वे भी भारत मां के वीर सपूत हैं
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वे भी भारत मां के वीर सपूत हैं

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Jan 25, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दूरी बनी दरार

दिंनाक: 25 Jan 2014 16:25:09

 

 

कई साल पहले, भारत आयी एक पाकिस्तानी पत्रकार से भारत और पाकिस्तान के बीच समानता और उसके अंतर के बारे में पूछा गया तो  उसने कहा कि आवाज,पोशाक और भाषा समान हैं, जबकि एक प्रमुख भेद यहां दिखाई देता है, यहां (भारत) में उसे पाकिस्तानी बताया जाता है,जबकि उसे पाकिस्तान में मोहाजिर कहते हैं। भारत के जो लोग विभाजन के बाद पाकिस्तान गए थे उनको पाकिस्तान में आज भी अपमानजनक नाम से पुकारा जाता है। ़60 और 70 के दशक में, दिल्ली और उत्तर भारत के अन्य भागों में , दक्षिण से आने वाले किसी भी व्यक्ति को मद्रासी कहा जाता था, लेकिन आंध्र ,कर्नाटक और तमिलनाडु के लोगों को इससे चिढ़ छूट्ती थी, क्योंकि उनकी अलग भाषा और संस्कृति थी।
जैसे समय आगे बढ़ा ,उत्तर और दक्षिण के बीच  व्यवहार बढ़ा एवं राजनीति ,अर्थव्यवस्था व मनोरंजन और शिक्षा में दक्षिण के बढ़ते प्रभाव से समीकरणों में काफी परिवर्तन आया है। बहरहाल,आजादी के 65 साल बाद भी उत्तरी पूर्वी राज्यों के लोगों की शक्ल-सूरत की वजह से उन्हें अलग देखा जाता है। पढे़-लिखे लोग भी गलती से उन्हें चीनी, नेपाली या दक्षिण पूर्व एशियाई का समझ कर उन्हें ह्यचिंक्कीह्ण बुलाते हैं क्योकि उनके चेहरे की बनावट मंगोलियाई है। विकास के अभाव के चलते इन लोगों को मजबूरन अपने राज्यों से विस्थापित होना पड़ा है। अपने सुखद जीवन को छोड़ कर ये लोग शिक्षा और रोजगार के लिए अपने गृह राज्य को छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं। ज्यादातर महिलाओं और लड़कियों को भेदभाव ,छेड़छाड़ और बलात्कार का शिकार हाना पड़ता है।  इतना ही नहीं आमतौर पर हर तरफ से चाकचौबंद और सबकी खबर देने वाला मीडिया भी उत्तर पूर्व को लेकर उदासीन ही दिखा है। हाल ही में पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में मिजोरम को उतनी प्राथमिकता नहीं दी गई जितनी कि मध्य प्रदेश ,राजस्थान,दिल्ली और छत्तीसगढ़ को दी गई। मिजोरम को छोड़ कर बाकी चारों राज्यों के चुनाव नतीजों को लेकर समाचार चैनल पर चर्चाएं  जारी रहीं। मिजोरम के उत्तर पूर्वी राज्य होने की वजह से राष्ट्रीय मीडिया जगत और न ही दिल्ली में वहां के मुद्दों को उठाया जाता है। यह सवाल रह-रह कर वहां के लोगों को परेशान करता है। उत्तर पूर्वी राज्यों में असम को छोड़ कर यहां की समस्यायों को मीडिया नहीं उठाता है। ऐसा सिर्फ दूरी की वजह से नहीं बल्कि उत्तर पूर्वी राज्यों को लेकर बनी मानसिक धारणा की वजह से है। हाल ही में अरुणाचल प्रदेश की यात्रा में मैंने पाया कि राजधानी ईटानगर की सड़कें मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से भी खराब हालत में थीं। पता नहीं चलता था कि सड़कें पर गढ्डे थे या गढ्डों में सड़कें थीं?
