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ब्रिटिश संविधान के ढर्रे पर चल रहा देश अंग्रेजी लीक पर ही बढ़ा
किसी भी देश का संविधान उसकी नैतिक आत्मकथा होती है। उसमें उसकी सांस्कृतिक उपलब्धियां संग्रहीत की जाती है। संविधान को एक सामाजिक परिवर्तन का चार्टर भी माना जा सकता है। जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता, बराबरी और अधिकार सीमा की सुरक्षा करते हुए राज्य को तत्काल हस्तक्षेप करने का अधिकार प्रदान करता है। संविधान को आमतौर पर शासन व्यवस्था की रूपरेखा के रूप में भी देखा जाता है जिसमें राज्य के स्वरूप और शासनतंत्र के काम-काज की दिशा होती है।
एक विद्वान का कहना है कि मार्क्स और ऐजिंल ने संविधान का ह्यवर्ग संघर्ष की आवश्यकताओंह्ण के रूप में उल्लेख किया है। इस प्रकार एक संविधान वैचारिक संघर्ष स्थल भी माना जा सकता है। एक दृष्टिकोण यह भी है कि संविधान सत्तारूढ़ दल का राजनीतिक खिलौना होता है। जिसका उपयोग कर शासक नेता संवैधानिक तानाशाही प्राप्त कर लेता है।
सवाल यह है कि हम भारत के संविधान को किस नजरिए से देखें? अपने एक स्मारक व्याख्यान में अटल बिहारी वाजपेयी संविधान सभा की संक्षिप्त चर्चा के आधार पर कहते हैं कि ह्यउपर्युक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि स्वतंत्र भारत की संविधान सभा प्रारंभ से ही इस मान्यता पर चल रही थी कि देश को संसदीय पद्घति का अवलंबन करना है। सच्चाई तो यह है कि किस पद्घति का अवलंबन किया जाए, इस पर बहस करने का न समय था, न मानसिकता ही। देश ब्रिटिश पद्घति के ढर्रे पर चल रहा था और उसी ढर्रे को आगे बढ़ाने के लिए फैसला किया गया। सच्चाई यह कि हमने स्वतंत्र होने के पश्चात अपना पृथक संविधान बनाया ही नहीं, हमने ब्रिटेन द्वारा भारत को किस्तों में दिए जाने वाले स्वशासन के लिए जिन विभिन्न संस्थाओं का गठन किया था, उन्हीं के आधार पर गणतंत्र का ढांचा खड़ा करने का फैसला कर लिया। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि हमारा संविधान इस कार्य के लिए गठित संविधान सभा ने नहीं बनाया, उसका निर्माण परिस्थितियों ने किया। अंग्रेजी राज्य के दौरान संविधान की ईंट रखी गई। संविधान सभा केबिनेट मिशन प्लान के आधीन बनी। वह भारतीय द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित संस्था नहीं थी। इंडियन इंडीपैंडैंस एक्ट ब्रिटेन की पार्लियामेंट ने बनाया, हमारा वर्तमान संविधान उसी 1935 के ह्यएक्टह्ण का परिवर्द्घित स्वरूप है। यह कहने की बजाए कि संविधान भारत के लोगों ने बनाया, यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि उसे ब्रिटेन ने भारत के लिए बनाया और भारत के लोगों ने उसे अपनाया।ह्ण
