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अनेक प्रश्न बार-बार मन में उठते हैं कि तथाकथित सेकुलर मीडिया के निशाने पर हिन्दू ही क्यों रहता है? हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों को ही झूठ और तथ्य विरोधी आधार पर खलनायक व हिंसक साबित करने पर क्यों आतुर रहता है? मुस्लिम सांप्रदायिकता, मुस्लिम आतंकवाद और मुस्लिम हिंसा पर सेकुलर मीडिया चुप्पी क्यों साध लेता है? क्या सेकुलर मीडिया को हिन्दू विरोधी खबरें प्रचारित करने के लिए कोई पैसा देता है? मुजफ्फरनगर दंगे में उपरोक्त सभी प्रश्नों के जवाबों की खोज हो रही है। अभी हाल ही में सीरिया के राजदूत ने भारतीय मुस्लिम आतंकवादियों के सीरिया में लड़ने व सक्रिय होने का आरोप लगाया था। क्या तथाकथित सेकुलर मीडिया ने सीरिया में भारतीय मुस्लिम आतंकवादियों के लड़ने व सक्रिय होने की खबर प्रमुखता और गंभीरता से छापी थी? क्या किसी समाचार चैनल ने इस पर बहस या चर्चा कराई? मुजफ्फरनगर दंगे में मुस्लिम परस्त खबरों ने एक ओर जहां मीडिया आचरण कोड की धज्जियां उड़ायी हैं,वहीं एक बड़े संवैधानिक नियामक की भी जरूरत महसूस हुई है जो दंगों के दौरान मीडिया की रपटों की जांच समीक्षा करे और तथ्यगत विरोधी व एकतरफा या किसी परस्ती का शिकार होकर समाचार देने वाले मीडिया समूहों और मीडियाकर्मियों को दंडित कर सके और उन्हें सच का आईना भी दिखा सके। मुजफ्फरपुर दंगों के सन्दर्भ में प्रिंट मीडिया ने एक हद तक संतुलित खबरें दी हैं, वहीं वेब मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने सरासर झूठे समाचारों को प्रमुखता से दिखाया है। इसमें देशी-विदेशी सभी चैनल शामिल हैं। अगर मीडिया का आचरण और मीडिया का व्यवहार सही में निष्पक्ष होता व मीडिया सही में पंथनिरपेक्ष होता तो यह जरूर दिखाया जाता और प्रसारित किया जाता कि कैसे और किस मस्जिद से निहत्थे हिन्दुओं पर गोलियां चली थीं? किस मस्जिद से चली गोलियों ने पत्रकार राजेश वर्मा और फोटोग्राफर की जान ली थी? मस्जिद तो इबादत की जगह होती है। वहां पर हथियार और हिंसा की अन्य वस्तुएं रखना इस्लाम विरोधी माना जाता है, पर मस्जिद में हथियार छुपा कर रखे गये थे। मस्जिद में छिपा कर रखे गये हथियारों से ही निहत्थे हिन्दुओं का कत्लेआम किया गया। ह्यबहू-बेटी बचाओ पंचायतह्ण में आये निहत्थे हिन्दुओं का कत्लेआम करने कट्टरवादी क्या सत्य-अहिंसा के पुजारी थे? बीबीसी अपने आपको निष्पक्ष पत्रकारिता का सिरमौर कहता है। भारत विरोधी और हिन्दू विरोधी खबरों को वह उछालने की किसी भी हद को पार कर सकता है। क्या बीबीसी में कार्यरत मुस्लिम पत्रकारों को हिन्दुओं के खिलाफ कुछ भी लिखने की छूट है? मुजफ्फरनगर दंगे में ही बीबीसी के मुस्लिम पत्रकारों की रिपोर्टिंग आप खुद देख लीजिये। बीबीसी के पत्रकार दिलनवाज पाशा