हैरानी की बात है कि इस संवेदनशील सीमांत राज्य में जाने के लिए दिल्ली या आस-पास से कोई भी सीधी उड़ान नहीं है, जबकि इस राज्य पर चीन अपना दावा ठोंकता है। ईटानगर जाने के लिए पवन हंस हेलीकॉप्टर मात्र एक साधन है जो कि मौसम पर निर्भर रहता है। या फिर गुवाहाटी से सड़क मार्ग से आठ घन्टे का सफर तय करके पहुंच सकते हैं। शहर के बोमडिला और तवांग, तेजपुर होकर असम जा सकते हैं। यहां पर कुछ रेलवे का निर्माण कार्य जारी है, जो कि एक लम्बी प्रक्रिया है। वहां चीन की बराबरी का ढंाचा खड़ा करने के दावे तो बहुत किए जाते हैं, पर धरातल पर कुछ भी नहीं है।
 सनद के लिए बता दें, केन्द्र सरकार करोड़ों रुपये की राशि क्षेत्रीय और राज्य स्तर पर विकास के लिए जारी करती है, पर इसमें भी प्रशासनिक अधिकारी उन परियोजनाओं  की आड़ में अपनी जेबें भरते हैं। यह कोष विभिन्न योजनाओं के तहत राज्यों को जारी किया जाता है, लेकिन योजनाएं पूरी नहीं होने से कोष की राशि का समय पर उपयोग नहीं हो पाता है। कई योजनाओं की शर्तों के तहत गांवों में आबादी का आंकड़ा सही होना जरूरी होता है। लोग कम होने की वजह से अरुणाचल के अधिकांश गांव योजनाओं के तहत लाभ नहीं  ले पाते हैं।  लेकिन दिल्ली में बैठे बाबुओं को इस सबके बारे में सोचने की फुर्सत कहां है।
उगते सूरज की इस धरती पर शाम पांच बजे अंधेरा छा जाता है,जबकि देश के दूसरे भागों में लोग अभी दफ्तरों में काम ही कर रहे होते हैं। फिर भी उन्हें भारतीय समय के अनुसार चलना होता है, ह्यहमें भारतीयों द्वारा विदेशी कहा जाता है,जबकि हम भी देश की रक्षा में अपने प्राण न्योछावर करने के लिए तैयार रहते हैं,ह्ण यह कहना है अभियन्ता निकम का जो कि सामाजिक कार्यकर्ता भी हंै।
 इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात क्या होगी कि उस राज्य के लोगों के प्रति इस प्रकार का रवैया अपनाया जा रहा है,जिसके प्रकार चीन ह्यसाउथ तिब्बतह्ण का एक हिस्सा होने का दावा करता है और जिसके युवा हथियार उठाने की बात भूल ही जाएं,सड़कों तक पर नहीं उतरे हैं, जबकि उत्तर पूर्व के दूसरे राज्यों के युवाओं ने वह रास्ता  अपनाया है।
दरअसल राज्य में अनेक जनजातियों के बसे होने के चलते हिन्दी लोगों की आम भाषा बन गई है। आज भी लोग एक दूसरे से मिलते-जुलते समय ह्यजय हिन्दह्ण बोलते हैं। क्या चीनी विस्तारवाद के सामने इससे बड़ा प्रतिकार कोई और हो सकता है?
क्या भारतीय सेना को हमले की सूरत में स्थानीय आबादी का इससे भी ज्यादा सहयोग मिल सकता है? फिर भी भारत की मुख्य भूमि ने उत्तर पूर्व को हमेशा अनदेखा किया है।
हालांकि,सामाजिक,राजनीतिज्ञ,समाजशास्त्री और विश्लेषक ने इसके पीछे उत्तर-पूर्व की संवेदन शून्यता और रूढि़वादिता सहित कई कारण गिनाये हैं। इनके साथ ही कई ढांचागत विकास और रोजगार के साथ ही उत्तर-पूर्व में जबरदस्त भ्रष्टाचार के चलते पलायन हुआ है। तथ्य यही हैं कि इस हिस्से के लोगों और शेष भारत के लोगों के बीच बातचीत में गहरी है एवं एक दूसरे के प्रति अनजान होना इस सकंट को और गहरा देता है। उत्तर पूर्व के छात्रों के विरुद्घ हिंसा फैलाने वाले दोषियों के खिलाफ अल्पकालिक कड़े कदम एक लम्बे समय तक उठाने बेहद जरूरी हैं।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय हमारी इतिहास और पाठ्य पुस्तकों पर नजर डाले और सुनिश्चित करे कि पुस्तकों में देश का इतिहास संास्कृतिक,धार्मिक, जातीय  और भाषायी विविधता के आधार पर हो। रूढि़वादी उत्तर और दक्षिण को यह जानना जरूरी है कि उत्तर पूर्व में महिलाओं को कहीं ज्यादा आजादी हासिल है। उनके नैतिक बल को उनके पहनावे से नहीं आंकना चाहिए।