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का यह कथन 1997 का है। इससे एक बात साफ तौर पर उभरती है कि हमारा संविधान परिस्थितियों की देन है। वह बन गया, बनाया नहीं गया। इसका सीधा सा मतलब है कि संविधान बनाने से पहले जो मंथन होना चाहिए था वह नहीं हुआ। कांग्रेस के नेताओं को तो इसका सही अंदाज भी नहीं था कि आजादी इतनी जल्दी आ जाएंगी। इसके कई प्रमाण कांग्रेस के लिखित इतिहास में मौजूद हैं। जब मंथन का समय था तब कांग्रेस को फुर्सत नहीं थी। महात्मा गांधी ने इस बारे में 1945 में जवाहरलाल नेहरू को लिखा भी और आगाह भी किया कि यही समय है जब हम सोचें कि कैसा देश बनाना है। इतिहास गवाह है कि नेहरू ने महात्मा गांधी से इस बारे में बात करना भी उचित नहीं समझा। इस कारण भी संविधान पर कोई मंथन नहीं हो सका। भारत के जो सभ्यतागत प्रश्न हैं उनको अगर हम अपने संविधान में खोजना चाहें तो वे कहीं भी नहीं मिलते।
जिस संविधान सभा ने संविधान बनाया उसमें पांच विचार धाराओं का प्रतिनिधित्व था। जवाहरलाल नेहरू सामाजिक लोकतंत्र के प्रतिनिधि थे। डा़ अम्बेडकर उद्वार लोकतंत्र के पक्षधर थे। गांधी को मानने वाले लोग गांव और पंचायत के पक्षधर थे। के़ टी़ शाह समतामूलक विचार के थे। पांचवां पक्ष हिन्दुत्व का था। इन धाराओं की कोई छाप संविधान पर नहीं दिखती है। इसीलिए हमारे संविधान पर यह सवाल पहले दिन से ही है कि क्या यह देश के लिए सम्यक विधान है। मेरा मत है कि यह यूरो-अमरीकी संविधान है। जिसे भारत का संविधान बना दिया गया है। संविधान के इस पहलू के बारे में जानकारी काफी कम है। कह सकते हैं कि एक तरह की संवैधानिक निरक्षरता व्याप्त है। संविधान पर पहले दिन से ही सोच-विचार और छोटे या बड़े दायरे में बहस जो चलती रही है, वह किसी मुकाम पर आज तक नहीं पहुंची है। लेकिन संविधान पर सवाल हमेशा किसी न किसी रूप में उठते रहे हैं। लेकिन इस यथार्थ की अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि भारत का एक संविधान है। वह 1950 से अस्तित्व में है। दूसरा और महत्वपूर्ण यथार्थ यह भी कि इस संविधान पर पहले दिन से ही गंभीर प्रश्न हैं, आपत्तियां हैं और वे प्रश्न ज्यादा बड़े रूप में उभरते जा रहे हैं।
एक ताजा उदाहरण से बात शुरू की जा सकती है। भारतीय जनता पार्टी के एक नेता और राज्य सभा सदस्य राजीव प्रताप रूड़ी ने 10 मई, 2013 को एक निजी संविधान संशोधन विधेयक पेश किया है। इसमें संविधान संबंधी अनेक प्रश्न उठाए गए हैं। जिनका संबंध जनजीवन से है। अगर वह कानून बन जाता है तो भारत में संसदीय प्रणाली का स्वरूप बदल जाएगा। वह राष्ट्रपति प्रणाली जैसा हो जाएगा। यह भी व्यवस्था परिवर्तन संबंधी एक दृष्टिकोण है। संसदीय लोकतंत्र बनाम राष्ट्रपति प्रणाली का विवाद पुराना है। 1997 में अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने एक भाषण में कहा कि ह्यक्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जब भारत के संविधान का निर्माण हो रहा था तो शासन की विविध पद्घतियों का सांगोपांग अध्ययन और विवेचन कर के हमने किसी एक पद्घति का चुनाव करने की स्थिति नहीं समझी? यहां तक की संविधान के निर्माताओं में इस बात को लेकर भी कोई गंभीर बहस नहीं छिड़ी कि स्वतंत्र देश ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली का अनुसरण करे या अमरीका की राष्ट्रपति प्रणाली का अवलंबन करे या किसी तीसरी प्रणाली का अनुसंधान कर, भारत की अपेक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप अपने संविधान का गठन करे।