एफडीआई: सैम खुश हुआ
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राजा वही है जो धन के सप्रयत्न उपार्जन, उसकी वृद्धि, रक्षा तथा वितरण में प्रवीण हो।
–तिरुवल्लुवर (तिरुवक्कुरल,385)
दुनिया गोल है, ठीक। मगर समाचारों की कतरनें जोड़कर पढ़ें तो पता चलता है कि गोलमाल कितना है।
पहली कतरन एक वर्ष पहले 12 जुलाई के अखबारों से– अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने वाशिंगटन में कहा, 'भारत में आथिर्क सुधारों की एक और लहर उठनी चाहिए।'
दूसरी खबर इस वर्ष और इसी माह के अखबारों से–अमरीकी वाणिज्य समूहों ने बराक ओबामा से मुलाकात की। उनकी चिंता अपने कारोबारी हितों को लेकर है और वे चाहते हैं कि ओबामा प्रशासन भारत पर व्यापारिक नीतियां बदलने के लिए दबाव बनाए क्योंकि इस तरह अमरीकी तिजोरी भरने के लिए कारोबार और रोजगार के नए–नए अवसर तैयार किए जा सकेंगे।'
तीसरी खबर, आप जानते ही हैं़। 16 जुलाई, 2013 को काग्रेसनीत यूपीए सरकार ने दर्जन भर अहम क्षेत्रों में विदेशियों की सीधी भागीदारी के दरवाजे खोल दिए। एफडीआई यानी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर देश की राजनीति में सहमति बनाए बगैर लिए गए ताबड़तोड़ फैसले पूरे देश ने देखे और सन्न रह गया।
सवाल एफडीआई के सही गलत होने का नहीं। यदि भारत के लिए कुछ अच्छा है तो जरूर होना चाहिए। सवाल इसे लागू करने के तरीके पर है। फैसले ना लेने के लिए बदनाम सरकार जब एकाएक हरकत में आती है और एक ही दिन में ताबड़तोड़ फैसले कर डालती है तो पृष्ठभूमि के तार जोड़ना जरूरी हो जाता हैै। यदि ये फैसले भारतीय अर्थव्यवस्था के हित में हैं तो इन्हें समय पर लागू क्यों नहीं किया गया? अर्थव्यवस्था को दुनिया से जोड़ने का काम इस देश के लिए नया नहीं है परन्तु इस बार के फैसलों में सिर्फ अमरीकी चिंताओं की गूंज क्यों सुनाई पड़ रही है? क्या इस सरकार की परिभाषा में दुनिया का अर्थ केवल अमरीकी है? गौरतलब है कि चंद रोज पहले ही हमारे वित्त और वाणिज्य मंत्री अमरीकी यात्राओं से लौटे हैं।
सोचने वाली बात यह है कि अगर अमरीकी नजर में यह सौदा उनकी तिजोरियां भरने और रोजगार को बढ़ाने वाला है तो भारत को इसमें क्या मिलेगा? यह तथ्य है कि अपने एकाधिकारवादी विस्तार के लिए खुदरा बाजार को रौंदतीं वॉलमार्ट जैसी दैत्याकार अमरीकी कम्पनियां वहां अपेक्षित नौकरियां पैदा नहीं कर सकीं। क्या इस न्योते से पहले भारतीय रोजगार परिदृश्य का मूल्यांकन और लोगों की चिंताओं का निराकरण जरूरी नहीं था? चालू खाते के घाटे को देखा जाए तो यह सकल घरेलू उत्पाद का 4.5 प्रतिशत तक जा पहुंचा है। अगर इसे देश की डांवाडोल आथिर्क स्थिति का पैमाना माना जाए तो हम खतरे में पड़ी अर्थव्यवस्थाओं की कतार में खड़ेे हैं। ज्यादा चिंता की बात यह है कि एफडीआई पर हाल के फैसलों को देश की प्रगति से जोड़ने की बात ही गलत है। असल में यह विदेशी देनदारी को डॉलर से पाटने के लिए उठाया गया फौरी कदम है, आथिर्क समस्याओं का स्थाई समाधान नहीं। डा. मनमोहन सिंह अब लाख फायदे गिनाएं परन्तु यह सच है कि अंकल सैम की बीमारियों का इलाज भारत से करने के चक्कर में उन्होंने डॉलर के मुकाबले रुपए के रसातल में पहुंचने तक का इंतजार किया।
वैसे, शायद यह सेंध इतनी बड़ी है जिसे डॉलर और रुपए की खाई से परे भी देखना होगा। खुद सरकार का एक पक्ष विदेशियों के लिए हर क्षेत्र में इतनी उदारता बरतने के खिलाफ था। गृह मंत्रालय ने रक्षा और दूरसंचार जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में विदेशी निवेश को एक सीमा से ज्यादा बढ़ाने का विरोध किया था। ऑपरेशन प्रिज्म के तहत अमरीका टेलीकॉम कम्पनियों के जरिए भारत की जासूसी कर रहा है, यह बात पूरी दुनिया को मालूम चल जाने के बाद भी सोनिया कांग्रेस ने टेलीकॉम क्षेत्र में उसकी राह के बचे–खुचे कांटे हटा दिए हैं।
पी.वी. नरसिंह राव के कार्यकाल में बतौर वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने शुरुआत की एफडीआई से, दूसरी बार प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी पारी का अंत भी वे एफडीआई से कर रहे हैं। इतिहास में उन्हें एक ऐसे 'प्रशासनिक' व्यक्ति के तौर पर याद किया जाएगा जो भारतीय राजनीति में रहा तो सिर्फ और सिर्फ अमरीकी हितों की राह बनाने के लिए।
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