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चावल पके या नहीं, यह देखने के लिए, पूरी देग नहीं पलटी जाती, दो–चार दाने परखने से हाल पता चल जाता है। चार लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनावों के नतीजे नमूने के ऐसे ही चावल हैं। पता चल रहा है कि जनमानस में क्या पक रहा है।
इन नतीजों में भारतीय लोकतंत्र के दो सबसे बड़े गठबंधनों–संप्रग और राजग– के सबसे बड़े घटक दलों के भविष्य की गूंज छिपी है। दरअसल, कांग्रेसी जनाधार की यह छीजन और भाजपा की धमक अनायास नहीं है। राज करते–करते 'राष्ट्र' भुला बैठी सरकार लोगों को मंजूर नहीं, ये नतीजे संभवत: इसी तथ्य की मुनादी कर रहे हैं।
देश में समय–समय पर अलग–अलग दलों की सरकारें हो सकती हैं। काम करने के तरीके अलग–अलग हो सकते हैं। सोच अलग–अलग हो सकती है। मगर जब बात देश चलाने की हो तो लक्ष्य एक ही होना चाहिए–राष्ट्रहित। विडम्बना है कि संप्रग सरकार की सोच और कामकाज से 'राष्ट्रहित'श्का यही मूल तत्व जनता को गायब दिखता है। करीब दशक भर पहले जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने सत्ता की कमान संप्रग को सौंपी थी तब आर्थिक प्रगति का आंकड़ा दहाई अंक छूने से बित्ता भर दूर था, आज यह रफ्तार आधी रह गई है। देश कराह रहा है, जबकि संप्रग की झोली भ्रष्टाचार के आंकड़ों से अटी हुई है। भ्रष्टाचार की रकम में इतने शून्य कि देश की प्रगति शून्य हो गई। इतनी कालिख, इतने करतब, यह सब हुआ देश की कीमत पर। जनता को ये सारे शून्य दिख रहे हैं।
पूर्व 'कैग' विनोद राय ने देशहित की ही तो बात की थी। कोयला खदान आवंटन की कालिख, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला और राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर लिखी कलंक कथा का बारीक ब्यौरा उन्होंने ईमानदारी से देश के सामने रख दिया। दृ़ढता से तथ्यपूर्ण बात सामने रखने वाला यही शख्स संप्रग को चुभता रहा। कपिल सिब्बल और वी.नारायणसामी जैसे मंत्रियों ने तो उनकी भूमिका पर सवाल तक उठाए। राय की विदाई के बाद नए 'कैग' की दबे–ढंके नियुक्ति 'राष्ट्रहित में' सरकार की मंशा बताती है। बोफर्स से कई गुना बड़े अगस्ता हैलीकॉप्टर सौदे, जिसमें इटली के दलाल जुड़े हैं, की जांच उस नए 'कैग' को करनी है जिसके रक्षा सचिव रहते कई सौदों पर सवाल खड़े हुए। यह अपारदर्शिता और मनमानी भी जनता को दिखती है।
एनसीटीसी पर राज्यों के विरोध को नजरअंदाज कर नया केन्द्रीय तंत्र गढ़ने की कोशिश की भी पड़ताल जरूरी है। प्रधानमंत्री को सलाह देने वाली, राष्ट्रीय सलाहकार परिषद जैसी असंवैधानिक संस्था खड़ी करना, उसमें नक्सलियों के प्रत्यक्ष हिमायतियों को भरना और फिर भारत की बात करना, देश को यह दोगलापन दिखता है।
उग्रवादरोधी सख्त कानून तुष्टीकरण के चलते खत्म करने वाले और इस कानून के तहत आतंकी गतिविधियों में दोषी ठहराए संजय दत्त जैसे व्यक्ति के पक्ष में खड़े लोग जब आतंक पर नकेल कसने की बातें करते हैं तो खोखलापन उजागर हो ही जाता है। जनता को मुम्बई धमाके दिखते हैं, एके-47 दिखती है और संजय के पैरोकार भी।
एक मराठी कहावत है- ऊंट पर बैठकर की जाने वाली चोरी झुककर नहीं छुपाई जा सकती। लड़खड़ाती विकास दर, भरती झोलियों और नक्सलियों के मानवाधिकारों की बात करने वालों का सच जनता को दिखता है। ऊंट पर कौन बैठा है, यह जनता देख चुकी है और उपचुनाव के नतीजे भी यही दिखा रहे हैं।
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