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भारत में एक नैतिक-बौद्धिक आंदोलन चाहिए

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Jan 18, 2014, 12:00 am IST
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दिंनाक: 18 Jan 2014 14:43:21

-डा. सतीश चन्द्र मित्तल-

प्राचीन भारत में जिनको बुद्धिमान कहा गया था, लगभग उसी अर्थ में 17-18वीं शताब्दी में अंग्रेजी शब्दकोष में ह्यइंटेलेक्च्युलह्ण शब्द का प्रयोग किया गया। सामान्यत: इसका अर्थ चिंतक या विचारक लिया गया है। विशेषकर 18वीं शताब्दी में इनको समाज को नैतिक दशा, राजनीतिक दिशा देने तथा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में भावी प्रगति पथ को आलोकित करने वाला माना गया। 1917 की रूसी क्रांति के पश्चात रूसी भाषा के शब्द इंटेलिजेंशिया शब्द को गढ़ा गया जिसे अंग्रेजी भाषा के शब्द ह्यइंटेलेक्च्युलह्ण के अर्थ में लिया गया तथा जिसका अर्थ ह्यइंटेलेक्च्युलह्ण वर्ग या बिरादरी समझा
गया है।
पाश्चात्य देशों में इसका स्वरूप
पाश्चात्य देशों में जब राजनीतिक शक्तियों तथा धर्म चिंतकों एवं ईसाई पादरियों के संघर्षस्वरूप धार्मिक नेताओं का प्रभाव कम होने लगा, तब पाश्चात्य समाज का ह्यइंटेलेक्च्युलह्ण पर भरोसा बढ़ने लगा। फ्रांस के रूसो से बुद्धिमानों की यह कहानी प्रारंभ होती है। बाद में वाल्टेयर बैंथम, जान स्टुअर्ट मिल, कार्ल मार्क्स, डार्विन, फ्रायड,नवी तथा स्पेंगुलर आदि को इस कोर्ट में रखा गया। अमरीका में अमरीकन अंग्रेजी शब्दकोष के एकमात्र निर्माता बबस्टर तथा नोआम चांम्सकी-भाषा शास्त्री को प्रमुख स्थान दिया गया।
मोटे रूप से पाश्चात्य विद्वानों के प्रेरक तत्व भिन्न रहे। उन्होंने अपने ढंग से राष्ट्रीय एवं राजनीति चेतना जाग्रत करने में भौतिक जगत को अत्यन्त महत्ता, संवेदना के स्थान पर तर्क एवं बुद्धि तथा धर्म के स्थान पर उसे इसकी संकीर्णता, घृणा, भय तथा इसकी रूढि़वादिता से जोड़ा, तथापि कुछ ने ईसाई प्रचार द्वारा अपने उपदेशों एवं आदेशों से भी प्रभावित किया। उन्होंने धर्म के व्यापक अर्थ कर्तव्य को सम्प्रदाय, पूजा पद्धति अथवा प्राचीन रूढि़यों तक सीमित रखा।
बीसवीं शताब्दी में फ्रांस के प्रसिद्ध विद्वान बेंदा ने एक प्रसिद्ध पुस्तक ह्यबुद्धिजीवियों का विश्वासघातह्ण लिखी जिसमें पाश्चात्य विद्वानों को दल तथा जाति आदि की प्रतिबंधता की आलोचना की। उसने विद्वानों को राजनीति से दूर रहने के लिए सचेत किया तथा अपना ध्यान चिंतन-मनन की ओर लगाने को कहा था।
