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उनकी राह में आने वाले मुस्लिमों की भी हत्याएं की हैं। हैदर में इस तथ्य को भी पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया है। फिल्म के खलनायक हैं-भारतीय सेना, सुरक्षाबल और उनका साथ देने वाले लोग। फिल्म इस बात पर पूरी तरह मौन रहती है कि अलगाव की बात करने वाले चुनाव लड़ने का समर्थन क्यों नहीं जुटा पाते?
मनोरंजन की चाशनी, राष्ट्रघाती बम!
प्रगतिशीलता यानी राष्ट्रविरोधी फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार व प्रशंसा
भले बॉलीवुड के बारे में एक वर्ग कहे कि ह्यगंदा है पर धंधा है येह्ण, लेकिन हम इसे इसलिए स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि ह्यजागृतिह्ण,ह्यदो बीघा जमीनह्ण से लेकर ह्यसत्यकामह्ण जैसी देश के अलसाये जनमानस को झकझोरकर राष्ट्रीय सरोकारों से जोड़ने वाली फिल्में तक इसी मायानगरी की देन हैं। लेकिन अभी यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या धंधे के लिए हम राष्ट्रीय एकता-अखंडता तक को ताक पर रख सकते हैं? क्या अर्धसत्य, असत्य से अधिक खतरनाक नहीं है? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के साथ सत्य बोलने और केवल पूर्ण सत्य बोलने का कर्तव्य भी नहीं जुड़ा है? क्या फिल्मकारों के लिए सत्य और कर्तव्य के पैमाने आम भारतीय से अलग होते हैं? यदि कोई फिल्मकार देश से जुड़े संवेदनशील मुद्दों पर अपनी फिल्म के माध्यम से झूठ या सोचा-समझा आधा सच परोसता है, तो इसके पीछे क्या कारण होता है? भ्रमित मानसिकता? कोई विशेष वैचारिक प्रतिबद्धता? फिल्म में पैसा लगाने वाले की इच्छा? या कुछ और? इसका सकारात्मक हल ढ़ूँढने का दायित्व कौन निभाए? क्योंकि कानून का तर्क तो दुधारी तलवार है।
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ह्यइस फिल्म में दिखाए गए सभी पात्र और घटनाएँ काल्पनिक हैं, और उनका किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है।ह्ण फिल्म का कथानक प्रारंभ होने के पहले हम ये पंक्तियां पढ़ते हैं, परंतु कथानक की ये ह्यकाल्पनिकताह्ण कितने क्षण हमारे मानस में ठहरती है? आपके दिल दिमाग पर छाप किसकी पड़ती है? इन औपचारिक पंक्तियों की या सेल्यूलाइड पर उकेरी गई पटकथा की?
कहने के ढंग से बात के अर्थ बदल जाते हैं। ह्यरोको मत, जाने दोह्ण, और ह्यरोको, मत जाने दोह्ण इन दोनों वाक्यों में अंतर बहुत मामूली है, पर अर्थ विपरीत हैं। पर्दे पर चलती सतरंगी आकृतियों और वातावरण में तैरती ध्वनि और संवादों में खोए दर्शक के मन में जो परिकल्पना उतरती चली जाती है, उसका उसे भी पता नहीं चलता। हमारे देश में सिनेमा को साहित्य या समाचार माध्यमों जितनी गंभीरता से नहीं लिया जाता। वास्तव में इस माध्यम के गहरे और व्यापक प्रभाव को समझते हुए दर्शकों को क्या परोसा जा रहा है, इस पर सतर्क दृष्टि रखना आज पहले से अधिक आवश्यक है।
