थाईलैंड में भारत की अलख जगाता संस्कृत अध्ययन केन्द्र
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राजा के आशीर्वाद और युवरानी के संरक्षण में थाईलैण्ड के संस्कृत विद्वानों के समर्पण का प्रतीक बना यह केन्द्र
श्याम परांडे
अभी हाल ही में थाईलैण्ड के सिल्पाकोर्ण विश्वविद्यालय के अंतर्गत संस्कृत अध्ययन केन्द्र के विशाल परिसर में जाने का अवसर मिला। वहां जो अनुभव हुआ वह अनूठा ही है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि वह शायद दुनिया में संस्कृत को समर्पित सबसे बड़ा भवन होगा। यह आश्चर्य की ही बात है कि ऐसा केन्द्र भारत में नहीं, थाईलैण्ड में स्थित है। केन्द्र को थाईलैण्ड के राजा राम नवम् भूमिबल अतुल्यधज का आशीर्वाद प्राप्त है, जिनके चैपत्तना फाउंडेशन ने इसके लिए भूमि उपलब्ध कराई थी। केन्द्र को उतना ही सहयोग वहां की युवरानी महाचक्री सिरिन्धोर्ण से भी प्राप्त होता है, जिन्होंने संस्कृत पुरालेख विद्या में परास्नातक की उपाधि ली है। युवरानी ने सहर्ष इस केन्द्र की संरक्षक होना स्वीकारा।
केन्द्र के संस्थापक निदेशक डा. चिरापत प्रापेंदविद्या और निदेशक बनने जा रहे डा. सामनियांग ल्येउर्मसाई ने एक छोटी से भेंट में थाईलैण्ड में संस्कृत अध्ययन को बढ़ावा देने की अपनी योजनाओं के बारे में बताया। केन्द्र की पांच मंजिला भव्य इमारत में संस्कृत अध्ययन के लिए तमाम आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध होने जा रही हैं। माना जा रहा है कि आने वाले सत्र में विभिन्न कार्यक्रमों पुरातत्व विज्ञान संकाय सहित के अंतर्ग इस केन्द्र में करीब 200 छात्र दाखिला लेंगे। केन्द्र भारत सरकार को धन्यवाद देता है कि जिसने अपने पहले वायदे को साकार करने की शुरुआत 2003 में की थी जब डा. अमरजीव लोचन ने केन्द्र के कार्यक्रम समन्वयक के नाते तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने आर्थिक सहयोग देने की बात रखी थी। अटल जी ने इसकी सहर्ष अनुमति दी। बाद में, युवरानी के कहने पर भारत सरकार ने बैंकाक स्थित दूतावास के माध्यम से 2 करोड़ रु. का अनुदान जारी किया। बाकी के 15.60 करोड़ शाही थाई सरकार ने दिए। केन्द्र को अभी 4 करोड़ रु. का इंतजार है जिससे वह कक्षाओं, 300 सीटों के सभागार वगैरह का काम पूरा कर सके। यह संस्कृत अध्ययन केन्द्र जून-जुलाई 2015 में 16वां विश्वा संस्कृत सम्मेलन आयोजित करने जा रहा है। यह केन्द्र थाईलैण्ड में संस्कृत और पाली अध्ययन की बढ़ती लोकप्रियता का ही सूचक नहीं है, बल्कि यहां के संस्कृत विद्वानों के मन में संस्कृत की लौ जलाए रखने के प्रति समर्पण को भी दर्शाता है। इसमें संदेह नहीं कि भारतवासी थाईलैण्ड में संस्कृत के प्रति प्रेम को सराहते हुए उससे कुछ प्रेरणा भी लेंगे। संस्कृत सब भाषाओं की जननी कही जाती है, यह हमारे एशियाई पड़ोसियों की तमाम प्रमुख भाषाओं की भी जननी है।
प्राचीन सांस्कृतिक संबंधों की मजबूती की ओर एक कदम
भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच सदियों पुराने सांस्कृतिक संबंधों के बारे में बातें तो बहुत की जाती हैं, लेकिन इधर कुछ सालों में उन संबंधों में नई ऊर्जा पैदा करने के लिए कुछ किया नहीं गया था। अभी 18 जुलाई को भारतीय सांस्कृतिक अध्ययन केन्द्र (आईसीसीएस) और बैंकाक के महिडोल विश्वविद्यालय के एशियाई भाषा और संस्कृति संस्थान (आरआईएलसीए) के बीच इन सांस्कुतिक और भाषाई संबंधों के अध्ययन को बढ़ावा देने संबंधी एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किए गए। आईसीसीएस के एशिया जोन के समन्वयक श्री श्याम परांडे और आरआईएलसीए की निदेशक डा. सोफाना श्रीचम्पा ने समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किए। इस मौके पर आईसीसीएस, दिल्ली के डा. अमरजीव लोचन, महिडोल विवि. के प्रो. सिंहानत नोमनियान, डा. इसरा चुसरी, डा. तियामसून सिरिसिरिसाक और डा. थिरापोग बूनरक्षा मौजूद थे। कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के पूर्व और वर्तमान छात्र भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। समझौता पत्र में कुछ खास बिन्दु हैं-कार्यशालाओं, सम्मेलनों और संयुक्त अकादमिक उपक्रमों के माध्यम से दोनों संस्थानों के बीच सहयोग बढ़ाना, आईसीसीएस नागपुर में भारतीय संस्कृति पर 6 हफ्ते का पाठ्यक्रम तैयार करके कक्षाएं संचालित करेगा, आईसीसीएस आरआईएलसीए के भारत अध्ययन केन्द्र को प्रकाशन और मुद्रण में सहयोग देगा।
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