यह सत्य है कि पाश्चात्य जगत में बुद्धिमानों की प्रतिबंधता बढ़ती गई। विशेषकर 1940-1950 के दशकों में पाश्चात्य समाज में उनके जीवन दर्शन, आस्थाओं , मान्यताओं तथा विचारों की कटु आलोचनाएं होने लगी। उनके विचार इतिहास की कसौटी पर खरे नहीं उतरे तथा शीघ्र ही कालबाह्य समझे जाने लगे। उदाहरणत: 19वीं शताब्दी में यूरोप में घर-घर गाये जाने वाला बैंथम की उपयोगितावाद का विचार अधिकतम व्यक्तियों के लिए अधिकतम सुखों की कल्पना भावहीन हो गई। जान स्टुअर्ट मिल का स्वतंत्रता का विचार क्षीण हो गया। 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के तीन यूरोपीयन पैगम्बर- मार्क्स, फ्रायड तथा स्पेन्गुलर अपने ही ऐतिहासिक निष्कर्षों में पूर्ण विफल रहे। मार्क्स की भविष्यवाणी के अनुसार न ही पहले इंग्लैण्ड में क्रांति आई और न ही पूंजीवाद का विनाश हुआ। न ही फ्रायड का अचेतन मन का सिद्धांत व्यावहारिकता की कसौटी पर खरा उतरा और न ही स्पेंगुलर के अनुसार पश्चिम का पतन हुआ। बेचारे डार्विन का प्राकृतिक चुनावों का सिद्धांत तथा शक्तिशाली के अस्तित्व का विचार सर्वमान्य न हुआ। कोरे भौतिकवाद की बालू पर खड़े विचारों की दीवारें स्वयं ध्वंस होने लगी।
भारत में विद्वानों की परम्परा
भारत में ह्यइंटेलेक्च्युलह्ण का अर्थ पूर्व से ही बुद्धिमान माना गया। इन्हें विचारक, चिंतक, गुरु, आचार्य, ऋषि-मनीषी, दार्शनिक, सन्त, मन्त्र दृष्टा आदि कहा गया है। इन्हें समाज में उच्चतम स्थान प्रदान किया गया। ये व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के पथ प्रदर्शक रहे। इनकी भूमिका दल, जाति, वर्ग, आदि से ऊपर उठकर सदैव सर्वस्पर्शी तथा व्यापक रही। नर से नारायण अथवा व्यक्ति, समष्टि तथा यहां तक की परमेष्टी के चिंतन में इनकी भूमिका प्रभावी रही। इनके उपदेश सत्यं, शिवम तथा सुन्दरम् के उद्घोषक रहे। इन्होंने मानव को ज्ञान-विज्ञान देने में विशिष्ट भूमिका तथा राष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में सदैव प्रगति के प्रति उत्साह तथा सहयोग की भूमिका अपनाई है। इन्होंने अपने गंभीर अध्ययन अनुभवों तथा अनुभूतियों से समाज का मार्ग प्रशस्त किया। इनका यह योगदान किसी ना किसी रूप में भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन तक चलता रहा। प्राचीनकाल में वशिष्ठ, वाल्मीकि, वेदव्यास, शुकदेव, गौड़पाद, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर आदि हमारे मार्गदर्शक रहे। मध्यकाल में रामानुज, माधव, वल्लभ, रामानन्द, ज्ञानेश्वर, चैतन्य कबीर, नानक, रविदास, तुलसी, तुकाराम, रामदास तथा गुरु गोविन्द सिंह हुए जो समाज के प्रेरक थे। आधुनिक काल में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानंद, महादेव गोविंद रानाडे, महर्षि अरविंद, बंकिम, तिलक, कवि निराला, रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा महात्मा गांधी इसी लम्बी श्रृंखला के अभिन्न अंग रहे।
स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय बुद्धिजीवी
