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चित्त निर्मल करना ही सर्वोपरि बात है

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Sep 21, 2013, 12:00 am IST
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दिंनाक: 21 Sep 2013 13:53:28

वेदान्त दर्शन के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक शंकराचार्य थे। ठोस तर्क द्वारा उन्होंने वेदान्त के सत्यों को वेदों से निकाला और उनके आधार पर उन्होंने ज्ञान के उस आश्चर्यजनक दर्शन का निर्माण किया जो कि उनके भाष्यों में उपदिष्ट है। उन्होंने ब्रह्म के सभी परस्पर विरोधी दर्शनों का सामंजस्य किया और यह दिखाया कि केवल एक ही असीम सत्ता है। उन्होंने यह भी प्रदर्शित किया कि मनुष्य ऊर्ध्व मार्ग का आरोहण शनै: शनैं ही कर सकता है। इसलिए विभिन्न उपस्थापनाओं की आवश्यकता उसकी क्षमता की विविधता के अनुसार पड़ती है। ईसा की वाणी में भी हमें कुछ ऐसा ही प्राप्त है। उन्होंने अपने श्रोताओं की क्षमता की विभिन्नता के अनुरूप अपने उपदेश को स्पष्ट ही समायोजित किया है। पहले उन्होंने उनके एक स्वर्गस्थ परमपिता के विषय में और फिर उससे प्रार्थना करने की शिक्षा दी। आगे चलकर वह एक पग और ऊपर उठे और उनसे कहा कि, ‘मैं अंगूर की लता हूं और तुम सब उसकी शाखाएं हो’, और अन्त में उन्होंने परम सत्य का उपदेश दिया- ‘मैं और मेरे पिता एक हैं’ और ‘स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है।’ शंकर ने शिक्षा दी कि ये तीन बातें ईश्वर के महान वरदान हैं : (1) मानव शरीर (2) ईश्वर-लाभ की प्यास और (3) ऐसा  गुरु जो हमें ज्ञानलोक दिखा सकें। जब वे तीन महान वरदान हमारे अपने हो जाते हैं, तब हमें समझना चाहिए कि हमारी मुक्ति निकट है। केवल ज्ञान हमें मुक्त कर सकता है और हमारा परित्राण भी कर सकता है, लेकिन ज्ञान होते ही शुभ को भी अवश्य हट जाना चाहिए।
वेदान्त का सार है कि सत् केवल एक ही है और प्रत्येक आत्मा पूर्णतया वही सत् है, उस सत् का अंश नहीं। ओस की हर बूंद में ‘सम्पूर्ण’ सूर्य प्रतिबिम्बत होता है। देश, काल और निमित्त द्वारा आभासित ब्रह्म ही मनुष्य है, जैसा हम उसे जानते है, किन्तु सभी नाम रूप या आभासों के पीछे एक ही सत्य है। निम्न अथवा आभासिक स्व की अस्वीकृति ही नि:स्वार्थता है। हमें अपने को इस दु:खद स्वप्न से मुक्त करना है कि हम यह देह हैं। हमें यह ‘सत्य’ जानना ही चाहिए कि ‘मैं वह हूं’। हम बिन्दु नहीं जो महासागर में मिलकर खो जाएं, हममें प्रत्येक ‘सम्पूर्ण’ सीमाहीन सिन्धु है, और इसकी सत्यता की उपलब्धि हमें तब होगी, जब हम माया की बेड़ियों से मुक्त हो जाएंगे। असीम को विभक्त नहीं किया जा सकता, द्वैतरहित एक का द्वितीय नहीं हो सकता। सब कुछ वही एक ‘है’। यह ज्ञान सभी को प्राप्त होगा, किन्तु हमें उसे अभी प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना चाहिए। क्योंकि जब तक हम उसे प्राप्त नहीं कर लेते, हम मानव जाति की वस्तुत: उत्तम सहायता नहीं कर सकते। जीवन्मुक्त (जीवित रहते हुए मुक्त अथवा ज्ञानी) ही केवल यथार्थ प्रेम, यथार्थ दान, यथार्थ सत्य देने में समर्थ होता है और सत्य ही हमें मुक्त करता है। कामना हमें दास बनाती है, मानों वह एक अतृप्य अत्याचारी शासिका है जो अपने शिकार को चैन नहीं लेने देती, किन्तु जीवन्मुक्त व्यक्ति इस ज्ञान तक पहुंचकर कि वह अद्वितीय ब्रह्म है और उसे अन्य कुछ काम नहीं है, सभी कामनाओं को जीत लेता है।
मन हमारे समक्ष-देह, लिंग, संप्रदाय, जाति, बन्धन-आदि सभी भ्रमों को उपस्थित करता है,  इसलिए जब तक मन को सत्य की उपलब्धि न हो जाए, तब तक उससे निरन्तर सत्य कहते रहना है। हमारा असली स्वरूप आनन्द है, और संसार में जो कुछ सुख हमें मिलता है, वह उस परमानन्द का केवल प्रतिबिम्ब, उसका अणुमात्र भाग है, जो हम अपने असली स्वरूप के स्पर्श से पाते हैं।