ने छह सितम्बर को लिखा है कि दंगे की शुरुआत शाहनवाज और गौरव के बीच रास्ते में किसी बात को लेकर हुई थी, जबकि इसके पीछे महिला से छेड़छाड़ थी। गौरव की बहन के साथ शाहनवाज पिछले एक साल से छेड़खानी कर रहा था। एक बार शाहनवाज ने गौरव की बहन का अपहरण तक करने का प्रयास किया था। शाहनवाज दुराचारी था,फिर भी उसके पक्ष में पूरी मुस्लिम आबादी खड़ी हो गयी और सैकड़ों की भीड़ ने गौरव और उसके ममेरे भाई सचिन की हत्या निर्ममतापूर्वक कर दी। अगर बीबीसी का मुस्लिम पत्रकार निष्पक्ष होता और वह इस्लामिक कट्टरता से मुक्त होता तो यह लिखता कि शाहनवाज एक महिला हिंसा का अपराधी था। महिला हिंसा का अपराधी शाहनवाज के पक्ष में मुस्लिम आबादी ने एकजुट होकर दंगे की शुरुआत की थी। इतना ही नहीं बल्कि हिन्दुओं की ह्यबेटी-बहु बचाओ पंचायतह्ण पर दिलनवाज पाशा ने लिखा कि जाटों की पंचायत में भड़काने वाले गैरजिम्मेदाराना भाषण दिये गये थे। पर उसने यह नहीं लिखा कि किस प्रकार नमाज अदा करने के बाद अराजक भीड़ के सामने मुस्लिम नेताओं व मौलानाओं ने हिन्दुओं का कत्लेआम करने जैसे भड़काऊ भाषण दिये थे? सिर्फ दिलनवाज पाशा की ही बात नहीं है,बल्कि बीबीसी में जितने भी मुस्लिम पत्रकार हैं सभी की खबरें ऐसी ही होती हैं। अब यहां यह सवाल उठता है कि क्या बीबीसी सिर्फ हिन्दू विरोधी- भारत विरोधी और मुस्लिम जिहाद की प्राथमिकता से ही मुस्लिम पत्रकारों की नियुक्ति करता है? अगर नहीं तो फिर बीबीसी के मुस्लिम पत्रकारों की खबरें निष्पक्ष और संतुलित क्यों नहीं होती हैं? इस पर बीबीसी संज्ञान लेता क्यों नहीं है?भारत के अधिकांश समाचार चैनल भी मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर निष्पक्ष नहीं दिखे। कई चैनलों की खबरें तो बहुत ही खतरनाक थीं। इन चैनलों ने एकतरफा समाचार दिखाकर पत्रकारिता के मापदंडों को ही तार-तार कर दिया। एनडीटीवी की अराजक, सनसनी फैलाने वाली, एकतरफा रिपोटिंर्ग को बड़े-बड़े मीडियाकर्मी और अपने आप को सेकुलर कहने वाले लोग भी पचा नहीं पाये हैं। बीबीसी हिन्दी सेवा के पूर्व संपादक विजय राणा तक को एनडीटीवी के खिलाफ खड़े होकर विरोध करना पड़ा है। विजय राणा अपनी बात में कहते हैं कि एनडीटीवी ने मुजफ्फरनगर दंगे की रिपोटिंर्ग एकतरफा की थी, मीडिया आचरण कोड की धज्जियां उड़ायी गईं। ऐसी खतरनाक रिपोर्टिंग का मकसद साफ है। दरअसल एनडीटीवी के संवाददाता श्रीनिवासन जैन ने जाटों को खलनायक के तौर पर प्रस्तुत किया और यह स्थापित करने की कोशिश की कि सिर्फ और सिर्फ जाट ही दंगे के लिए दोषी हैं और उसने भी सचिन-गौरव की मुस्लिम आबादी की हिंसक भीड़ द्वारा हत्या कर दंगे की शुरुआत करने और महिला हिंसा-छेड़छाड़ को सिरे से गायब कर दिया। मीडिया ने स्वयं एक आचरण कोड बनाया है। मीडिया आचरण कोड के अनुसार दंगे में प्रभावित परिवार