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स्वाति
ज्यादा पुरानी बात नहीं है। करीब एक-डेढ़ महीनाभर पहले एक फिल्म आयी थी। नाम था ह्यआईडेंटिटी कार्डह्ण, जिसके निर्देशक थे राहत काजमी। कश्मीर के मौजूदा हालात पर बनी यह फिल्म न तो वहां के अलगाववादियों पर थी और न ही सीमा पार से लगातार हो रहे संघर्षविराम के उल्लंघन आदि के बारे में। यह फिल्म थी वहां के बाशिंदों की लगातार रहस्यमय ढंग से हो रही गुमशुदगी, स्थानीय नागरिकों के लिए आनिवार्य रूप से थोपे गये शिनाख्ती कार्ड और कहीं से भी शक की बिना पर उठा लिये गये कश्मीरी युवकों के बारे में। सेना द्वारा शक की बिना पर उन युवकों को क्यों उठाया जाता है और उनके साथ कैसा सलूक किया जाता है, इसका चित्रण भी फिल्म में किया गया था। पर सेना के पक्ष के साथ। सो मानियेगा, यह फिल्म बस एक ओछा प्रयास ही थी, जिसे बेहद बचकाने ढंग से पेश किया गया था। कच्चे-पक्के कलाकारों से सजी यह फिल्म न तो डाक्यूमेंटरी बन पायी और न ही एक मुकम्मल फीचर फिल्म। यह फिल्म देखकर याद आयी मणिरत्नम की फिल्म रोजा, जो नब्बे के शुरुआती वर्षों में वादी में कहर बरपा रहे घरेलू और सीमा पार आतंकवाद का चित्रण थी। करीब एक दशक पहले टाइम मैगजीन ने रोजा के संगीत को 10 बेस्ट इंटरनेशनल साउंडट्रैक श्रेणी में रख सम्मान बख्शा था। रोजा के नाम और भी ढेरों इनाम हैं।
ह्यआईडेंटिटि कार्डह्ण के बाद एक सवाल मन में उठा कि क्या कोई फिल्मकार ह्यराष्ट्र सर्वोपरिह्ण के ध्येय को सामने रखकर कश्मीर के हालात पर कोई रोचक और चौंकाने वाला सिनेमा पेश करेगा? यहां आगे बढ़ने से पहले अभिनेता से निर्देशक बने आमिर बशीर की फिल्म हारुद का जिक्र भी कर दिया जाए तो बेहतर होगा, जो कश्मीर के हालात का वैसा ही चित्रण करती है, जिनका ब्यौरा ऊपर दिया गया है। दो साल पहले आयी इस फिल्म को उर्दू में बनी बेस्ट फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। पर हारुद ऐनक ऊंची कर पेशानी पर बल देकर सिनेमा की रेटिंग करने वालों के बीच ही दबकर रह गयी। और इस फिल्म का कलेवर भी ऐसा नहीं था, जिसे मार्केटिंग के इस दौर में कोई जियाला सिनेमाहाल की रिलीज का मुंह दिखा पाता। खैर, पिछले सप्ताह रिलीज हुई विशाल भारद्वाज की फिल्म ह्यहैदरह्ण के प्रोमो जब 10-15 दिन टीवी पर देखे तो लगा कि हां, अब कुछ बात बनेगी। इन प्रोमोज के पार्श्व में गूंजती एक भरभरी सी आवाज कहती है, हैदर मेरा इंतकाम लेना…. जिसने तेरी मां पर फरेब डाले थे… ये प्रोमोज किसी भी फिल्म की कहानी और विषय-वस्तु को बयान करने के लिए इतने व्यापक थे कि उत्सुकता पैदा होना लाजमी था। और फिर विशाल भारद्वाज हैदर के जरिये उस ट्रायलॉजी को भी पूरा करने जा रहे थे, जिसका बीड़ा उन्होंने करीब 10-12 साल पहले ह्यमकबूलह्ण की शुरुआत से उठाया था। विशाल भारद्वाज महान नाटककार विलियम शेक्सपीयर के भक्त हैं और उनके तीन नाटकों-मैकबेथ, ओथेलो और हेमलेट पर फिल्म बनाकर शेक्सपीयर को ह्यसच्चीह्ण श्रद्धाञ्जलि देने का विचार रखते हैं।