अभ्यास से योग, योग से ज्ञान, ज्ञान से प्रेम और प्रेम से परमानन्द की प्राप्ति होती है। ‘मुझे और मेरा’ एक अन्धविश्वास है, हम उसमें इतने समय रह चुके हैं कि उसे दूर करना प्राय: असम्भव है। परन्तु यदि हमें सर्वोच्च स्तर पर पहुंचना है तो हमें इससे अवश्य मुक्त होना चाहिए। हमें सुखी और प्रसन्न होना चाहिए, मुंह लटकाने से धर्म नहीं बनता। धर्म संसार में सर्वाधिक आनन्द की वस्तु होना चाहिए क्योंकि वही सर्वोत्तम वस्तु है। तपस्या हमें पवित्र नहीं बना सकती। जो व्यक्ति भगवत-प्रेमी और पवित्र है, वह दु:खी क्यों होगा? उसे तो एक सुखी बच्चे के समान होना चाहिए, क्योंकि वह तो सचमुच भगवान की ही एक सन्तान है। धर्म में सर्वोपरि बात चित्त को निर्मल करने की है। स्वर्ग का राज्य हमारे भीतर है, पर केवल निर्मल चित्त व्यक्ति ही राजा के दर्शन कर सकता है। जब हम संसार का चिन्तन करते हैं, तब हमारे लिए संसार ही होता है, किन्तु यदि हम उसके पास इस भाव से जाएं कि वह ईश्वर है तो हमें ईश्वर की प्राप्ति होगी। हमारा ऐसा चिन्तन प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक व्यक्ति के प्रति होना चाहिए-माता, पिता, बच्चे, पति, पत्नी, मित्र और शत्रु, सबके प्रति। सोचो तो, हमारे लिए समग्र विश्व कितना बदल जाए, यदि हम चेतनापूर्वक उसे ईश्वर से भर सकें! ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ न देखो तब हमारे सभी दु:ख, सभी संघर्ष, सभी कष्ट सदैव के लिए हमसे छूट जाएंगे।
प्रत्येक वस्तु की सत्यता ब्रह्म पर निर्भर है और इस सत्य की यथार्थत: उपलब्धि करने पर ही हम किसी सत्य को प्राप्त कर पाते हैं। जब हम कोई भेद-दर्शन नहीं करते, तभी हम अनुभव करते हैं कि ‘मैं और मेरे पिता एक है’।
भगवद्गीता में कृष्ण ने ज्ञान का अतीव स्पष्ट उपदेश किया है। यह महान काव्य समस्त भारतीय साहित्य का मुकुटमणि माना जाता है। यह वेदों पर एक प्रकार का भाष्य है। वह हमें दिखता है कि आध्यात्मिक संग्राम इसी जीवन में लड़ा जाना चाहिए,   अत: हमें उससे भागना नहीं चाहिए, अपितु उसको विवश करना चाहिए कि जो कुछ उसमें है, वह उसे हमें प्रदान करे। चूंकि गीता उच्चतर वस्तुओं के लिए इस संघर्ष का प्रतिरूप है, इसलिए  दृश्य को रणक्षेत्र के मध्य  प्रस्तुत करना अतीव काव्यमय हो गया। विरोधी सेनाओं में से एक के नेता अर्जुन के सारथी के वेष में कृष्ण उसे दु:खी न होने और मृत्यु से न डरने की प्रेरणा देते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि वह वस्तुत:  अमर है, और मनुष्य के प्रकृत स्वरूप में किसी भी विकारशील वस्तु का स्थान नहीं है। अध्याय के बाद अध्याय में कृष्ण दर्शन और धर्म की उच्च शिक्षा अर्जुन को देते हैं। यही शिक्षाएं इस काव्य को इतना अदभूत बनाती हैं, वस्तुत: समस्त वेदान्त उसमें समाविष्ट है। वेदों का उपदेश है कि आत्मा असीम है और किसी प्रकार भी शरीर की मृत्यु से प्रभावित नहीं होती, आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है और जिसका केन्द्र किसी देह में होता है। मृत्यु (तथाकथित) केवल इस केन्द्र का परिवर्तन है। ईश्वर एक ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि कही नहीं है और जिसका केन्द्र सर्वत्र है और जब हम देह के संकीर्ण केन्द्र से निकल सकेंगे, हम ईश्वर को प्राप्त कर लेंगे जो हमारा वास्तविक आत्मा है।
वर्तमान, भूत और भविष्य के बीच एक सीमा-रेखा मात्र है, अत: हम विवेकपूर्वक यह नहीं कह सकते कि हम केवल वर्तमान की ही चिन्ता करते हैं, क्योंकि भूत और भविष्य से भिन्न उसका कोई अस्तित्व नहीं है। वे सब एक पूर्ण है, काल की कल्पना तो एक उपाधि मात्र है, जिसे हमारी विचार शक्ति ने हम पर आरोपित किया है।

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