स्वतंत्रता के पश्चात भारत में बुद्धिमान धीरे-धीरे बुद्धिजीवी बन गये। अधिकतर ने भारतीय आध्यात्मिकता धर्म (व्यापक अर्थ में) हिन्दू संस्कृति, भाषा, साहित्य, कला तथा दर्शन की महान पूर्व विरासत को कम महत्व देते हुए पाश्चात्य भौतिकवाद कोरे तर्क तथा धर्म के पाश्चात्य रीलीजन अथवा मुस्लिम मजहब की भावना का अनुसरण करने लगे। उनकी स्थिति विचित्र सी बन गई। वे न भारतीय नैतिक आदर्श रख सके और न ही सांस्कृतिक अथवा राजनीतिक क्षेत्रों में अपनी यथेष्ट भूमिका निभा सके। अनेक बुद्धिजीवियों ने भारत तथा हिन्दू विचारों के विरोध में अपनी ऊर्जा लगा दी। कुछ बुद्धिजीवियों को मसिजीवी तथा कलमघिस्सू भी कहा जाने लगा। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने स्कूल प्रोजेक्ट से लेकर विश्वविद्यालयी छात्र-छात्राओं के शोध ग्रंथों अर्थात एम. फिल, पीएचडी तथा एमबीए की एलाइन्मेन्टस् लेखन का व्यवसाय अपना लिया, भाषा की दृष्टि से अनेक बुद्धिजीवी पहले से ही संस्कृत के ज्ञान से शून्य ही नहीं बल्कि उसके आलोचक थे। हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति भी उन्होंने दुर्लक्ष्य किया। स्वतंत्रता के पश्चात भी अनेक बुद्धिजीविहीन भावना तथा दासता के दायरे से मुक्त न हो सके। कुछ बुद्धिजीवियों ने अपने को राजनीति प्रशासन के खूंटे से अपने को बांध लिया। यश, प्रतिष्ठा तथा पुरस्कार पाने की चाह ने कुछ ने भारतीय बुद्धिमानों की उज्ज्वल परम्परा को ही तिलांजलि दे दी।
भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। परन्तु अनेक बुद्धिजीवी इसकी सीमाएं तथा मर्यादा भूल गये। वे राजनीति से अत्याधिक प्रभावित अथवा प्रेरित हो गए। उन्होंने निष्पक्षता की कसौटी अथवा न्यायाधीश की अपेक्षित भूमिका छोड़, वकील की भूमिका अपना ली। उन्होंने अपने विचारों से विरोधियों के प्रति चरित्र हनन की प्रक्रिया, धर्म तथा संस्कृति पर कुठाराघात, भारतीय भाषा, कला तथा साहित्य का अव्यमूल्यन कर दोहरे मापदण्ड अपनाएं।
1964 में पटना में भारत के समाजवादियों ने भारत के बुद्धिजीवियों को एकजुट करने के लिए एक सम्मेलन भी किया, परन्तु प्रयास पूर्णत: असफल रहा। मोटे रूप से भारतीय बुद्धिजीवियों को दो खेमों में बंटा पाते हैं। एक वे है जिन्हें वामपंथी, प्रगतिशील, सेकुलरवादी कहा जाता है तथा दूसरों को वे ही कुछ गढ़े हुए वाक्यों में शब्दों में साम्प्रदायिक फासिस्ट, लोक विरोधी, प्रतिक्रियावादी आदि कहते हैं। सामान्यत: वे दक्षिणपंथी माने जाते हैं। नि:संदेह आधुनिक बुद्धिजीवी के जीवन तथा विचारदर्शन में ठहराव तथा भटकाव जैसी स्थिति है। वह राष्ट्रीय चेतना के प्रकाश में न समस्याओं का सही विश्लेषण कर पा रहा है और न ही उसका निराकरण। वह भारत के अतीत तथा सांस्कृतिक जड़ों से उखड़ रहा है। सामान्यत: प्रबुद्ध समाज में एक प्रश्न उभर कर सामने आ रहा है कि क्या बुद्धिजीवी का जीवन, आदर्श और उसका लेखन समाज को कोई सकारात्मक दिशा देते भी हैं या नहीं? क्या हम उसके कथन या लेखन पर कोई भरोसा कर सकते हैं? क्या उसका व्यक्तिगत जीवन भी अपने बताए आदर्शों के अनुकूल है भी या नहीं?