फिल्म जगत कभी भी विशुद्ध मनोरंजन उद्योग नहीं रहा है। इसके पीछे विचार परोसने की परंपरा पुरानी है। उत्तरी कोरिया के तानाशाह, पाकिस्तान की आईएसआई और समय-समय पर सीआईए इसका उपयोग करते आए हैं। नाजियों ने इसका उपयोग हथियार की तरह किया है। अच्छी बात है, कि भारत में सत्ता संस्थान द्वारा हस्तक्षेप की ऐसी परंपरा नहीं पड़ी, परंतु आज एक प्रबुद्ध विमर्श खड़ा करने की जरुरत जरूर महसूस की जा सकती है।
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2 अक्तूबर 2014 को जम्मू-कश्मीर की पृष्ठभूमि पर आधारित एक फिल्म रिलीज हुई-ह्यहैदरह्ण। फिल्म को परदे तक लाने वाले लोगों का वास्तविक परिचय इस प्रकार है। फिल्म के लेखक हैं बशरत पीर, जो अनंतनाग से हैं, और अलीगढ़ में पले-बढ़े हैं। तहलका और कारवां पत्रिका से जुड़े पत्रकार हैं। कश्मीर पर अलगाववादी सुरों के साथ सुर मिलाते आए हैं। अपनी राष्ट्रीयता को ह्यविवादितह्ण बताते हैं और कश्मीर की तुुलना फिलिस्तीन से करते हैं। फिल्म के निर्देशक विशाल भारद्वाज हैं, जो अपनी फिल्म ह्यमटरू की बिजली का मंडोलाह्ण (2013, निर्देशन व पटकथा) में माओत्से तुंग को महिमामंडित कर चुके हैं। अप्रैल 2014 में हिन्दी फिल्म जगत की जिन 60 हस्तियों ने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ वोट देने की अपील की थी, उनमें विशाल भारद्वाज भी थे।
ह्यहैदरह्ण के प्रथम दृश्य से अंतिम दृश्य तक एक विशेष सोच हावी है। फिल्म का सार है, कि भारतीय सेना और सुरक्षा बल कश्मीरियों पर जुल्म ढा रहे हैं। सेना बेरहमी से कश्मीरियों की हत्याएं करती है। चुनाव की प्रक्रिया में भाग लेने वाले, चुनाव लड़ने वाले गद्दार किस्म के लोग हैं, जो सेना के साथ मिलकर कश्मीरियों को ठग रहे हैं। हर तरफ सख्ती और तलाशी है। सुरक्षाबल लोगों का अपहरण कर उन्हें अमानवीय यातनाएं देते हैं। आतंकवादियों से लड़ने के लिए बनाई गई ग्राम सुरक्षा समितियां लोगों पर अत्याचार करती हैं। ह्यमरा हुआ मिलिटंेट भी एक लाख का होता हैह्ण और ह्यपूरा कश्मीर ही कैदखाना हैह्ण- जैसे संवाद बहुधा सुनाई देते हैं। एक और संवाद पर गौर कीजिए- नायक की मां से कहा जाता है ह्यआपका बेटा सरहद पार (आतंकवाद का प्रशिक्षण लेने) चला गया है। वहशी दरिंदा बन गया है।ह्ण जवाब आता है- ह्यशुक्र है आस्तीन का सांप नहीं बना।ह्ण पाकिस्तान से आए आईएसआई एजेंट को भी कश्मीरियों का हमदर्द और सेना के जुल्मों के खिलाफ लड़ने वाला दिखाया जाता है, और फिल्म का अंत आत्मघाती हमलावरों को न्यायोचित ठहराते हुए होता है। इस फिल्म की पटकथा हुर्रियत कांफ्रेंस के किसी नेता से भी लिखवाई जा सकती थी या फिर सीमा पार बैठे किसी आका से भी।
