरफ कांग्रेस का आरोप था कि राष्ट्रवादी कांग्रेस के मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त रहे। दोनों हाथों से राज्य के खजाने को लूट रहे थे।
सरकार में होने के बावजूद दोनों पार्टियां एक दूसरे को फूटी आंख देखना पसंद नहीं करती थीं। कांग्रेस की बात में दम था, राकांपा के कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। इनमें अजित पवार,सुनील तटकरे और छगन भुजबल प्रमुख थे। इन दोनों दलों की कारगुजारियों का नतीजा यह हुआ कि जनता ने इन्हें चुनाव में बुरी तरह ठुकरा दिया।
कांग्रेस इस बार बुरी तरह हारी। उसका प्रमुख गढ़ था मुंबई जहां भाजपा और शिव सेना ही पहले और दूसरे स्थान पर रहीं, कांग्रेस तीसरे पर। कभी विदर्भ कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था जिस पर भाजपा ने पूरी तरह कब्जा कर लिया। यही हाल को कण का भी हुआ जिसे शिवसेना ने फिर जीत लिया। मुंबई और ठाणे के उत्तर भारतीय कांग्रेस का प्रमुख जनाधार माने जाते थे लेकिन उन्होंने भी शिवसेना के साथ गठबंधन टूटने के बाद भाजपा को जमकर वोट दिया। दरअसल एक बात इन चुनावों ने उजागर कर दी कि कांग्रेस का कोई कोर वोट बैंक रह ही नहीं गया है। यह उसकी हार और कमजोर होने की बहुत बड़ी वजह है। चुनाव से पहले माना जा रहा था कि पृथ्वीराज चव्हाण की ईमानदार नेता की छवि कांग्रेस को चुनाव जीतने में मदद करेगी लेकिन वे अपने ही चुनाव में उलझे रहे। वे खुद तो जीत गए लेकिन कांग्रेस की कोई मदद नहीं कर पाए। हालांकि जनमत सर्वेक्षणों में मुख्यमंत्री के तौर पर वे मतदाताओं की पहली पसंद थे। दरअसल कांग्रेस का चुनाव प्रचार इतने ढीले-ढाले तरीके से चल रहा था जिससे साफ था कि सेकुलर दलों ने पहले ही हार मान ली थी। सोनिया हो या राहुल गांधी, सब चुनाव प्रचार को लेकर उदासीन दिखे। ऐसे में आम कार्यकर्ताओं के हौसले टूटे हों तो अचरज कैसा। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि कांग्रेस और राकांपा पहले ही मानसिक तौर पर हार चुके थे।
कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस को एमआईएम ने भी मुस्लिम वोट काट कर नुकसान पहुंचाया। मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एमआईएम) अब केवल हैदराबाद में असर रखने वाली पार्टी नहीं रह गई है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में उनके दो उम्मीदवार चुनकर आए हैं। अब तक हैदराबाद तक सीमित रही एमआईएम ने महाराष्ट्र में पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ा। महाराष्ट्र में कुल 24 सीटों पर पार्टी ने अपने उम्मीदवार उतारे थे। राज्य में अपने पहले ही चुनाव में एमआईएम ने ऐसा प्रदर्शन करके सबको हैरान कर दिया। दो सीटें जीतने के अलावा पार्टी पांच सीटों पर दूसरे स्थान पर और नौ पर तीसरे स्थान पर रही। इस पार्टी का उभार इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि राज्य के मुसलमान सेकुलर दलों से निराश होकर एमआईएम जैसे कट्टर सोच वाले संगठन की शरण में चले गए हैं। यहां उल्लेखनीय है कि एमआईएम के निजाम के शासन के दौरान हिन्दुओं के खात्मे के लिए बने रजाकारों के संगठनों से बहुत गहरे रिश्ते रहे हैं।
आज भी यह संगठन अपनी हिन्दू विरोधी राजनीति के लिए ही जाना जाता है। सबसे बुरी हालत राज ठाकरे की मनसे की हुई है। उसके इंजन मेंकेवल एक ही डिब्बा लग पाया। राज ने इस चुनाव में महाराष्ट्र के विकास का ब्ल्यूप्रिंट पेश किया था लेकिन था लेकिन अब उन पर अपना अस्तित्व बचाने का ब्ल्यूपप्रिंट बनाने की नौबत आने बाली है।
महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव राज्य के राजनीतिक नक्शे पर दूरगामी असर डालने वाला साबित होगा। पहली बार हिन्दुत्वनिष्ठ राजनीतिक दलों को 52 प्रतिशत वोट मिले हैं। पिछले 15 वषोंर् के दौरान हुए चुनावों में कांग्रेस-राकांपा गठबंधन इसलिए सफल होता रहा क्योंकि वे अपने मतों को बड़ी आसानी से एक-दूसरे को हस्तांतरित कर देते थे। संदेह नहीं कि नई सरकार सुशासन के द्वारा इन पुराने मुहावरों को भी बदल देगी।
कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा। चुनाव की अगुआई करने के कारण मैं महाराष्ट्र में पार्टी की हार की जिम्मेदारी लेता हूं।
—पृथ्वीराज चव्हाण, निवर्तमान मुख्यमंत्री, हरियाणा
यहां हुई कांटे की टक्कर
कलीना
मुंबई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष कृपा शंकर सिंह शिवसेना के संजय पटनिस से चुनाव हार गए।
येओला
राकांपा नेता छगन भुलबल ने शिवसेना के संभाजी पवार को हराया।
कुदाल
शिवसेना के वैभव नाइक ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नारायण राणे को हराकर सीट पर कब्जा किया।
कावथे-महानकाल
राज्य के पूर्व गृह मंत्री और राकांपा नेता आर. आर. पाटिल ने भाजपा के अजीत घोरपड़े को हराकर सीट पर कब्जा बरकरार रखा।
नागपुर दक्षिण
पश्चिम-महाराष्ट्र भाजपा के अध्यक्ष देवेन्द्र फड़नवीस ने कांग्रेस के विनोद पाटिल को हराया।
सांगोला
देशमुख गनपतराव अन्ना साहेब ने यह सीट लगातार 11वीं बार जीती।
बारामती
राकांपा नेता अजित पवार ने भाजपा के प्रभाकर दादाराम गवड़े को सर्वाधिक 89791 मतों के अंतर से हराया।
गढ़चिरौली
भाजपा के डॉ. देवराव यहां विजयी रहे, खास बात यह रही कि यहां 'नोटा' तीसरे स्थान पर रहा।
कांकवली
कांग्रेस के नितेश नारायण राणे ने भाजपा के जे. पी. शांताराम को हराया।
परली
भाजपा की पंकजा मुंडे ने राकांपा के धनंजय मुंडे को हराकर यह सीट छीन ली।
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2014
कुल सीट : 288
भाजपा 122
शिवसेना 63
कांग्रेस 42
राकांपा 41
एमआईएम 02
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