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कांग्रेसी नेताओं का दावा- 12 रुपए में मिलता है भर पेट भोजन!
23 जुलाई 2013 को योजना आयोग ने वर्ष 2011-12 के लिए गरीबी के आंकड़े प्रस्तुत करते हुए यह दावा किया कि अब देश में सिर्फ 22 प्रतिशत लोग ही गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। गौरतलब है कि 2004-05 में सरकारी आंकड़े 37 प्रतिशत लोगों को गरीबी की रेखा से नीचे बताते थे। 2009-10 के लिए सरकार ने यह आंकड़ा 30 प्रतिशत बताया था। यानी सरकारी दावा यह है कि 2004-05 से 2011-12 के बीच कुल गरीबों की संख्या 40.5 करोड़ से घटकर अब मात्र 26.9 करोड़ रह गई है, जिसमें से 21.7 करोड़ लोग गांवों में रहते हैं। गरीबी रेखा को परिभाषित करते हुए सरकार का कहना है कि जिस व्यक्ति की आमदनी गांवों में 27.2 रुपए और शहरों में 33.3 रुपए प्रतिदिन से अधिक है, वह गरीब नहीं है। इन सरकारी आंकड़ों के हिसाब से गांवों में 25.7 प्रतिशत और शहरों में 13.7 प्रतिशत लोग ही गरीब हैं। साफ है कि यूपीए की इस सरकार ने भद्दा मजाक करते हुए आम आदमी के सामने झूठी थाली
परोसी है।
सरकारी परिभाषा
अब यदि गरीबी की इस परिभाषा की तुलना 2009-10 की परिभाषा के साथ करते हैं, तो उस समय योजना आयोग ने यह कहा था कि गांवों में 26 रुपए और शहरों में 32 रुपए प्रतिदिन से अधिक पाने वाले लोग गरीबी रेखा से ऊपर हैं। यानी दो सालों में गरीबी की परिभाषा मात्र एक रुपया प्रतिदिन बढ़ने से ही बदल दी गई है। गरीबी की इस सरकारी परिभाषा से सरकारी आंकड़ों की प्रासंगिता पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं, क्योंकि इस बीच खाद्य पदार्थों की कीमतें ही 17 प्रतिशत बढ़ चुकी हैं। ऐसा भी माना जा रहा है कि सरकार आंकड़ों की बाजीगरी के माध्यम से 'गरीबी उन्मूलन' में अपनी 'उपलब्धि' दिखाना चाहती है।
जब सरकार ने दो साल पहले वर्ष 2009-10 के गरीबी के आंकड़े प्रकाशित किए थे, तब भी एक जनहित याचिका की सुनवाई के सिलसिले में सर्वोच्च न्यायालय ने देश में व्यापक भुखमरी और गरीबी के मद्देनजर आश्चर्य व्यक्त किया था कि सरकार गरीबी की एक नितांत अव्यावहारिक परिभाषा अपना रही है, जिसके अनुसार वर्ष 2004-05 में मात्र 37 प्रतिशत लोग ही गरीब थे। यह तो गनीमत है कि प्रो. तेंदुलकर की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ दल ने गरीबी की एक बेहतर परिभाषा दी, अन्यथा भारत सरकार की पूर्व की परिभाषा के अनुसार तो 2004-05 में मात्र 27.5 प्रतिशत लोग ही गरीब रह गये थे। प्रो. तेंदुलकर की परिभाषा के अनुसार भी वर्ष 2004-05 में शहरी क्षेत्रों में 578.8 रुपये और ग्रामीण क्षेत्रों में 446.7 रुपये से अधिक पाने वाले गरीबी की परिभाषा में नहीं आते थे।
जख्मों पर छिड़का नमक
उस समय जब सर्वोच्च न्यायालय ने योजना आयोग को इस संबंध में शपथ पत्र दाखिल करने को कहा तब भी योजना आयोग ने वर्ष 2009-10 के लिए गरीबी की परिधि में आने लायक आय को शहरी क्षेत्रों में 32 रुपये प्रतिदिन और ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रुपए प्रतिदिन ही माना था। ऐसे में जब देश में महंगाई के बोझ के तले दबी आम जनता का जीना दूभर हो गया है, सरकार के गरीबी की परिभाषा के संबंध में इस अड़ियल रुख के चलते सरकार की पहले ही बहुत किरकिरी हो चुकी थी।
योजना आयोग द्वारा हाल ही में जारी गरीबी के आंकड़ों ने तो जैसे पुराने जख्म को फिर से ताजा कर दिया है। सरकार द्वारा योजना आयोग के इन आंकड़ों को औचित्यपूर्ण ठहराया जा रहा है। योजना आयोग का कहना है कि देश में तेजी से हुई आर्थिक प्रगति और सरकार द्वारा चलाये जा रहे महात्मा गांधी नरेगा कार्यक्रम (जिसमें हर वर्ष न्यूनतम 100 दिनों के रोजगार की गारंटी दी गई है), मिड-डे मील योजना, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से खर्च के कारण यह गरीबी घटी है। गौरतलब है कि सरकार इन मदों पर खर्च को भी गरीबों के लिए किए कल्याणकारी खर्च में शामिल कर रही है। सरकार का यह भी कहना रहा है कि प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना इत्यादि के चलते भी गरीबी का प्रकोप घटा है। लेकिन यदि हम मामले की तह में जाते हैं तो पता चलता है कि वास्तव में सरकार द्वारा आज भी गरीबी की वही गलत परिभाषा अपनाई जा रही है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने घोर आपत्ति दर्ज की थी। अब भी दो सालों में गरीबी की परिभाषा को मात्र एक रुपए प्रतिदिन बढ़ाने के पीछे योजना आयोग और सरकार कोई वैज्ञानिक आधार नहीं दे पाई है। योजना मंत्री राजीव शुक्ला जब वैज्ञानिक आधार पर इन आंकड़ों को औचित्यपूर्ण नहीं दिखला पाए, तो उन्होंने यह कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया कि ये आंकड़े अंतिम आंकड़े नहीं एक विशेषज्ञ दल के अनुमान भर हैं।
