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साहित्य की सड़कों पर हुड़दंगी जत्थे

by
Aug 12, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Aug 2013 16:18:48

साहित्य समाज से कटता जा रहा है। पाठक और श्रोता कम हो रहे हैं। यह एक तथ्य है और इस के कारण साहित्यकारों में यह विचार आम है कि हम सही काम नहीं कर पा रहे। कुछ अधूरापन, लक्ष्य से भटकाव आ गया है। हमारा काम समाज के हित-अहित को उद्घाटित, परिभाषित करना है। हम जिस समाज का अंग हैं उसके संरक्षण,संवर्धन का लक्ष्य ही साहित्य का लक्ष्य होना चाहिये। ऊपर लिखी पंक्तियों में ही हिंदी-उर्दू साहित्य की दुर्दशा, समाज से कट जाने, मूलविहीन हो जाने की गाथा छिपी हुई है।
1947 में लगभग दो तिहाई भारत स्वतंत्र हुआ। यह वह समय था जब द्वितीय विश्व युद्घ के बाद विश्वभर में मंदी थी। समाज अभावों से घिरा था। करोड़ों लोग मारे गये थे। विस्थापित, बरबाद हुए थे। वह समय आँखों से सपने छिन जाने, जीवन के ताने-बाने उधड़ जाने, बिखर जाने का था। सृष्टि में निर्वात कहीं नहीं रहता। जाहिर है इस शून्य को भी भरा ही जाना था। मजेदार बात यह है कि आँखों में वापस सपने सजाने की घोषणा उन लोगों ने की जिन्होंने अभी-अभी सपने उजाड़े थे। द्वितीय विश्व युद्घ में धुरी राष्ट्र जर्मनी, इटली का अनन्य सहयोगी रूस था और इस कारण सारी दुनिया के कम्युनिस्ट उसकी ढपली बजा रहे थे। अच्छे-खासे समय तक ये युद्घ के आक्रामक पक्ष में बने रहे। हिटलर की मदद करते रहे। बाद में हिटलर ने रूस पर हमला कर दिया तो रातों-रात धुरी राष्ट्रों के विरोधी हो गये। जिस समय रूस की सीमाओं पर जर्मनी की फौजें करोड़ों रूसियों को मार रही थीं, उसी काल में स्टालिन के नेतृत्व में रूसी कम्युनिस्ट पार्टी भी अपने ही करोड़ों नागरिकों की हत्या कर रही थी।
वह राजनैतिक विचारधारा जिसने अपने ही करोड़ों लोगों को मार डाला, मजदूरों,किसानों, कमजोर वगोंर् की हितैषी होने का ड्रामा करती थी। नेहरू वामपंथ के प्रति भावुक थे और उनके हिमायतियों के प्रति उदार थे। इस उदारता के कारण पद, प्रतिष्ठा, धन पाने के लिये रोमांटिक मुखौटा लगाये हथौड़ाधारी हत्यारी विचारधारा का पोषण साहित्यकारों का एक उद्देश्य बन गया।
जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पन्त जैसे लोग मुक्तिबोध द्वारा रचित इस कसौटी के कारण कवि नहीं रहते और निराला ह्यसुन बे गुलाबह्ण लिखने के कारण कवि हो जाते हैं। इसी से जुड़ी है साहित्य को हाशिये पर धकेले जाने की दु:खद गाथा। साहित्य मूलत: अपने को व्यक्त करने की प्रक्रिया है। इसी का विस्तार अपने से सम्बंधित अन्यों को उद्घाटित करने में भी होता है। यहाँ उल्टा हुआ, प्रक्रिया की जगह लक्ष्य तय कर दिये गये। राष्ट्रवाद की जड़ में मट्ठा डालना रणनीतिक जरूरत बनी। राष्ट्र की, राष्ट्रवाद की रगड़ाई करनी है ़.़.उग्रवाद, आतंकवाद चूंकि राष्ट्रवाद को नुकसान पहुंचता है, इसलिये उस पर मौन रहना रणनीतिक हथियार बने। साहित्य ह्यस्वह्ण के विस्तार की प्रक्रिया की जगह कुछ तयशुदा फ्रेमों में विचार ठूंसने का नाम हो गया।
जैसे एक चालाक वकील सच और झूठ के चक्कर में नहीं पड़ता। अपने मुकदमे को जीतने के लिये दोनों तरह के दाँव-पेंच इकट्ठे करता है, आजमाता है।  उसी तरह लक्ष्य तय हुआ साम्यवादी विद्रोह ़.़ उपलक्ष्य तय हुआ राष्ट्र की शक्तियों को कमजोर किया जाना। राष्ट्र का विरोध करने वाली सभी शक्तियों से हाथ मिलाना।
