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चुनाव के बाद

by
Jan 4, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Jan 2014 14:01:48

.अरुणेन्द्र नाथ वर्मा

इतनी तपती हुई राहों से गुजर लेने के बाद उन्हें भरोसा था कि दोपहरी में सर के ठीक ऊपर चमक रहे सूरज के नीचे घंटों खड़े रहने पर भी उन्हें गर्मी नहीं सतायेगी, वैसे मौसम भी खुशगवार था। दिसंबर महीने की गुलाबी  सुबह की गुनगुनी धूप में बैठ कर सामान्य ढंग से बोल बतिया लेना उन्हें अच्छा लग रहा था।
पिछले कई महीनों में एक ही सांचे में ढले हुए दिन बिताये थे दोनों ने। भोर में ही उठ कर दिन भर तूफान बवंडर की तरह भागते दौड़ते रहो और बोलते रहो और सामान्य ढंग से बोलना ही कहां हो पाता था। भाषणों में जान डालने के लिए होठों के सामने लगे माइक के बावजूद चीखकर बोलने की आदत जो पड़ गयी थी। रात में सोने के लिए जो चार-पांच घंटे मिलते थे उनमें भी बदन के पोर-पोर से फूटती हुई थकान के कारण नींद ठीक से नहीं आती थी। आंख लग भी जाती तो कभी चुनाव हार जाने के दुस्वप्न से नींद टूट जाती तो कभी दिन भर की गहमा-गहमी के बाद छाये हुए रात के सन्नाटे का अटपटापन जगा देता। ऐसी कठिन यंत्रणा भोग लेने के बाद थकान मिटाने, आपस में दिल खोल कर बात कर लेने का मौका अब जाकर मिला था। चुनावों के नतीजे कुछ दिन बाद आने वाले थे और तब तक आराम ही आराम था।
   अब वे एक दूसरे के दुश्मन नहीं, एक ही यात्रा के साथी थे. जो होना था, हो चुका था। अब परिणाम मिलने तक आपसी दुराव, तनातनी बनी रहे इसकी कोई जरूरत नहीं थी। मन के अन्दर छिपी बातें पहले बताने का समय ही नहीं मिला था। ऊपर से अपनी-अपनी पार्टी हाई कमान से मिले निर्देश थे कि पार्टी अनुशासन को व्यक्तिगत रिश्तों के सामने भूलने की गलती न करें। अपने अपने समीकरण, चुनावी तकनीक (कुछ मूर्ख जिन्हें चुनावी हथकंडे कहते थे) और संसाधन दुश्मन के हाथ किसी हालत में न लगने दें। पर अब तो बात हो सकती थी, बिना किसी लाग लपेट के बाकी सब तो ठीक था पर क्या तुम्हे ये मांग बिल्कुल बेतुकी नहीं लगी कि सारे तालों, तालाबों को ढक दिया जाए ताकि कहीं कोई खिला हुआ या खिलने की कोशिश करता हुआ कमल न दिखे।
ह्यऐसे फिर तो हाथ का प्रयोग भी निषिद्घ कर देना चाहिए थाह्ण अधेड़ ने बात को बीच में ही लपक लिया। फिर अपनी ही बात को सुधारता हुआ बोला  नहीं,यह ठीक नहीं कहा मैंने हां, किसी तिजोरी के अन्दर घुसे हुए हाथ या लोगों की जेबों में डालते हुए हाथ दिखाए जाएं तो किसी दल विशेष की याद आ सकती थी। पर सिर्फ हाथ को देखने से तो कुछ भी भाव मन में आ सकता है जैसे इस बार हम भी अपना हाथ दिखाएंगे  या फिर  इस बार दो-दो हाथ हो जाएं या फिर अब हाथ की सफाई और नहीं देखनी है। इसीलिए हाथ पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग तो करने लायक थी नहीं। और आप लोगों ने बार-बार उन्नीस सौ चौरासी की रट क्या लगा रखी थी? कितनी बार वहीं बात दुहराई जानी चाहिए?
 कम से कम उतनी बार तो अवश्य जितनी बार दो हजार दो की याद दिलाई जाए।  काश आपकी पार्टी ने मुझे भी टिकट दे दिया होता।ह्ण
  कोई बात नहीं, मेरा क्या? पर तुम यदि चुनाव जीत गए, आगे बढ़े और जो पार्टी चुनी है उसमें जम गए तो पीढ़ी दर पीढ़ी तुम्हारे वंश के राज करने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी।

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