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निहत्थे पेट्रोलिंग कर आतंकवादियों का शिकार बनने को मजबूर किए जाने वाले सुरक्षाबलों का इस फिल्म में कोई जिक्र नहीं है। सेना की छावनियों पर हमले करके उनके परिवारों को मौत के घाट उतारने की आतंकी करतूतों का कोई जिक्र नहीें है। फिल्म सीमा पार से पाक प्रायोजित आतंकियों पर भी चुप रहती है। इस कहानी में कश्मीरी पंडितों के जघन्य हत्याकांडों के लिए भी कोई जगह नहीं है, न ही कश्मीरी पंडितों को घाटी से खदेड़ने के लिए चलाए गए नृशंस बलात्कारों, आगजनी और अपहरणों के सिलसिले पर कुछ कहा गया है। आतंकियों ने कश्मीरी पंडितों के नस्ली सफाए के साथ उनकी राह में आने वाले मुस्लिमों की भी हत्याएं की हैं। इस तथ्य को भी पूरी तरह नजर अंदाज कर दिया गया है। फिल्म के खलनायक हैं भारतीय सेना, सुरक्षाबल और उनका साथ देने वाले लोग। फिल्म इस बात पर पूरी तरह मौन रहती है कि अलगाव की बात करने वाले चुनाव लड़ने का समर्थन क्यों नहीं जुटा पाते? किस प्रकार से आतंकवाद के चलते, विकास, पर्यटन और उद्योग धंधे प्रभावित हुए हैं और बेरोजगारी बढ़ी है। फिर उन बेरोजगारों को पैसे देकर पत्थरबाजी करवाई जाती है। बार-बार जनजीवन के ठप्प होने से शैक्षिक संस्थाएं बंद पड़ी रहती हैं। कोई उद्योगपति वहां जा कर उद्योग नहीं लगा सकता। इस कहानी में जम्मू और लद्दाख की कोई आवाज शामिल नहीं है। न ही उन 12 लाख शरणार्थियों के बारे में कुछ कहा गया है जो अपने ही देश में दोयम दर्जे के नागरिक बनकर रह रहे हैं। सेना के जवान वहां किस प्रकार के सेवा कार्य करते हैं, यह पिछले माह आई बाढ़ में सारी दुनिया ने देखा है। उनके पराक्रम को जम्मू-कश्मीर के बाढ़ पीडि़तों समेत सारे विश्व ने सराहा है। लेकिन हैदर के रचनाकारों के चश्मे का रंग कुछ अलग है।
भारतीय राज और भारतीय समाज की विकृत तस्वीर पेश करने का ये कोई इकलौता मामला नहीं है। 2007 का साल चुनावी साल था, जिसमें गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने थे। इस वर्ष ऐसी चार फिल्में रिलीज हुईं, जिनके विषय विशेष ढंग से बुने गए थे। 2002 के गुजरात दंगों का पूरी तरह एकतरफा एवं बेहद भड़काऊ चित्रण करने वाली फिल्म परजानिया जनवरी 2007 में रिलीज की गई। गौरतलब है कि फिल्म 2005 में बन चुकी थी, एवं फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जा चुकी थी। 2006 में इसे नेशनल अवार्ड मिला। 2007 में चुनाव के ठीक पहले इसे दर्शकों के सामने परोसा गया। फिल्म की कहानी को दो पंक्तियों में समेटा जा सकता है, कि मुस्लिमों से नफरत करने वाले हिन्दू संगठन अमदाबाद में उनके नरसंहार की योजना बना रहे हैं, और गोधरा में ट्रेन में ह्यआग लग जानेह्ण के कारण उन्हें मौका मिल जाता है, जिसमें राज्य प्रशासन और सरकार उनका साथ देते हैं। फिल्म में एक जगह संवाद ध्यान देने लायक है। गाँधी जी पर शोध करने आया एक विदेशी युवक ह्यदक्षिणपंथी हिन्दुओंह्ण के आचरण पर आहत और क्रोधित है, क्योंकि वे ह्यईश्वर के नाम पर हत्याएंह्ण करते हैं। भारत की राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए वह कहता है कि ह्य90 के दशक में कुछ ह्यबेवकूफह्ण मुस्लिमों ने मुंबई में बम धमाके किए जिसका फायदा उठा कर एक ह्यनई पार्टीह्ण सत्ता में आई। इसके अनेक साथी हैं। जिनमें से एक है ह्यपरिषदह्ण। परिषद भारत का कू क्लक्स क्लेन है।