की जाति और मजहब से जुड़ी जानकारियां नहीं देनी हैंपर एनडीटीवी का पत्रकार श्रीनिवासन जैन अपनी 'लाइव रिपोर्टिंग' में दिखाता है कि मुस्लिम निर्दोष हैं, मुस्लिम डरे हुए हैं, अपने घरों से पलायन कर रहे हैं, जाट मुस्लिमों की हत्या कर रहे हैं। ह्यबेटी-बहू बचाओ पंचायतह्ण से निहत्थे लौट रहे लोगों को कैसे मुस्लिमों ने गोलियों से भूना, अन्य हथियारों से कत्लेआम किया, दंगे में मारे गये लोगों के परिजन और हिन्दुओं के जलाये घर, हिन्दुओं की लूटी गयी संपतियों और किस प्रकार से हिन्दू डरे हुए हैं उसकी न तो श्रीनिवासन जैन ने खोज-खबर ली और न ही उसकी लाइव वीडियो दिखायी, इतना ही नहीं हताहत और मारे गए हिन्दुओं के परिजनों की पीड़ा भी नहीं दिखाई गई। पत्रकार राजेश वर्मा को मुस्लिम दंगाइयों ने मारा डाला। मुस्लिम दंगाइयों ने राजेश वर्मा को इसलिए मार डाला कि वह मुस्लिम दंगाइयों की करतूत और हिंसा के साथ ही साथ निहत्थे हिन्दुओं के कत्लेआम का लाइव वीडियो संकलित करा रहा था। फोटोग्राफर के कैमरे में राजेश वर्मा की हत्या की पूरी कहानी है, किस मस्जिद से गोलियां चल रही थीं, गोलिया चलाने वाले मुस्लिम दंगाई कौन थे, इन दंगाइयों को शह देने वाले मुस्लिम नेता कौन-कौन थे, यह सब प्रमाण के तौर पर उपलब्ध हैं। टीवी चैनलों ने पत्रकार राजेश वर्मा की हत्या की पूरी परतें खोलीं नहीं। आखिर मुस्लिम दंगाइयों का शिकार एक कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार होता है और राजेश वर्मा को इसलिए शहीद होना पड़ा कि उसकी रिकाडिंर्ग और कवरेज मुस्लिम दंगाइयों की करतूत की तह-तह खोलने वाला था। अगर चैनल ईमानदार होते, इनमें कर्तव्यनिष्ठा होती, इन पर निष्पक्षता का भार होता और इन्हें अपनी विश्वसनीयता की चिंता होती तो ये चैनल जरूर राजेश वर्मा की हत्या की खबर को प्रमुखता से दिखाते। शहीद हुए पत्रकार राजेश वर्मा के परिजन किस तरह से बेहाल हैं, मुस्लिम दंगाइयों के प्रति राजेश वर्मा के परिजनों की सोच क्या है, यह भी दिखाने की जरूरत चैनलों ने नहीं समझी? विनोद कापडी जैसे पत्रकार जरूर राजेश वर्मा की शहादत पर चितिंत हैं और राजेश वर्मा के परिजनों की मदद के लिए आगे आये हैं। चैनल मठाधीश पूरी तरह से राजेश वर्मा की शहादत पर चुप्पी साधे बैठे हैं।हिन्दुओं को अन्यायी, शोषक और हिंसक और मुस्लिमों को उदार और शांति प्रिय दिखाने की होड़ लगी हुई, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लव जिहाद के कारण पूरा हिन्दू समाज चिन्तित है। मुजफ्फरनगर में गौरव की बहन के साथ छेड़छाड़ और उसे मुस्लिम अपराधी शाहनवाज द्वारा अपहरण करने के प्रयास की अकेली घटना भी तो नहीं है। पिछले तीन-चार महीनों में अनेक हिन्दू लड़कियों के साथ मुस्लिम युवकों ने सामूहिक तौर पर बलात्कार किये हैं। हिन्दू जब विरोध करता है तब मुस्लिम आबादी