प्रोटीन मिले तो क्या इंसान इंसान को भी खाएगा?
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l संयुक्त राष्ट्र खाद्य कृषि संगठन– (एफ.ए.ओ.) का सुझाव है कि अब मनुष्यों को कीड़े–मकोड़ों को भी अपना प्रिय खाद्य बना लेना चाहिए।
l उसके अनुसार कीड़ों–मकोड़ों में प्रोटीन, विटामिन और मिनरल की काफी मात्रा होती है।
l आधुनिक विद्वत परम्परा के अनुसार एफ.ए.ओ. के सुझाव का विरोध करने वाले दक्षिणपंथी और मूर्ख कहे जाएंगे।
l कीट–पतंगे, मेढ़क, छिपकली, गाय, भैंस, बकरी, कुत्ते, बिल्ली सबके सब प्रोटीन से युक्त हैं, होने भी चाहिए। पर मनुष्य भी प्रोटीन से युक्त है, तो क्या मनुष्य मनुष्य को भी खाएगा, सिर्फ प्रोटीन स्रोत के लिए?
l भारत को विश्व को बताना चाहिए कि कीट–पतंगे, गाय–भैंस और सभी प्राणी सृष्टि के इंद्रधनुषी अंग–रंग हैं। हम मनुष्य सांसारिक वैविध्य को नष्ट करके एकाकी नहीं जी सकते।
प्रकृति में लाखों तरह के प्राणी हैं। भारतीय पुराणों के अनुसार 84 लाख योनियां हैं। आधुनिक विज्ञान भी करीब 85-86 लाख जीवधारी बता रहा है। प्रकृति हजार दो-हजार या लाख-10 लाख किस्म के प्राणी बनाकर ही संतुष्ट नहीं हुई। पक्षीवर्ग में ही हजारों प्रजातियां हैं। हम साधारण लोग अनेक पक्षियों, तितलियों, कीट-पतंगों के नाम भी नहीं जानते। प्रकृति ही जानती होगी कि लाखों जीव और प्रजातियां गढ़ने का मूल कारण क्या है! लेकिन पृथ्वी सबको जगह देती है। मनुष्य छोड़ कोई दूसरा प्राणी अपने आकार से ज्यादा जगह नहीं घेरता। हाथी बड़ा प्राणी है लेकिन वह भी एक साधारण मनुष्य के साधारण घर से कम जगह घेरता है। सभी जीव पृथ्वी परिवार के सदस्य हैं, सबको अपना जीवन पूरा करने का अधिकार है।
हिंसक पशु भले ही बाकी कमजोर प्राणियों का यह अधिकार न स्वीकार करें, लेकिन सभ्य मनुष्य जाति को सभी जीवों के जीवन के मौलिक अधिकार को स्वीकार करना चाहिए। पर मांसाहारी लोग सभी प्राणियों को जीने का अधिकार नहीं देते। गाय, भैंस, बकरे, सुअर खाए ही जा रहे थे कि इसी बीच संयुक्त राष्ट्र खाद्य कृषि संगठन- (एफ.ए.ओ.) की नई सलाह आई है। सुझाव है कि अब मनुष्यों को कीड़े-मकोड़ों को भी अपना प्रिय खाद्य बना लेना चाहिए। इस संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय संस्था के तर्क बड़े खतरनाक हैं। उसके अनुसार कीड़ों-मकोड़ों में प्रोटीन, विटामिन और मिनरल की काफी मात्रा होती है। एफ.ए.ओ. ने खाद्य उद्योग से अपील की है कि वह कीड़ों के खाद्य रूप में इस्तेमाल करने के तरीके सोचें। उसके अनुसार कीड़े पौष्टिक होते हैं। उन्हें भोजन के रूप में अपनाने के उसने तमाम फायदे गिनाए गये हैं। ऐसे में कल्पना करिए जब भारत जैसे शाकाहार प्रधान देश में भी सुबह के नाश्ते में तली हुई टिड्डी, तितली या बर्र के नमकीन होंगे। उबली या तली मक्खियां प्रिय आहार होंगी। छिपकली का आचार होगा, चीटियों के शरीर में पाए जाने वाले अम्ल की खटास होगी। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कीड़ो-मकोड़ों को खिलाने का काम करेंगी। आधुनिक विद्वत परम्परा के अनुसार एफ.ए.ओ. के सुझाव का विरोध करने वाले दक्षिणपंथी और मूर्ख कहे जाएंगे ही। मैं स्वयं को इसी लायक समझता हूं।
अन्तरराष्ट्रीयता की सनक