ह्ण गौरतलब है कि कू क्लक्स क्लेन अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अमेरिका में अश्वेतों के विरुद्ध हिंसक कार्यवाही करने वाला एक नस्लीय संगठन रहा है। फिल्म के अंतिम हिस्से में मुस्लिमों की निर्मम हत्या करने वाले चेहरों को तत्कालीन मुख्यमंत्री का चुनाव प्रचार करते दिखाया गया है। दंगों का चित्रण बेहद भड़काऊ है। लापता परिजनों को ढूंढने के बहाने कैमरा देर तक क्षत-विक्षत शवों को दिखाता है। यह फिल्म इंडियन मुजाहिदीन के लिए आदर्श प्रचार सामग्री हैं।
फरवरी 2013 में चेतन भगत की पुस्तक पर आधारित एक फिल्म आई ह्यकाय पो छेह्ण। ये फिल्म भी गुजरात की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इसमें भी 2002 के दंगों का विषय आया है। परंतु दंगों की पृष्ठभूमि में गोधरा काण्ड से उपजी मानसिक अवस्था का संक्षेप में चित्रण किया गया है, जिसकी प्रतिक्रिया में दंगे हुए। फिल्म सकारात्मक संदेश के साथ समाप्त होती है, परंतु आपको जानकर शायद झटका लगे कि परजानिया की प्रशंसा करने वाले अनेक प्रगतिशील लेखकों, बुद्धिजीवियों, समीक्षकों को ह्यकाय पो छेह्ण बिल्कुल भी पसंद नहीं आई क्योंकि उनकी नजर में वो ह्यभड़काऊह्ण थी, और इसमें दंगों में केवल स्थानीय लोगों की भूमिका दिखलाई गई है।
जनवरी 2007 में ही एक अन्य फिल्म आई ह्यअनवरह्ण। इसका विषय है ह्यकट्टरपंथी हिंदुओंह्ण और हिंदूवादी राजनैतिक दल द्वारा पुलिस के सहयोग से निर्दोष, देशभक्त मुस्लिम युवाओं को आतंकवादी घोषित करना एवं वोटों की खातिर ह्यमुस्लिम विरोधी उन्मादह्ण भड़काना। इसी साल आई एक और फिल्म ह्यधर्मह्ण जिसमें केंद्रीय विषय है जात-पात और छुआछूत में आकंठ डूबे पुजारी, और माथे पर केसरिया पट्टियाँ बांधे ईसाई-मुस्लिम विरोधी हिंसक युवक। इस फिल्म को राष्ट्रीय एकता श्रेणी के अंतर्गत 2007 का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला।
विडंबना यह है कि जहाँ एक ओर सारी दुनिया हिंदू समाज को उसकी उदारता के लिए जानती है, वहीं दूसरी ओर हमारी अनेक फिल्मों में हिंदुओं और हिंदू संगठनों को रक्त पिपासुओं के रूप में चित्रित किया जाता है। आतंकवाद और राष्ट्रीय अखंडता के मुद्दे पर देश की जनता के सामने विकृत तस्वीर रखी जाती है। यह सूची बहुत लंबी है। अगस्त 2007 में आई एक और फिल्म ह्यधोखाह्ण भारत का एक ऐसा चित्र प्रस्तुत करती है जिसका वास्तविकता में कोई अस्तित्व नहीं है। पुलिस द्वारा झूठा आरोप लगा कर गायब कर दिए गए मुस्लिम युवक का पिता अपने दूसरे बेटे और बेटी को लेकर बात करने जाता है जहाँ पुलिस वाले पिता और भाई के सामने युवती के साथ बलात्कार करते हैं और उसका वीडियो बनाते हैं। फलस्वरूप वो मुस्लिम युवती आत्मघाती हमलावर बन जाती है। 2008 की फिल्म ह्यआमिरह्ण भोले-भाले मुस्लिम युवक की कहानी है जिसे भारत की सुरक्षा एजेंसियाँ व्यर्थ में आतंकी घोषित कर देती हैं। अगस्त 2008 की फिल्म ह्यमुम्बई मेरी जानह्ण उग्र हिंदू युवक द्वारा मुस्लिमों को बेवजह आतंकी कहकर परेशान करने का चित्रण करती है। मई 2009 में लोकसभा चुनाव हुए। 