ह्ण उसी भाषण में उन्होंने कहा कि ह्यसंविधान सभा में राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने का स्वर न सुनाई दिया हो, ऐसी बात नहीं है। स्वर सुनाई दिया, किंतु वह एकाकी स्वर था। वह स्वर भी बुनियादी प्रश्न के रूप मे नहीं, एक संशोधन के रूप मंे प्रस्तुत हुआ। 10 दिसंबर, 1948 को जब डा़ एस़सी़ मुखर्जी बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे तो प्रोफेसर के.टी. शाह ने निम्नलिखित संशोधन पेश किया- ह्यह्यराज्य के महत्वपूर्ण अंगों, यथा विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच अधिकारों का पूर्ण विभााजन होगा।ह्णह्ण के़ टी़ शाह के संशोधन पर संविधान सभा में थोड़ी चर्चा भी हुई। लेकिन उसे यह कहकर रद्द कर दिया गया कि यह मुद्दा बहुत देर से उठाया गया है। हमारा संविधान संसदीय और राष्ट्रपति प्रणाली का घाल-मेल है। इसीलिए जब-तब यह मुद्दा किसी न किसी रूप में उठता रहता है और जीवंत बना हुआ है।
आपातकाल में यह खूब जोर से उठा था। इंदिरा गांधी के कुछ मंत्रियों ने बहस चलाई थी। तब भी और आज भी यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि इन दोनों प्रणालियों में तुलना हो और उसके गुणदोष पर चर्चा हो और यह तय हो कि क्या करना है। जो चल रहा है उसे ही चलाए रखना है? राष्ट्रपति प्रणाली स्थिरता देती है और संसदीय प्रणाली में जवाबदेही पर जोर होता है। पुन: यह विवाद उठा है तो इसका एक कारण यह भी है कि जवाबदेही पर संदेह खड़ा हो गया है। यह भी देखने की बात है और यह ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इस नए प्रस्ताव के पीछे कौन है?
यह एक अलग सवाल है कि क्या उन्होंने यह अपनी सोच-समझ से किया है? भाजपा का जो आज हाल है उसमें इसकी संभावना ज्यादा है कि उन्होंने किसी के सुझाव पर निजी विधेयक पेश किया हो। अधिक से अधिक यह एक व्यक्ति की पहल है। इस पर कोई चर्चा भी नहीं हो रही है।
यह भाजपा का निर्णय तो नहीं है। इसके कोई संकेत भी नहीं हैं कि भाजपा में इस पर कोई सोच विचार हो रहा है। लेकिन जो निजी विधेयक पेश हुआ है उससे एक बात निकलती है कि लोकतांत्रिक प्रणाली के वर्तमान स्वरूप में बदलाव जरूरी है। वह कैसा हो इसके लिए वर्तमान प्रणाली की गहरी छानबीन और समीक्षा जरूरी है। यह अब तक नहीं हुआ है। इसकी प्रतीक्षा अवश्य हो रही है। कारण कि शासन चरमरा गया है और संविधान से बनी संस्थाएं अपना अर्थ खोती जा रही है।
यह भाजपा का निर्णय तो नहीं है। इसके कोई संकेत भी नहीं हैं कि भाजपा में इस पर कोई सोच विचार हो रहा है। लेकिन जो निजी विधेयक पेश हुआ है उससे एक बात निकलती है कि लोकतांत्रिक प्रणाली के वर्तमान स्वरूप में बदलाव जरूरी है। वह कैसा हो इसके लिए वर्तमान प्रणाली की गहरी छानबीन और समीक्षा जरूरी है। यह अब तक नहीं हुआ है। इसकी प्रतीक्षा अवश्य हो रही है। कारण कि शासन चरमरा गया है और संविधान से बनी संस्थाएं अपना अर्थ खोती जा रही है।