बदलते सन्दर्भ में कुछ सुझाव
विश्व के बदलते हुए परिवेश में परिवर्तन की प्रक्रिया भी तेजी से बदली है। गत तीन दशकों में यातायात के साधनों के विकास तथा सूचना तकनीकी के तीव्र प्रसार एवं विविध आविष्कारों ने विश्व को सिकोड़ दिया है। अनेक विशाल पुस्तकालयों की पाठक संख्या कम हो रही है तथा उसका स्थान माइक्रोफिल्म, कम्प्यूटर, लैपटॉप, सीडी, इन्टरनेट व विभिन्न वैब साइट्स ने ले लिया है। इन सभी ने विश्व ज्ञान की बढ़ोतरी में नये-नये आयाम जोड़ दिये हैं। परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि जहां एक ओर वैश्वीकरण तथा भूमंडलीकरण का दबाव बढ़ा है वहां दूसरी ओर स्थानीय संस्कृति और अपनी जड़ों की पहचान का आकर्षण भी बढ़ा है। इस संक्रमणकाल में पुस्तकें एक शक्तिशाली सांस्कृतिक अस्त्र है। वस्तुत: पुस्तक का कोई भी विकल्प नहीं है। अत: समाज के विकास के लिए पठनीयता जीवन का अंग बनना आवश्यक है। आज देश में बहुत छोटा सा हिस्सा है जो इसे दैनिक कर्म का भाग मानता है। अत: स्वाभाविक रूप से पाठकीय पिछड़ापन बढ़ा है तथा पुस्तकें अल्मारियों में कैद हो गई है। देश के भावी विकास के लिए पुस्तकों के माध्यम से यह चिंतन की अवरुद्ध धारा, नित्य प्रवाहित होनी चाहिए। इंग्लैण्ड, अमरीका, रूस के अलावा चीन इस बारे में सर्वाधिक चिंतित है।
देश विदेश की बदलती परिस्थितियों में व्यक्तिगत चिंतन के साथ-साथ सामूहिक बौद्धिक चिंतन समय की आवश्यकता लगती है। भारत के लिए यह कोई नई सोच या प्रयोग नहीं है। ऐसे अनेक उदाहरणत: भारत के ऋषियों मनीषियों ने कई कई महीनों तक गंभीर विषयों पर चिंतन कर निष्कर्ष निकाले तथा समाज का मार्ग प्रशस्त किया। बंकिम चट्टोपाध्याय ने अपने प्रसिद्ध पत्र वर्ग दर्शन तथा भगिनी निवेदिता ने अपने उद्बोधनों में सामूहिक बौद्धिक चिंतन को बड़ा महत्व दिया हैं। इसी भांति के विचारों के लिए अमरीका तथा अन्य देशों में थिंक टैंक के रूप में सरकारी या गैर सरकारी रूप से अनेक लोग हैं। आवश्यक लगता है कि भारत के विद्वान इस दिशा में आगे बढ़ें। निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि भारत के सुन्दर भविष्य तथा राष्ट्रोत्थान के लिए वर्तमान बुद्धिजीवी को बुद्धिमान बनना होगा। उसे अपनी राष्ट्रीय पहचान न भूलकर भारतीय अध्यात्म, धर्म, संस्कृति, विज्ञान, साहित्य तथा दर्शन के साथ भौतिकवादी चिंतन में सन्तुलन लाना होगा। यांत्रिक सभ्यता के विस्तार के साथ मानवीय मूल्यों की श्रेष्ठता, पाश्चात्य अंधानुकरण के स्थान पर आवश्यकतानुसार परिवर्तित जीवन की दिशा तथा मौलिक एकत्व के आधार पर अपना सांस्कृतिक जीवन दर्शन अपनाने को प्रेरित करना होगा। अत: भारत में एक सशक्त नैतिक बौद्धिक आन्दोलन की नितांत आवश्यकता है, ताकि भारत विश्व के प्रबुद्ध, समृद्ध तथा गौरवपूर्ण राष्ट्रों में अग्रणी हो।  

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