|
तोता सच बोले, जरूरी नहीं। पूरी बात बोले, यह भी जरूरी नहीं। जुमले दोहराना, हां में हां मिलाना आता हो तो मालिक को खूब भाता है।
न्यायपालिका से 'सरकारी मिट्ठू' की उपमा पा चुकी सीबीआई ने दो ऐसे काम किए कि लोग भले कुछ कहें, सरकार खुश है। सीबीआई की एक रिपोर्ट इशरत जहां एनकाउंटर से जुड़ी है तो दूसरी रेलवे भर्ती घूसकांड से।
सीबीआई की स्वतंत्रता और इसके कामकाज के ढंग को परखने के लिए ये दो मामले बड़ा अच्छा नमूना हैं।
संचार क्रांति के युग में सूचनाएं दबती नहीं और लोग खुलकर बोलते हैं। शायद कुछ को चुभता हो मगर लोग दोनों मामलों पर अच्छी जानकारी और मुखर राय रखते हैं। साइबर जगत में सरकार और सीबीआई की काफी किरकिरी हो रही है।
मुठभेड़ फर्जी थी और बंसल बेदाग, ऐसी बात और संकेत सीबीआई की जांच–पड़ताल में सामने आए हैं। भ्रष्टाचार में गले तक डूबा रिश्तेदारों का नेटवर्क उजागर होने के बावजूद सरकार के खास, पूर्व रेलमंत्री पवन बंसल का नाम दागी की बजाय सरकारी गवाह के तौर पर होना और उनके ओएसडी राहुल भंडारी का जिक्र तक उड़ा दिया जाना बताता है कि सीबीआई जांच के प्रति कितनी गंभीर और समझदार एजेंसी है। इस वक्त यह याद दिलाना जरूरी है पूर्व कानून मंत्री अश्विनी कुमार 'समझदार' को इशारा करते हुए पकड़े जा चुके हैं। सो, किसी नाम का 'गुम' जाना समझा जा सकता है।
सीबीआई की दूसरी रिपोर्ट और इसके समय से पहले मीडिया के हाथ लगे कथित टुकड़ों में भी कुछ नाम खो से गए हैं। लश्करे तोएबा के जिन 'साथी आतंकियों' के संग इशरत आ रही थी, उनके नाम (जीशान जौहर, अमजद अली अकबर राणा), काम (लश्कर आतंकी) और धाम (पाकिस्तान) की व्यापक चर्चा होनी चाहिए थी, मगर बात 'सफेद' और 'काली' दाढ़ी' के शिगूफों की तरफ मुड़ गई। अगर दाढ़ियों की जांच से कुछ निकलता है तो दिल्ली के सत्ता केन्द्रों तक कई दाढ़ियां जांचनी चाहिए। यदि पाकिस्तानी आतंकियों से मुठभेड़ फर्जी थी तो इस झूठ का सिरा दिल्ली से ही गुजरात को पकड़ाया गया था। फिर तिनका किस दाढ़ी में है? यह सवाल बनता है।
कई बार सुर्खियां जिंदगी से बड़ी हो जाती हैं। इशरत जहां को भी छोटी जिंदगी और बड़ी सुर्खियां मिलीं। सवाल यह है कि जान हथेली पर लेकर फर्जी मुठभेड़ों तक जाने वाली राह पर वह चली कैसे गई? कुख्यात आतंकियों के साथ गुजरात की सड़कों पर वह किसकी 'इंटरव्यू' (जैसा उसने परिजनों को बताया) लेने निकली थी। लश्कर ने अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर अपनी 'बहादुर बिटिया' बताते हुए उसे पुचकारा क्यों था? ये कुछ सवाल हैं जो फर्जी मुठभेड़ की पहेली के साथ ही गुंथे हैं। एक बात तो तय है कि इस मामले में मुठभेड़ का फर्जी होना, किसी के बेगुनाह होने का प्रमाणपत्र नहीं है।
पाकिस्तानी आतंकवादियों ने देश के विरुद्ध जो युद्ध छेड़ा है उसमें दुश्मन को भरमाने, घेरकर अपने जाल में लाने की कोशिशें, पुलिस और सुरक्षा बलों की रणनीति का हिस्सा तो नहीं, इस पहलू पर विचार करना होगा।
किसी बहुत पुराने कवि की पंक्तियां हैं, संदिग्ध आतंकियों और पुलिस की इस फर्जी मुठभेड़ के वक्त इनका जिक्र सामयिक होगा–
'अवश्य हिंसा अतिनिंद्य कर्म है, पर कर्तव्य प्रधान है यही
ग्रह पूरित हो न सर्पादि से, वसुधा में पनपे न पातकी।'
बहरहाल, इशरत के परिवार के दनादन साक्षात्कारों के बीच यह समय झारखंड में पाकुड़ जिले के एसपी अमरजीत बलिहार सहित उन छह शहीदों के परिजनों की सुध लेने का है जिन्हें नक्सलियों ने घेर कर मार डाला। जान हथेली पर ले राष्ट्रघातियों से भिड़ते रहे जवानों की अदम्य इच्छाशक्ति को पाञ्चजन्य परिवार का नमन।
टिप्पणियाँ