हम यह देखें कि राजीव प्रताप रूड़ी के प्रस्ताव में खास-खास बातें क्या हैं? उन्होंने 18 मुद्दों को उठाया है। सबसे पहले यह कहा है कि हमारा संविधान संघीय प्रणाली पर आधारित है। जिसमें अधिकारों का स्पष्ट विभाजन होना चाहिए। दूसरी बात यह कही है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन संविधान के मूल उद्देश्य को अब तक प्राप्त नहीं किया जा सका है। जो सामाजिक उथल-पुथल है वह लोकतंत्र के संचालन में अविश्वास का परिणाम है। उनके प्रस्ताव में चुनाव संशोधन संबंधी सुझाव भी हैं। एक प्रस्ताव यह भी है कि पिछले 63 साल के संसदीय प्रणाली की समीक्षा हो। लोकतांत्रिक प्रक्रिया जो चल रही है उसमें सुधार हो। कार्यपालिका और संसद के मौजूदा संबंधों पर पुनर्विचार हो। ऐसा होना चाहिए कि जन प्रतिनिधि ही कानून के पालन की निगरानी न करे। वह कानून बनाने और कार्यपालिका पर निगरानी तक सीमित रहे। यह सब कहते हुए उनका निजी संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तावित करता है कि प्रधानमंत्री और राज्यों में मुख्यमंत्री के लिए सीधा चुनाव हो। कार्यपालिका को संसद और विधानसभाओं से असंबंद्घ कर दिया जाए। संसद और विधानसभाओं का काम सिर्फ कानून बनाना और उसके लागू होने की निगरानी करना होना चाहिए। सीधा निर्वाचित प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री अपना मंत्रिमंडल बनाएंगे। जिसमें सांसद और विधायक मंत्री नहीं रहेंगे। यह एक प्रकार से अमरीकी राष्ट्रपति प्रणाली का अनुसरण है।
इस पहल पर बहस हो सकती है। लेकिन इस बात पर हम संतोष प्रकट कर सकते हैं कि एक सांसद ऐसा भी है जो व्यवस्था परिवर्तन में रुचि रखता है। अपनी समझ से उसने एक पहल की है। ऐसी ही पहल इंदिरा गांधी के इशारे पर सातवें दशक में भी कांग्रेस के अनेक सांसद करते रहे हैं। जिनमें वंसत साठे का नाम ज्यादा मशहूर है।
राजीव प्रताप रूड़ी के निजी संविधान संशोधन विधेयक को क्या संसद स्वीकार कर सकती है? इस पर संविधान के विषेशज्ञ क्या कहेंगे, यह तो वे ही जाने। लेकिन जहां तक मुझे लगता है कि इस विधेयक को स्वीकार करने में कई संवैधानिक बाधाएं आएंगी। सबसे पहली जो बाधा आएगी वह यह होगी कि क्या इस विधेयक को संसद में विचार के लिए रखा जा सकता है? क्योंकि इस विधेयक से संविधान की आत्मा का प्रश्न खड़ा होगा। जिसे संविधान की आत्मा मान लिया गया है वह उसका ह्यबेसिक फीचरह्ण है। इसे संविधान का मूलाधार भी कह सकते हैं। यानी संविधान की मूल आत्मा।
किसी भी संविधान को मोटे तौर पर दो हिस्सों में देखा जा सकता है। पहला हिस्सा उसे मान सकते हैं जिसमें संविधान की मूल आत्मा का वर्णन होता है। भारतीय संविधान में इस हिस्से को हम कह सकते हैं कि यह प्रस्तावना में रखा गया है। दूसरा हिस्सा होता है जो देश और समाज को चलाने के लिए मूल विधि के रूप में बनाया जाता है। उसे ही संवैधानिक विधि भी कहते हैं।
सतही तौर पर यह दिखता है कि भारत के संविधान में कार्यविभाजन बहुत स्पष्ट है। लेकिन यह एक बड़ा भ्रम है। सही बात यह है कि भारत के संविधान में बहुत घाल-मेल है। इसके कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण मैं यह मानता हूं कि यह संविधान बहुत हड़बड़ी में बनाया गया। जिसमें तीन लोगो की प्रमुख भूमिका रही है। लार्ड माऊंटबैटन, जवाहरलाल नेहरू और बी़ एऩ राव।
