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-एस. मिश्रा
नए साल की पहली शाम यूपीए के एक वरिष्ठ मंत्री ने कुछ पत्रकारों को चाय पर आमंत्रित किया। कांग्रेस के दिग्गज समझे जाने वाले इस मंत्रीजी से सब यही जानना चाहते थे कि अब आगे क्या होगा, कैसे होगा? मंत्रीजी से बार-बार पूछा जा रहा था कि 3 जनवरी को प्रधानमंत्री की सालाना प्रेस कॉन्फ्रेंस में डा मनमोहन सिंह क्या संकेत देंगे? और इससे भी ज्यादा उत्सुकता इस बात को लेकर थी कि 17 जनवरी को एआईसीसी के विशेष अधिवेशन में क्या घोषणा होगी? क्या राहुल गांधी को औपचारिक तौर पर कांग्रेस के प्रधामंत्री पद का दावेदार बना दिया जाएगा? अगर नहीं तो आगे क्या रणनीति क्या होगी? अगर हां, तो इसका यूपीए के सहयोगी दलों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
मंत्रीजी इन तमाम सवालों को मुस्कुराते हुए सुनते रहे और आखिर में उन्होंने जो जवाब दिया वह यूपीए और कांग्रेस, दोनों के वास्तविक अंदरूनी हालात का बेहद सटीक विवरण मालूम होता है। मंत्रीजी का कहना था कि चाहे प्रधानमंत्री अपने मीडिया कान्फ्रेंस में कोई बड़ा एलान करें या न करें, या राहुल गांधी को पार्टी का विधिवत पीएम उम्मीदवार घोषित कर दिया जाए, यह तो केवल पैकेजिंग है। और नेताजी के मुताबिक ह्यपैकेजिंगह्ण की अपनी सीमाएं हैंं। वह न तो राजनीतिक उपलब्धि की जगह ले सकता है और न ही रणनीतिक समझदारी की।
दरअसल, यूपीए और खासतौर पर कांग्रेस के लिए नया साल केवल चुनौतियां ही नहीं, कई बड़े सवाल लेकर आया है। अगर बात केवल चुनौतियों तक होती तो शायद कांग्रेस के दर्जन भर मैनेजर उसका रास्ता निकालने की कोशिश करते। लेकिन रास्ता निकालने वालों के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हाईकमान को उनका रास्ता निकालना रास आएगा? ध्यान रहे कि अब हाईकमान का मतलब व्यावहारिक रूप से राहुल गांधी ही है।
राहुल गांधी क्या चाहते हैं इसका नमूना कई बार जनता के सामने आ चुका है। लेकिन उनके रवैये ने पार्टी के दिग्गजों का भरोसा बढ़ाने के बजाय उन्हें और आशंकित कर दिया है। सबसे पहले इसी हफ्ते से शुरुआत करते हैंं। अभी-अभी हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह एक कंपनी से अवैध फायदा लेने और उस राशि को अपने चुनाव आयोग के समक्ष पेश किए गए ब्योरे में शामिल न करने के आरोप में घेर लिए गए। यह खुलासा ठीक उसके अगले दिन हुआ जब राहुल गांधी ने एआईसीसी के मीडिया हॉल में तमाम पत्रकारों के सामने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की भरी सभा में यह कहकर इज्जत उतार दी थी कि आदर्श मामले में सरकार को अपने रपट खारिज करने के फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। चव्हाण का आने वाले दिनों में क्या होगा, पता नहीं मगर वीरभद्र जब भागे-भागे अपना बचाव करने दिल्ली पहुंचे तो न सोनिया गांधी ने उनसे मुलाकात करना मुनासिक समझा और न ही राहुल ने।
वीरभद्र, चव्हाण और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की छुट्टी की चर्चाएं हवा में तैर रही हैं। इसी बीच भ्रष्टाचार व महंगाई के खिलाफ मुख्यमंत्रियों की बैठक में लंबी माथापच्ची के दिन ही आदर्श और फिर वीरभद्र के मामलों ने राहुल के अभियान की हवा निकाल कर रख दी। सवाल पूछा जा रहा है कि दूसरों को नसीहत देने से पहले अपना घर दुरुस्त कर लें।