यह स्पष्ट है कि परिभाषा बदलते हुए आंकड़ों की बाजीगरी से तो गरीबी को किसी भी स्तर पर लाया जा सकता है, उसमें सरकार द्वारा कोई मेहनत करने की जरूरत नहीं है। गरीबी की रेखा को बदलते हुए अचानक गरीबी को घटाने की कवायद कोई नई बात नही है। इससे पहले भी सरकार द्वारा वर्ष 1993-94 में सर्वप्रथम गरीबी की परिभाषा को बदलते हुए गरीबी के आंकड़ों को कम दर्शाने का प्रयास हुआ था, जो अभी तक चल रहा है।
तकर्ों में विश्वास का अभाव
लेकिन सरकार का यह तर्क कि गरीबी का घटना नरेगा के कारण हुआ है, शायद सही नहीं है। सरकार कहती है कि चूंकि नरेगा ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार गारंटी देता है इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 4.8 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से ऊपर उठ गये, लेकिन नरेगा और गरीबी का संबंध धरातल पर दिखाई नहीं देता और न ही ऐसा दिखाई देता है कि आर्थिक संवृद्धि गरीबी को घटा रही है। सरकार और योजना आयोग हालांकि गरीबी के इन आंकड़ों पर अड़े हुए हैं, लेकिन उनके तकर्ों में विश्वास का अभाव है। सरकार का दावा है कि गरीबी के वर्तमान आंकड़े स्वर्गीय प्रो. सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ दल द्वारा सुझाई गई परिभाषा के अनुरूप हैं। प्रो. तेंदुलकर ने वर्ष 2004-05 में गरीबी के आकलन संबंधी पूर्व के सरकारी आंकड़ों को बदलते हुए यह कहा था कि गरीबी रेखा का निर्धारण सही नहीं है और उसमें शिक्षा और स्वास्थ्य पर किए खर्च को भी शामिल किया जाना चाहिए।
लेकिन गरीबी की परिभाषा में गलती जरूर है, क्योंकि सरकार द्वारा घोषित गांवों में 27 रुपए और शहरों में 33 रुपए की परिभाषा देश में किसी के गले नहीं उतर रही। दुनिया भर में गरीबी की मान्य परिभाषा लगभग दो डालर प्रतिदिन की है, जिसके अनुसार भारत में 120 रुपए प्रतिदिन से कम पाने वालों को गरीब ही कहा जायेगा। यदि दो डालर के बजाय सवा डालर प्रति व्यक्ति की आमदनी भी ली जाए, तो भी गरीब की आमदनी कम से कम 75 रुपए प्रतिदिन होनी चाहिए। यानी किसी भी मापदंड के आधार पर सरकार द्वारा घोषित गरीबी की परिभाषा को गरीब और उसकी गरीबी के साथ भद्दे मजाक के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता।
बढ़ रही है असमानता
लेकिन एक महत्वपूर्ण विषय, जिस पर कोई चर्चा नहीं हो रही, है देश में बढ़ती असमानता। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि देश में औसत आमदनी बढ़ी है। वर्ष 2011-12 में देश की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय (चालू कीमतों पर) लगभग 61,564 रुपये प्रतिवर्ष थी, जिसका मतलब है 169 रुपए प्रतिदिन। लेकिन सरकार द्वारा घोषित गांवों में 27 रुपए और शहरों में 33 रुपए प्रतिदिन आमदनी चीख-चीख कर देश में असमानताओं के तांडव को बयान कर रही है। इसका मतलब यह है कि अर्थव्यवस्था में जिस आर्थिक संवृद्धि का दंभ सरकार भर रही है, वह गरीबी घटाने के लिये पर्याप्त उपाय नहीं है। ऐसा इसलिये है कि गरीब आदमी की आय में उतनी वृद्धि नहीं हो पा रही, क्योंकि देश में आय की असमानताओं में निरंतर वृद्धि हो रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भी 2005 से 2010 के बीच 5 वर्ष में आय में असमानता तेजी से बढ़ी है। आय की असमानताओं का सूचक 31.11 से बढ़कर 33.9 हो गया है। असमानताओं में यह वृद्धि सभी प्रांतों में दिखाई देती है। डॉ. अश्विनी महाजन (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी कालेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)
l यूपीए सरकार ने एक बार फिर आम जनता का मजाक उड़ाया है। रोजाना के खर्च में मात्र एक रुपए का बदलाव करके इस सरकार ने देश के करोड़ों लोगों के साथ धोखा किया है।
–प्रकाश जावड़ेकर, राज्यसभा सांसद, भाजपा
l यूपीए सरकार ने जो आंकड़े पेश किये हैं वे असलियत से बहुत दूर हैं।
–प्रफुल्ल पटेल, पूर्व केन्द्रीय मंत्री, राकांपा
l ये आंकड़े असल में गरीबों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसे हैं। ये इस देश के गरीबों की दयनीय स्थिति का मजाक उड़ाते हैं। (गरीबी मापने का) वे ऐसा तरीका अपना रहे हैं जिसे वे खुद सर्वोच्च न्यायालय में जमीनी असलियत से दूर मान चुके हैं।
-वृन्दा कारत, वरिष्ठ नेता, माकपा
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