जो यह कहा जाता है कि संविधान बनाने में करीब तीन साल लगे, यह बहकाने वाला तथ्य है। यह सिर्फ कहने की बात है। संविधान बनाने का काम तो एक हफ्ते में ही पूरा हुआ। जिसे अंग्रेजी दिमाग के वकीलों ने बनाया और जो उनके लाभ के लिए अब एक स्वर्ग बन गया है।
संविधान निर्माण में हड़बड़ी के उदाहरण-
1़ अविभाजित भारत के लिए संविधान सभा बनी। 9 दिसंबर, 1946 को उसकी पहली बैठक नई दिल्ली में हुई। तब संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 389 निर्धारित थी।
2़ संविधान सभा के सदस्यों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, ऑल इंडिया मुस्लिम लीग, अखिल भारतीय हिंदू महासभा, ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेस लीग, ऑल इंडिया ओमेंस कांफ्रेस, ऑल इंडिया लेंडहोल्डर्स ऐसोसिएशन के अध्यक्ष तथा ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के नेता और एंग्लो-इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष शामिल थे।
3़ 13 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने एक उद्देश्य संकल्प पेश किया। वह अविभाजित भारत के लिए था। जो मुस्लिम लीग के बहिष्कार और भारत विभाजन के कारण अर्थहीन हो गया। काफी इंतजार करने के बाद 22 जनवरी, 1947 को वह उद्देश्य संकल्प पारित हुआ।
4़ वह समय भारी उथल-पुथल का था। धर्मपाल के शब्दों में ह्यगांधीजी हमारे साथ ही थे।ह्ण
5़ मार्च, 1947 में लार्ड माऊंटबैटन आए। और 21 जून, 1948 को वापस गए। तब सी राजगोपालाचारी गवर्नर जनरल बने।
6. जून, 1947 में भारत विभाजन की घोषणा हो गई।
7़ 16 जुलाई,1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम बना। इसके प्रावधानो से संविधान सभा का स्वरूप बदल गया।
8़ संविधान सभा की मूल प्राथमिकताएं बदल गई। विभाजित भारत को एक रखना और औपनिवेशिक शासन तंत्र को चलाए रखना उन प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर हो गया।
9़ अविभाजित भारत के लिए जो संविधान सभा बनी थी। वह 14 अगस्त, 1947 को खण्डित रूप में प्रभुत्व संपन्न संविधान सभा हो गई। बंगाल, पंजाब, सिंध, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत (जिसे आजकल पख्तुनख्वा कहा जा रहा है) से संविधान सभा के सदस्य निकल गए। उसमें एक डा़ भीमराव अम्बेडकर भी थे। जिन्हें बाद में जगह बनाकर लाया गया।
10़ आम धारणा है कि डा़ भीमराव अम्बेडकर ने संविधान बनाया। इसका सच जानने के लिए हमें धर्मपाल जी का लिखा हुआ यह अंश पढ़ना चाहिए। ह्यउस समय स्वतंत्रता के विषय में विचार विमर्श जारी था। देश की एकता और अखंडता दाव पर लगी हुई थी। जिसके पास कोई ठोस विचार था या कहने योग्य बात थी ऐसे लोग तात्कालिक समस्याओं में उलझे हुए थे।़.़. परंतु, संविधान सभा का सचिवालय निष्क्रिय नहीं था। उसके परामर्शक बी़एऩ राव की सहायता से उसने यूरोप, अमरीका और रूस समेत विभिन्न देशों के संविधान का अध्ययन आरंभ किया। स्वतंत्रता प्राप्त होने के पश्चात् कुछ दिनों में ही, 1947 के अगस्त में संविधान का प्रारूप सदस्यों के सामने रखा गया। इसके साथ ही, संसदीय विभाग के मंत्री ने 29 अगस्त, 1947 को प्रस्ताव प्रस्तुत कर संविधान सभा के निर्णय का अनुसरण करते हुए उसके, सचिवालय में गठित, संविधान के प्रारूप का अन्वीक्षण और आवश्यक संशोधन करने के लिए एक समिति के गठन का प्रस्ताव रखा। कुछ परिवर्तनों के साथ प्रस्ताव उसी दिन पारित हुआ।ह्ण इसका पूरा वर्णन धर्मपाल जी की पुस्तक- पंचायती राज- में है।