लेकिन बात सिर्फ भ्रष्टाचार जैसे रोग तक ही सीमित रहती तो ठीक था। कम से मामला अपनी पार्टी के अंदर ही सीमित रहता तो भी चलता। खतरनाक संकेत यह है कि सहयोगियों के साथ मामला और डावांडोल होता जा रहा है। 8 दिसंबर को चुनाव नतीजों में जब कांग्रेस चारों खाने चित हो गई तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जैसे सहयोगियों ने नसीहत और उलाहना देने में जरा भी वक्त नहीं लगाया। कांग्रेस नेतृत्व के इकबाल की गति यह है कि जिस लालू यादव को जेल भेजने वाले अध्यादेश को दिल्ली प्रेसक्लब के प्रांगण में गेटक्रैश करके राहुल गांधी ने टुकड़ों में फाड़ डाला था अब कांग्रेस उन्हीं लालू यादव से बिहार में तालमेल करते हुए सीटों की गुहार लगा रही है। और यही नहीं, पूरे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को पानी पी-पी कर कोस रहे समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव पर दबाव बनाने के लिए भी लालू यादव को जानबूझकर मुजफ्फरनगर भेजा जा रहा है जहां लालू एक ही सांस में नरेंद्र मोदी-अमित शाह को भी दोषी ठहराते हैं और मुलायम-अखिलेश को भी।
हालांकि लालू के मामले में यह दलील दी जा सकती है कि राहुल ने भले ही अध्यादेश फाड़कर लालू के जेल जाने का रास्ता तैयार किया हो मगर यह भी सच है कि दशकों से लालू व कांग्रेस एक दूसरे के मददगार रहे हैं। जो बात समझ से परे है वह है दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार को कांग्रेस का समर्थन मिलना। कांग्रेस वाले भले ही यह दलील देते फिरें कि अरविंद केजरीवाल उनकी बैसाखी पर टिके हैं, मगर सचाई यह भी है कि भाजपा की चौथी सरकार को शपथ लेने से रोकने के लिए कांग्रेस नेतृत्व को उस केजरीवाल का समर्थन करना पड़ रहा है जिन्होंने न सिर्फ कांग्रेस विरोध के बल पर वोट लिए बल्कि शीला दीक्षित को धूल चटाई। अगर केजरीवाल कांग्रेस के समर्थन पर टिके हैं तो कांग्रेस भी अपनी अकड़ के साथ समझौता करती नजर आ रही है और केजरीवाल को जनसमर्थन जारी रहा तो वह उसी कांग्रेस को दिल्ली में वैसे ही मटियामेट कर देंगे जैसे लालू ने बिहार में किया था।
तो क्या नए साल में राहुल गांधी का कांगे्रस संगठन में आमूल परिवर्तन करना पार्टी के गिरते ग्राफ को दोबारा चढ़ा पाएगा? कम से कम कांग्रेस के नेताओं को इसकी उम्मीद कम है। राहुल के लिए दुविधा यह है कि अगर उन्होंने पुराने मठाधीशों को ठिकाने लगाने पर ज्यादा जोर दिया तो यही नेता आगामी चुनाव में पार्टी की जड़ें काट देंगे। अगर उन्होंने आमूल बदलाव नहीं किए तो देश में कांग्रेस विरोधी लहर अपना पूरा असर दिखा कर रहेगी। ऐसे में पार्टी के ही एक नेता ने सलाह दी कि शायद बेहतर होगा अगर राहुल गांधी उन्हीं घोड़ों के बल पर यह चुनावी दौड़ का सामना कर लें क्योंकि लोकसभा चुनाव में उनके पास बहुत वक्त होगा अपनी पार्टी में आमूल चूल परिवर्तन करने का।
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