20 मार्च 2009 को फिल्म आई ह्यफिराकह्ण। उल्लेखनीय है कि यह फिल्म एक वर्ष पहले बन कर तैयार हो गई थी और इसे 5 सितंबर 2008 को टोरंटो के अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित किया गया था। फिराक भी 2002 के दंगों पर आधारित है। 2004 की फिल्म ह्यदेवह्ण मुस्लिम युवक फरहान की कहानी है जो पुलिस द्वारा मुस्लिमों को सताया जाता देख आतंकवादी बन जाता है।
आतंकवाद को न्यायोचित ठहराने का काम जाने-अनजाने अनेक फिल्मकारों ने किया है। ह्यफिजाह्ण, ह्यफनाह्ण, ह्यमिशन-कश्मीरह्ण, ह्यदिलजलेह्ण, ह्यदिल सेह्ण, इन सभी फिल्मों के केंद्रीय पात्र आतंकवादी हैं। सभी हालात के मारे, निर्दोष लोग हैं। ये फिल्में पूरी तरह आतंकियों के ह्यमानवीय पहलूह्ण पर आधारित हैं। लेकिन आतंकियों द्वारा वास्तविक जीवन में मानवता के विरुद्ध किए गए घोर अपराधों पर फिल्मकार फिल्म का एक मिनट भी खर्च नहीं करते। ऐसे चित्रण आतंकवाद के विरुद्ध हमारी वैचारिक लड़ाई को कमजोर करते हैं।
इन सारी रचनाओं में विचारधारा विशेष का प्रभाव और एजेंडा दिखता है। आश्चर्य की बात नहीं है कि चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोलने वालों में हैदर के निर्देशक विशाल भारद्वाज, फिराक की रचनाकार नंदिता दास, धोखा के निर्माता महेश भट्ट, देव के निर्माता-निर्देशक गोविंद निहलानी शमिल हैं। आश्चर्य है कि इस पर तथाकथित प्रगतिवादियों को कोई आपत्ति नहीं होेती। न ही किसी माध्यम की निष्पक्षता, विश्वसनीयता और साख पर सवाल उठाया जाता है। यह अत्यंत गंभीर बात है। फिल्मों की प्रस्तुति के तरीकों पर, विषय-वस्तु पर राष्ट्रीय और सामाजिक दृष्टि से चिंतन किया जाना आवश्यक है। कोई फिल्म हाजी मस्तान और दाऊद इब्राहिम को महिमामंडित करती है, तो दर्शक की सामाजिक चेतना पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। शंघाई फिल्म का गाना ह्यसोने की चिडि़या, डेंगू मलेरिया, गुड़ भी है, गोबर भी है, भारतमाता की जयह्ण हमें हमारे राष्ट्रीय दृष्टिकोण पर सोचने को बाध्य करता है। क्या इन बातों को सिर्फ मनोरंजन उद्योग के नाम पर नजरंदाज कर देना चाहिए? क्या फिल्म के प्रारंभ में ह्यकाल्पनिक हैह्ण कह देने मात्र से रचनाकारों के कर्तव्य की इति श्री हो जाती है? सेंसर बोर्ड अक्षम है या उसका कार्य क्षेत्र अपरिभाषित है? प्रशंसकों की तालियों और सीटियों पर थिरकते और फ्लैश लाइट की रोशनी में नहाए फिल्मकारों और फिल्मी हस्तियों के राष्ट्रीय चरित्र और सामाजिक जिम्मेदारियों पर विमर्श करने का समय आ गया है। अंत में, छोटे बच्चों के मुंह से ह्यजॉनी-जॉनी! यैस पापाह्ण यह कविता आपने अनेक बार सुनी होगी। इस कविता का फिल्मी संस्करण आ गया है। बोल हैं – ह्यजॉनी-जॉनी, हां जी। तूने पी है, ना जी। मुंह तो खोलो, ओ जी….. हां जी, मैनूं पिला दी गई हैह्ण। जाहिर है बच्चे इसे जल्दी याद करेंगे और गुनगुनाएंगे भी। – प्रशांत बाजपेई
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