11़ 29 अगस्त, 1947 को संविधान सभा ने बी़ एन राव ने संविधान का जो प्रारूप बनाया था उसके लिए अन्वीक्षण समिति बनाई। जिसे हम संविधान की प्रारूप समिति कहते हैं वह अन्वीक्षण समिति थी। इसी आधार पर डा़ भीमराव अम्बेडकर ने भी माना था कि संविधान बनाने में उनका वैसा योगदान नहीं है जैसा माना जाता है।
12़ संविधान सभा के सलाहकार बी़एऩ राव ने ही सचिवालय की मदद से संविधान का पहला प्रारूप बनाया था।
13़ वह प्रारूप 21 फरवरी, 1948 को सभा के अध्यक्ष डा़ राजेंद्र प्रसाद के सम्मुख प्रस्तुत किया गया।
14़ उस पर जो संशोधित प्रारूप बना वह 26 अक्टूबर, 1948 को संविधान सभा के अध्यक्ष को पेश किया गया।
15़ अन्वीक्षण समिति द्वारा संशोधित प्रारूप 4 नवंबर, 1948 को पुन: संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किया गया। उस समय डा़ अम्बेडकर ने जो कहा वह इस बात का प्रमाण है कि संविधान को बनाने की कितनी जल्दबाजी थी। ह्यमैं पूछना चाहूंगा कि क्या विश्व के इतिहास में इस समय बनने वाले किसी संविधान में कोई नई बात कही जा सकती है। सैकड़ों साल बीत गए जब प्रथम लिखित संविधान का प्रारूप तैयार किया गया था। अनेक देशों ने इसका अनुसरण करके अपने संविधान को लिखित रूप में परिवर्तित कर लिया। संविधान का विषय क्षेत्र क्या होना चाहिए, इस प्रश्न का समाधान बहुत पहले हो चुका है। इसी प्रकार, संविधान के मूलाधार क्या हैं, इससे सारी दुनिया परिचित है। इन तथ्यों को देखते हुए, अनिवार्य है कि सभी संविधानों के मुख्य प्रावधान एक से दिखाई दें। इतना समय बीत जाने पर जो संविधान बनाया गया है उसमें यदि कोई नई बात कही जा सकती है, तो वह यह है कि इसमें त्रुटियों को दूर करने तथा इसे देश की जरूरतों के अनुरूप बनाने के लिए आवश्यक हेरफेर किए गए हैं। मुझे यकीन है कि अन्य देशों के संविधानों का अधांनुकरण करने का जो आरोप लगाया गया है, वह संविधान का पर्याप्त अध्ययन न किए जाने के कारण लगाया जा रहा है।ह्ण ह्यजहां तक इस आरोप का संबंध है कि संविधान के प्रारूप में भारत शासन एक्ट, 1935 के अधिकांश प्रावधानों को ज्यों-का-त्यांे शामिल कर लिया गया है, मैं उसके बारे में कोई क्षमा याचना नहीं करता। किसी से उधार लेने में कोई शर्म की बात नहीं है। इसमें कोई चोरी नहीं है। संविधान के मूल विचारो के बारे में किसी का कोई पेटेंट अधिकार नहीं है।ह्ण
16़ अन्वीक्षण समिति की ओर से नवंबर 1948 में टी़ टी़ कृष्णाचारी ने जो कहा वह संविधान बनाने की जल्दीबाजी का अकाट्य प्रमाण है। वह उद्घरण धर्मपाल जी की पुस्तक में है। उन्होंने यह सब लिखकर बताया है कि किस तरह और क्यों संविधान में पंचायत और गांव को छोड़ दिया गया। उसी बहस में के़ हनुमंतैया ने कहा कि हम वीणा या सितार का संगीत चाहते थे लेकिन हमें विदेशी बैंड की धुन मिली है। इसमें मैं यह जोड़ना चाहता हूं कि उसी धुन पर देश नाच रहा है।