एकजुट होकर हिंसा पर उतर आती है। पहले होता यह था कि सिर्फ पीडि़त हिन्दू ही विरोध के लिए आगे आता था और न्याय की मांग करता था, इसलिए उसके विरोध की आवाज दबा दी जाती थी। लेकिन अब वहां के हिन्दू एकजुट होने लगे हैं। वे इस तरह की घटनाओं का विरोध भी करने लगे हैं। इसके बावजूद इस तरह की घटनाएं खूब हो रही हैं। इसकी वजह है वोट बैंक की राजनीति। अखिलेश-मुलायम की सरकार मुस्लिम युवकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करना चाहती है। उसे डर है कि सरकार ने ऐसा कुछ किया तो उसे मुस्लिम वोट नहीं मिलेंगे। इसीलिए गौरव और सचिन के हत्यारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। उलटे उनके परिजनों पर ही मुकदमा कर दिया गया। क्या यह सब सेकुलर मीडिया को मालूम नहीं है? मुजफ्फरनगर दंगों में मीडिया ने फिर किया पक्षपात लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के तौर पर निष्पक्ष रपट प्रस्तुत न करके सिर्फ एक पक्षीय रपट प्रस्तुत करके मुजफ्फरनगर दंगों ने भारतीय सेकुलर मीडिया का चेहरा एक बार फिर से उजागर कर दिया गया है। मीडिया ने जिस तरह सिर्फ मुस्लिम समुदाय के लोगों को दंगे से प्रताडि़त और प्रभावित दिखाया उससे साफ प्रतीत होता है कि मीडिया के प्रसिद्ध चेहरे और लोग ऐसे मामलों में हमेशा पक्षपात पूर्ण रवैया अपनाते हैं। मुजफ्फरनगर में बहन के सम्मान को बचाने निकले दो भाइयों की अल्पसंख्यक समुदाय के दो लोगों ने निर्ममता से हत्या कर दी, तब भी वहां के प्रशासन ने समय रहते कोई कार्रवाई नहीं की। मीडिया ने भी इस घटना को सही तरीके से और सही साक्ष्यों के साथ नहीं उठाया। इस घटना के बाद से मुजफ्फरनगर के तमाम गांवों में तनाव था। महापंचायत से लौटते हुए लोगों पर हुए हमले के बाद हिंसा भड़क उठी। तब भी मीडिया खामोश ही रहा। आईबीएन चैनल ने दावा किया कि सोशल मीडिया ने दंगे को भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चैनल ने कहा कि वहां के किसान और स्थानीय लोग मुजफ्फरनगर दंगे के बारे में सोशल मीडिया पर 'अपडेट' दे रहे हैं। क्या आईबीएन के 'एडिटर इन चीफ' राजदीप सरदेसाई के पास इस बात का कोई साक्ष्य है कि ट्रैक्टर चलाने वाले किसान अपना काम छोड़कर अपने ब्लैकबेरी मोबाइल और आईफोन पर ट्विटर और फेसबुक पर दंगों के बारे में अपडेट दे रहे थे? यदि ऐसा नहीं है तो इस दावे का कोई आधार नहीं कि सोशल मीडिया ने दंगा भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नेटवर्क/18 के सहयोगी चैनल आईबीएन सेवन के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष स्वयं मुजफ्फरनगर गए। उन्होंने भी बिना किसी तथ्य के दंगे को लेकर जो सवाल उठाए और आरोप लगाए उनका कोई अर्थ नहीं था। (साभार: नीति सेंट्रल डॉट कॉम) विष्णु गुप्त
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