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एक सुन्दर और खुशहाल राज्य था रत्नपुर। वहां का राजा रत्नसिंह बड़ा ही पराक्रमी था। वह प्रजा का हर प्रकार से ध्यान रखता था। उसके अथक प्रयत्नों से ही छोटा-सा राज्य रत्नपुर इतना वैभवशाली बन सका था। दूर-दूर तक राजा और राज्य उज्ज्वल रत्न की भांति चमकते थे। जिससे अन्य राज्यों में रत्नपुर के प्रति ईर्ष्या उत्पन्न हो गई। वह रत्नपुर के सुख व वैभव को देखकर दुखी होने लगे।
रत्नपुर से दूर एक बहुत बड़ा राज्य था देवनगर। जब वहां तक रत्नपुर की खुशहाली की खबर पहुंची तो वहां के राजा देवप्रताप से सहा न गया और उसने रत्नपुर के रंग में भंग डालने की ठान ली। जल्दी ही उसने युक्ति भी सोच ली।
देवप्रताप के पास एक अद्भुत शंख था, जिसे वह ढपोरशंख कहता था। अपने नाम के अनुसार ही ढपोरशंख अनेकानेक गप्पें सुनाता था। देवप्रताप ने अपने राजदूत के हाथों राजा रत्नसिंह को वह ढपोरशंख भेंट के रूप में भेजवा दिया, ढपोरशंख पाकर राजा रत्नसिंह फूला न समाया। उसने ढेर सारे उपहार देकर राजदूत को विदा किया।
अब तो राजा रतनसिंह प्रतिदिन राजकार्य से निवृत्त होकर ढपोरशंख से कोरी गप्पें तथा मनगढ़ंत किस्से सुनता। उसका भरपूर मनोरंजन होता। उसे दिनभर की थकान मिटाने का यह तरीका बहुत अच्छा लगा लेकिन जल्द ही रत्नसिंह राजा देवप्रताप के फैलाये जाल में फंस गया। ढपोरशंख के बिना अब राजा रत्नसिंह का मन किसी कार्य में नहीं लगता था। उसने धीरे-धीरे राज्य सभा में आना ही बन्द कर दिया। वह दिनभर ढपोरशंख लिए बैठा रहता और उसकी गप्पें सुनता रहता।
ढपोरशंख की संगत का रत्नसिंह पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह स्वयं भी गप्प हांकने लगा। हर समय गप्पें गढ़ता और सबको सुनाता। शुरुआत उसने महारानी मणिरत्ना से की और उसके बाद महामंत्री तथा सेनापति को भी अपना श्रोता बना लिया। अति तो तब हो गई जब रत्नसिंह राज्यसभा में गप्पें सुनाता और सुनता। अन्य सभी आवश्यक कार्यों पर वह कोई चर्चा न करता। राजा में आए इस अनोखे परिवर्तन से सभी दु:खी तथा नाराज थे परन्तु कोई भी कुछ कहने का साहस न करता।
धीरे-धीरे राज्य व्यवस्था गड़बड़ाने लगी। लेकिन राजा को तनिक भी चिन्ता नहीं थी बल्कि उसने एक अनोखी प्रतियोगिता का आयोजन कर डाला। यह एक गप्प प्रतियोगिता थी। इसमें जो गप्पी सबसे अच्छी गप्प हांकेगा उसे राज्य का सबसे बड़ा गप्पी घोषित किया जाएगा। प्रतियोगिता में राजा रत्नसिंह स्वयं भी शामिल था।
प्रतियोगिता वाले दिन राज्यसभा में गप्पियों की भीड़ एकत्रित हो गई। सारे रत्नपुर से विचित्र-विचित्र गप्पी आए थे। रत्नसिंह बड़ा ही खुश था लेकिन तब उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने देखा कि प्रतियोगिता में उसके पुत्र राजकुमार देव्यांश ने भी भाग लिया है। प्रतियोगिता शुरू हुई। देखते ही देखते सारे गप्पी धराशायी हो गए। रत्न सिंह के आगे कोई भी टिक न पाया। सबसे अन्त में राजा और राजकुमार में गप्प प्रतियोगिता हुई लेकिन शीघ्र ही राजकुमार देव्यांश, राजा से हार गया। रत्नसिंह प्रतियोगिता में जीतते ही खुशी से चिल्ला उठे, 'मैं राज्य का सबसे बड़ा गप्पी हूं।'
'नहीं पिता जी यह सच नहीं है।'
देव्यांश विनम्रता से बोला। उसके मुंह से यह सुनकर रत्नसिंह ने क्रोधित होकर कहा, 'तुम कहना क्या चाहते हो राजकुमार देव्यांश?'
'मैं यही कहना चाहता हूं कि आप अभी राज्य के सबसे बड़े गप्पी नहीं बने हैं, अभी उस ढपोरशंख से आपकी प्रतियोगिता होनी बाकी है।' राजा ने बड़े उत्साहपूर्वक ढपोरशंख राजदरबार में मंगवाया। उसे पूरी आशा थी कि वह आसानी से ढपोरशंख को हरा देगा। लेकिन हुआ कुछ और! ढपोरशंख की गपों के आगे रत्नसिंह ठहर नहीं सका। वह एक के बाद एक गप्प सुनाता तो ढपोरशंख उससे भी बढ़कर गप्प सुना देता। रत्नसिंह खीज उठा। उसने क्रोधित होते हुए ढपोरशंख को जमीन पर पटक दिया। शंख चूर-चूर हो गया। यह देखकर राजसभा में उपस्थित महारानी मणिरत्ना के मुख पर मुस्कान आ गई।
इस घटना के कुछ दिनों बाद ही राजा सामान्य हो गया। अब उसकी गप्प में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। उसे अपनी बीती हुई बातें सोच-सोचकर हंसी आती थी। उसे पता चल गया था कि जीवन में संगत का कितना प्रभाव होता है लेकिन वह इस बात से अबोध था कि ढपोरशंख से उसकी संगत छुड़ाने में राजकुमार देव्यांश और महारानी मणिरत्ना की गुप्त योजना थी और वह थी ढपोरखंश व रत्नसिंह की प्रतियोगिता। आशीष शुक्ला
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