17़ संविधान पर विचार 15 नवंबर, 1948 को प्रारंभ हुआ। वह 17 अक्तूबर, 1949 को समाप्त हुआ।
18़ संविधान का दूसरा वाचन 17 नवंबर, 1949 को शुरू हुआ और अगले ही दिन 17 नवंबर, 1949 को तीसरा वाचन भी प्रारंभ हो गया। 26 नवंबर, 1949 को संविधान बन गया। जिसे 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया।
19़ संविधान सभा की पूरी बहस पर गौर करें तो हम पाएंगे कि कुछ ही प्रावधानों पर उसमें बहस हुई। ज्यादातर प्रावधानों को बहस का विषय ही नहीं माना गया। जैसे- प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, राज्यपाल, संघीय ढांचा, राज्य केंद्र संबंध आदि ऐसे विषय हैं जिन पर थोड़ी बहस हुई है।
20़ राजनीतिक स्वशासन अर्थात स्वराज, लोकतंत्रातत्मक विकेंद्रीकरण, पंचायत, रोजगार का अधिकार, गोरक्षा, नशाबंदी और प्राचीन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था आदि ऐसे विषय हैं जिन्हें संविधान के मूल ढांचे में पिरोया जाना चाहिए था। लेकिन इन पर कोई बहस ही नहीं हुई। जो थोड़ा बहुत इनका प्रसंग आता है वह कुछ सदस्यों के सवाल के रूप में है।
21़ इसलिए यह संविधान एक पिरामिड है और औपनिवेसिक व्यवस्था की तरह उसका शीर्ष आधार पर टिका हुआ है। उसे पलटने का कोई प्रयास संविधान निर्माताओं की तिकड़ी ने नहीं किया।
22़ यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह संविधान न तो भारतीय है और न गांधीवादी। यही सोचकर एच़ वी. कामथ ने संविधान सभा में पूछा था कि ह्यइसमें भारत की विगत राजनीतिक स्थिति और भारतीय जनता की राजनीतिक और आध्यात्मिक चेतना से क्या लिया गया है।ह्ण वह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।
23़ भारत का संविधान ऐसे वातावरण में बना जिसमें कोई विभूूति भी अपना संतुलन बनाए नहीं रख सकती। देश का विभाजन और उससे उत्पन्न त्रासदी की छाप इस संविधान पर स्पष्ट रूप से अंकित है।
24़ प्रशासन तंत्र औपनिवेशिक है। इसका प्रबल प्रमाण यह है कि जिलाधिकारी ही अपने क्षेत्र में सर्वेसर्वा बना हुआ है। संविधान से पंचायत प्रणाली लागू होने और सांसद निधि की व्यवस्था के बावजूद जिलाधिकारी ही अपने जिले में सब कुछ है। उसी पर सबकी निर्भरता है। इसे पूरा समझने के लिए हमें बी़ एऩ राव का वह नोट पढ़ना चाहिए जो उन्होंने मई, 1948 में संविधान सभा को दिया। ह्ययदि पंचायत योजना को अपनाना है तो प्रत्येक प्रांत एवं देशी रियासतों के लिए नगरों के लिए अनुकूल परिवर्तनों के साथ सुविचारित एवं विस्तृत आयोजन करना पड़ेगा। इसमें बहुत समय व्यतीत होगा और संविधान को पारित करने में विलंब होगा।ह्ण पूर्व प्रधानमंत्रियों से बातचीत के बाद मेरा निष्कर्ष यह है कि जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के दौरान ही यह तय कर लिया था कि वे शासन अफसरशाही से चलाएंगे। कांग्रेस संगठन और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की भूमिका उसमें कहीं नहीं होगी। इसका अर्थ यह है कि शासन चलाने में न तो जनता, न तो राजनीतिक कार्यकर्ता और न निर्वाचित प्रतिनिधि की भूमिका होगी।
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