यह अकस्मात नहीं है कि देश के विभाजन का कारण बनी मुस्लिम लीग को विभाजन का दर्शन और तर्क के तीर-तमंचे कम्युनिस्ट पार्टी के सज्जाद जहीर, बन्ने भाई ने सप्लाई किये। सज्जाद जहीर, जिनके साम्प्रदायिकता के विरोधी होने की बातें करते कम्युनिस्ट लोग नहीं थकते, अंततोगत्वा पाकिस्तान चले गये। अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी जैसे लोग कभी मुस्लिम लीग, जमाते-इस्लामी पर कभी कुछ नहीं बोले, हाँ, राष्ट्रवादियों के नाम पर इनके मिचेंर् लगती रहीं। ये दो नाम तो समुद्र में तैरते हिम खंड की तरह केवल नोक भर हैं। ऐसे असंख्य लोग हैं जिनके सतत राष्ट्रवाद के विरोध को देख कर ऐसा लगता है जैसे महमूद गजनवी ने मूर्ति-भंजन करने के लिये हरे की जगह लाल कपड़े पहन लिये हों। ये वही लोग हैं जो उर्दू के सबसे बड़े कहानीकार किशन चंदर के सलमा सिद्दीकी से विवाह करने के लिये उन पर मुसलमान बनने का दबाव डालते हैं और उसके बाद निकाह कराते हैं। उर्दू की प्रसिद्घ कहानीकार इस्मत चुगताई की अंतिम इच्छा ह्यमैं मिट्टी में दब कर अपना जिस्म कीड़ों को नहीं खिलाना चाहती। मुझे इस ख्याल से ही घिन आती है। मुझे मरने के बाद जलाया जायेह्ण पर वे इतने बौखला जाते हैं कि मुंबई में उनके जनाजे में केवल एक मुसलमान, उनके पति ही शरीक होते हैं। कैफी आजमी, शबाना आजमी, जावेद अख्तर जैसों का साम्यवाद हवा हो जाता है, मुल्लाइयत चढ़ बैठती है।
इस्लाम की अपनी समझ है और वह काफिरों, मुशरिकों, मुल्हिदों, मुर्तदों के प्रति भयानक रूप से क्रूर है। इस हद तक कि इस्लामी न्यायशास्त्र के 4 इमामों में से केवल एक काफिरों को जजिया देने और जिम्मी बन कर रहने पर ही जीवित छोड़ने का अधिकार देते हैं, बाकी को वे भी जिंदा नहीं छोड़ने की व्यवस्था देते हैं। शेष तीन इमाम किसी भी स्थिति में इन सब को जिंदा नहीं रहने देना चाहते। कम्युनिस्ट मुल्हिदों में आते हैं। होना यह चाहिये था कि एक आतताई के दो पीडि़त एक हो जाते, मगर हुआ उल्टा कि कम्युनिस्टों और इस्लाम ने राष्ट्रवाद के विरोध में हाथ मिला लिये। देश से सम्बंधित हर बात के विरोध में खड़े हो गये, शत्रुता निभाने लगे। एफ. एम. हुसैन की दुष्ट पेंटिंगों के पक्ष में खड़े होना, ह्यसहामेटह्ण की धूर्तताओं का बचाव करना, रोमिला थापर द्वारा महमूद गजनवी में गुणों को ढूँढने और उसके बचाव में किताब लिख मारने को आखिर किस तरह समझा जा सकता है?
मार्क्स के मनमाने सिद्घांत-समाज का विकास द्वंद से होता है- के आधार पर साहित्य में भी सदैव द्वंद खड़े किये गए,रोपे गये। कविता की छंद से मुक्ति, फिर विचार से मुक्ति, फिर एब्सर्ड लेखन जैसे बेसिर-पैर के वाद चलाये ही इसलिये गये।  कविता का आधार छंद मार्क्सवाद की नारेबाजी की पालकी ढो ही नहीं सकता था। उसे परोसने के लिये कविता के मानकों में तोड़फोड़ करनी जरूरी थी। नयी कविता के नाम पर मुक्तिबोध से प्रारंभ कर राजेश जोशी , अनुज लुगुन तक जो परोसते हैं वह कल्पित ब्योरों, अपठनीयता से भरा हुआ है। वह सब रौशनाई से दूर केवल स्याही का अंकन है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, अल्पसंख्यकों पर प्रलाप जानबूझकर किये जा रहे ऐसे ही विलाप हैं जिनके कारण पाठक भाग खड़ा हुआ है। आखिर राग दरबारी के पचीसों संस्करण क्यों निकलते हैं और विष्णु खरे की किताब खोटी क्यों साबित होती है?