लेकिन ह्यहैदरह्ण देखकर मन में कई सवाल उठते हैं। हैदर क्या कहती है? क्या जताती है? हमें कहां ले जाती है? इन सवालों पर आने से पहले यह जता दूं कि सिनेमा तकनीक को लेकर फिल्म कई मायनों में तारीफ के काबिल है। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी बेमिसाल है। ह्यहैदरह्ण से अभिनेता शाहिद कपूर का पुनर्जन्म हुआ है। वह शायद इससे बेहतर काम भविष्य में न कर पाएं। तब्बू अदाकारी के फलक पर हैं। उनके काम में गलती या कंजूसी की गुंजाइश न के बराबर रहती है। केके मेनन, नरेन्द्र झा और एक छोटे से रोल में इरफान ने यह जता दिया कि जरूरत पड़े तो फिलर्स भी कितने महत्वपूर्ण होते हैं। हां, फिल्म का संगीत बेशक औसत है या यह कहिये कि विशाल भारद्वाज की फिल्मों सरीखा नहीं है। उनकी कोई फिल्म पिट भी जाए तो गम नहीं! वह अपने बेहतर संगीत से खा कमा जाते हैं। अब सवाल यह है कि हैदर किसके लिए है? उन कश्मीरियों के लिए जो शिनाख्ती कार्ड रखने और वक्त-बेवक्त उसे दिखाने की अनिवार्यता के आदी हो चुके हैं या उन परिवारों के लिए जिनके लाल बरसों से गायब हैं? क्या यह फिल्म कश्मीर में सेना की तैनाती और उसके बर्बर रवैये का पदार्फाश करती है? या फिर उन रहस्यमयी कैदखानों की पोल खोलती है, जो सेना द्वारा धड़ल्ले से फैलाए जा रहे हैं और जिन पर किसी भी सरकार का हस्तक्षेप नहीं रहा है। क्या यह फिल्म कश्मीर के अलगाववादियों का समर्थन करती है, जो पड़ोसी देश के पैसे पर पलकर आजादी के नाम पर वादी में मासूम भारतीयों का खून बहाते आये हैं? या यह फिल्म उनके लिए है, जो दिल में देशप्रेम रखने वालों को आस्तीन का सांप कहते आये हैं?
दरअसल, हैदर इस तरह के तमाम सवालों से सिर्फ यह कहकर पीछा छुड़ाने का प्रयास है, जो यह मानते आये हैं कि उनके साथ धोखा हुआ है। पर इस धोखे में उन लाखों लोगों की बात शामिल नहीं है, जिन्हें रातों रात अपने ही घर से खदेड़ा गया था। हैदर, जब अपने पिता के गायब होने के बाद घर लौटता है तो खंडहर हो चुके अपने घर को देख सुधबुध खो बैठता है और अपने पिता की खोज में निकल पड़ता है। उसके खंडहर घर को देखकर एक मानवीय पहलू जागना लाजमी है। लेकिन इस बात की पैरवी कौन करेगा कि उसके घर को सेना ने खंडहर क्यों बनाया? उसके घर को बम से उड़ाने की क्या वजह थी? अगर सेना सिर्फ आतंकवादियों के कमांडर का खात्मा करने में ही विश्वास रखती है तो फिर तो आधे से ज्यादा कश्मीर खंडहर हो चुका होता। यहां से यह जताना भी जरूरी था कि आस्तीन का सांप असल में कौन है। देशप्रेम का झंडा थामे बाहर से आये कुछ लोग या फिर अपने पेशे की आड़ में मजबूरी में ही सही भारी असले के साथ डाक्टर के घर में मौजूद वह कमांडर, जिसे बेहतर इलाज की सख्त जरूरत थी?
विशाल भारद्वाज खुद को देशप्रेमी बताकर मानवता का पक्षधर होने की बात कर रहे हैं, लेकिन सेना के पक्ष के बिना। यह कैसे संभव है? उनके किरदार आजादी की बात नहीं कर रहे, लेकिन जिंदगी का साथ देने की वकालत कर रहे हैं। आखिर किसकी जिंदगी? पिछले कुछ दिनों से लगातार हो रहे सीजफायर का हो रहा उल्लघंन क्या उन्हें नहीं दिखता। भारत-पाक सीमा पर रह रहे बाशिंदों के घरों पर हो रही बमबारी से क्या जिंदगी हैरान नहीं हो रही। क्या यह वाकई एक ऐसा मसला है, जिस पर एक फिल्म बनाकर बॉटमलाइन दिखाई जा सकती है? या यह सिर्फ बड़े बैनरों के झांसे में आकर महज अपनी दुकान चमकाने का प्रयासभर है? हैदर की चारों ओर या तो प्रशंसा हो रही है या फिर छीछालेदारी। बहुतेरे लोग इस फिल्म का बायकाट करने की बात कर रहे हैं। बहुतेरों का यह भी मानना है कि इसे केवल एक फिल्म ही रहने दें, इस पर राजनीति न करें। तमाम बातें अपनी-अपनी जगह सही हो सकती हैं, लेकिन क्या विशाल भारद्वाज सही मायने में ये बता सकेंगे कि आखिर आस्तीन का सांप कौन है। क्या यह देश उनका भी उतना ही नहीं है, जितना सवा अरब नागरिकों का?
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