एक और बड़ा कदम यह होगा कि महानगरों के पुलिस बलों का पूरे देश में प्रतिनिधित्व हो,इससे न केवल उस स्थान पर रहने वाले सभी लोगों में सुरक्षा का भाव जागृत होगा बल्कि पुलिस बल में विविधता के प्रति स्वीकार्यता बढ़ेगी। इस मुद्दे पर जागरूकता जगाने के अलावा, मीडिया,विज्ञापन को अपने प्रचार मेंं सभी जाति समूहों को झलकाना चाहिए। फिल्म और टीवी पर मंचन करने वाले कलाकार व निर्देशक भी पूर्वोत्तर को उभारने के लिए मददगार साबित हो सकते हैं। आखिर फिल्म कलाकार डैनी डेनजोनगपा, एस. डी. बर्मन,आर. डी. बर्मन,भूपेन हजारिका और नई पीढ़ी की नायिका रिया व राइमा ने इसको उभारने में योगदान दिया है। ऐसा नहीं है कि उत्तर-पूर्व और देश के अन्य हिस्सों को करीब लाने के लिए सेतु निर्माण के प्रयास नहीं हुए हैं, असल में यह कोशिश बहुत ही कम रही है और इनके बीच का अंतर बहुत रहा हैं। कुछ गंाधीवादी, हिन्दी कार्यकर्ता, एकल विद्यालय,वनवासी कल्याण आश्रम, रामकृष्ण मिशन ,ग्लोबल फाउण्डेशन फॅार सिविलाइजेशनल हारमनी,माई होम इडिया,केन्द्र सरकार के सांस्कृतिक केन्द्रों आदि संगठनों ने इस दिशा में योगदान दिया है।
विवेकानन्द केन्द्र जैसे संस्थान, जो अरुणाचल प्रदेश में करीब तीन दर्जन से ज्यादा विद्यालय चलाता है और बच्चों में देशभक्ति और पारम्परिक-संास्कृतिक मूल्यों को रोपता है,की बदौलत अरुणाचल में  युवा समझदार ही नहीं हुए हैं, बल्कि राष्ट्र भक्त भी बने हैं। उत्तर पूर्व के लोगों को चाहिए कि वे बड़े शहरों में अपने जातीय और प्रान्तीय दायरों में न घिरे रहें। जब हम पश्चिम में भारतीयों के विरुद्घ नक्सली भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम अपने घर में ही इस तरह की स्थिति पैदा होने दें। हमें अपनी विविधताओं को स्वीकार कर इसका गौरवगान करना होगा। यही हमारी ताकत है। 

उदाहरण के लिए,देश में बहुत कम लोगों ने मेघालय के एक बड़े  स्वतंत्रता सेनानी यूक्यांग्य नानभा के बारे में सुना होगा, जिन्हें अंग्रेजों ने 150 वर्ष पहले फंासी पर लटका दिया था। इसके पीछे भी केन्द्र सरकार  की उत्तर पूर्व के लोगों की इतिहास और संस्कृति की अनदेखी करने की नीति रही है। उत्तर पूर्व की विभूतियों, स्वतंत्रता सेनानियों जैसे लचित बड़फूकन,रानी मां गाइदीनल्यू,शहीद कनकलता बरुआ,वीर टिकेन्द्रजीत  जैसे कुछ नाम हैं, जिनके बारे में शेष भारत अनजाना है और यह बात सरकार की शिक्षा नीति पर एक सवाल खड़ा करती है जिसने उत्तर पूर्व के इतिहास को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया है।  सीबीएसई की ज्यादातर इतिहास की पुस्तकों में इस क्षेत्र का वर्णन नहीं मिलता है। ऐसा लगता है कि उनका इतिहास अंग्रजों द्वारा उनके इलाकों को विलय करने के बाद ही शुरू होता है।

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