इस देश की मिट्टी से जुड़े, अपने समाज के पक्ष में खड़े लोगों पर आरोप चस्पां करने के लिये उनके संदर्भ में फासीवादी, संस्कृतिवादी, राष्ट्रवादी, सांस्कृतिक राष्ट्रवादी, प्रतिक्रियावादी, शुद्घतावादी, आदर्शवादी और न जाने कैसे-कैसे शब्द गढ़ डालने वाले इन साम्यवादियों की छान-फटक की जाये तो ये स्वयं इसी परिभाषा में आते हैं। आइये, इनके सबसे प्रिय आरोप, फासीवाद को ही लेते हैं। फासीवाद मोटे तौर पर उस विचारधारा को कहते हैं जो अपने से असहमत हर विचार को गलत मानती है, नष्ट कर देने योग्य समझती है। जिस विचारधारा के हाथ में शासन सूत्र आने पर प्रत्येक दूसरी विचारधारा को नष्ट किया जाता है। जिसके समय में कोई स्वतंत्र प्रेस नहीं होती। स्वतंत्र न्याय-पालिका नहीं होती ़.़ लगभग तानाशाही होती है। इस परिभाषा पर सारे साम्यवादी देश और इस्लामिक शासन-प्रणाली ही खरे उतरते हैं। यही विचारधारायें अपने अलावा किसी को भी ह्यवर्ग-शत्रुह्ण या ह्यकाफिरह्ण घोषित करके उसको समूल नष्ट करने के तर्क गढ़ती हैं कोई वकील, कोई दलील, कोई अपील कुछ नहीं।
भारत का वैशिष्ट्य ही यह है कि हम एक- दूसरे की धुर विरोधी विचारधाराओं का सहजीवन संभव बनाते हैं। हम इस माफियागर्दी को भी अपनी बात कहने का अवसर देते हैं। इसी कारण हम लोकतंत्र हैं।
हँस पत्रिका के वार्षिक कार्यक्रम में अभिव्यक्ति और प्रतिबन्ध विषय पर आयोजित गोष्ठी में स्वीकृति देने के बाद भी वरवरा कवि और अरुंधती राय का दिल्ली आ कर भी अंतिम क्षण में न आना इसी बात की पुष्टि करता है। वरवरा कवि का स्पष्टीकरण आया है कि उन्होंने ऐसा इसलिये किया कि उन्हें इस मंच पर अशोक वाजपेयी और गोविन्दाचार्य के साथ बैठना था। ये दोनों नाम देश के प्रतिष्ठित नाम हैं। कोई भी श्री अशोक वाजपेयी और श्री गोविन्दाचार्य से असहमत हो सकता है मगर उन्हें अस्पृश्य समझना? साम्यवादी हमेशा यही करते आ रहे हैं और आरोप दूसरों पर लगाते हैं।
जब तक साहित्य इन अंगुलिमालों से मुक्त नहीं होता, पठनीय साहित्य नहीं उभर सकता। भारतीय स्वभाव से ही शांतिप्रिय हैं। वो इस कोलाहल से भरे तांडव को पसंद नहीं करते। वे श्री लाल शुक्ल, शिवानी, ज्ञान चतुर्वेदी को खोज कर पढ़ते है। उन्हें नरेन्द्र कोहली की राम कथा, महासमर पसंद हैं।
तो साहिबान मुद्दे की बात यह कि साहित्य में पाठक अपने आप नहीं लौटेंगे। इसके लिये साहित्य की दिशा तय करने वाले, साहित्य पर कब्जा जमाये लोगों की सफाई आवश्यक है। यह कूड़ा विश्वविद्यालयों, अकादमियों, संस्थानों, पत्रिकाओं में बुहारी लगाये बिना बाहर नहीं जाने वाला। तुफैल चतुर्वेदी साहित्यकार

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