भारत में पिछले बीसेक दशक से अंतरराष्ट्रीय होने की सनक सवार है। कीड़े-मकोड़े खाने की सलाह अन्तरराष्ट्रीय स्तर की है। अनेक देशों में यह चलन है भी। सो इसके अभाव में यहां हीनभाव आएगा। कीट और मीट में अंतरराष्ट्रीयता का स्वाभिमान है। वे कीट खाएं, कुत्ते का मीट खाएं और हम चावल का पोहा? पोहा में क्या है? कीड़े-मकोड़े चबाने में जो प्रोटीनी ताकत है वह घुइंया और आलू खाने वाले हीनभाव से लैस लोगों में कहां होगी? कीड़े-मकोड़े का नाश्ता अंतरराष्ट्रीयता है, चावल का पोहा या आलू पराठा निरा देशी गंवारू नाश्ता।
लेकिन राष्ट्रीयता या अन्तरराष्ट्रीयता की तुलना हीनता/श्रेष्ठता हमारा लक्ष्य नहीं है। मूलभूत प्रश्न यह है कि धरती, समुद्र और आकाश, जितने मनुष्य जाति के हैं, उतने ही बाकी सभी प्राणियों के भी क्यों नहीं है? तितलियों को पंख फैलाकर अलग उड़ने का अधिकार क्यों नहीं है? मेढ़क टर्र-टर्र क्यों न करें? ऋग्वेद के ऋषियों ने मेढ़कों को 'व्रतचारिणा' कहा है, नमस्कार किया है। हमारे पूर्वजों ने उनकी ध्वनि मंत्रों जैसी सुनी हैं। कवियों ने भवरें-भ्रमर को गाते हुए सुना है, कोयल के गीतों की प्रशंसा की है। मधुमक्खियां फूल-फूल डोलती हैं, रस लाती है। गाते हुए गुनगुनाते हुए रससंचय करती है। ऋग्वेद के ऋषि ने पहली दफा इस रस को 'मधु' कहा। मधु स्वाद ऐसा भाया कि एक ऋषि ने खूबसूरत मंत्र में मधु प्यास दर्ज की।
जीव और भारतीय चिंतन
भारतीय संस्कृति में सबका आदर है। अथर्ववेद के एक सूक्त में रेंगने वाले एक जीव को अपनी ओर आता देखकर ऋषि कहता है, 'आपके काटने से शरीर में लाल चकत्ते पड़ जाते हैं, जलन होती है। हमारी ओर न आओ। आपको नमस्कार है, जहां सुख हो वहां विचरण करो।' वैदिक ऋषि सांपों को भी प्रणाम करते हैं। वैदिक काल का समाज सबके स्वस्थ जीवन का प्यासा था। इसी अनुभूति से भारत की प्रज्ञा, सोच, आचार और विचार का विकास हुआ। भारत का यही ज्ञान, यूनान पहुंचा, अरब और जर्मनी भी गया। सारी दुनिया में भारतीय संस्कृति व दर्शन के तत्वों का सम्मान हुआ। भारत को विश्व को बताना चाहिए कि कीट-पतंगे, गाय-भैंस और सभी प्राणी सृष्टि के इन्द्रधनुषी अंग-रंग हैं। हम मनुष्य सांसारिक वैविध्य को नष्ट करके एकाकी नहीं जी सकते। क्या ऐसे संसार में रहा जा सकता है जहां बुलबुल या कोयल न हो? तितली, गौरैया, कौआ, कबूतर या बगुले भी न हों? भेड़ बकरी, गाय-भैंसे और घोड़े भी न हों? सिर्फ और सिर्फ मनुष्य ही हों?
प्रकृति का कोई भी जीव अनावश्यक नहीं है। इंग्लैण्ड की संवैधानिक परम्परा का सूत्र है, 'किंग कैन डू नो रांग – (राजा कोई गलती नहीं करता।) भारतीय दर्शन का स्वर्णसूत्र है – अस्तित्व गलती नहीं करता। आस्था वाले लोग अस्तित्व की जगह परमात्मा, ईश्वर या अल्लाह रख सकते हैं। अस्तित्व में प्रत्येक जीव की भूमिका है। मनुष्य क्यों भूखा है? सब अपना भाग खा रहे हैं, सब प्रकृति के परस्परावलम्बन में है। भारतीय चिंतन में मनुष्य काया को अन्नमय कोष कहा गया है। गीता में कृष्ण ने अर्जुन को बताया, 'प्राणी अन्न से हैं। अन्न वर्षा से और वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ सत्कर्मों के पर्याय हैं।' प्रकृति में एक मोहक यज्ञ चक्र चल रहा है। यही 'इकोलाजी' है। कीट-पतंगे, मेढ़क, छिपकली, गाय, भैंस, बकरी, कुत्ते, बिल्ली सबके सब प्रोटीन से युक्त हैं। होना भी चाहिए। मनुष्य भी प्रोटीन से युक्त है। तो क्या मनुष्य मनुष्य को भी खाएगा, सिर्फ प्रोटीन स्रोत के लिए? अंतरराष्ट्रीय संस्था का यह विचार भयावह है।
'पलकों पर इन्द्रधनुष' लोकार्पित
कोलकाता की सुप्रतिष्ठित साहित्य संस्था श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय द्वारा प्रकाशित कवि डा. अरुण प्रकाश अवस्थी की काव्यकृति 'पलकों पर इन्द्रधनुष' का गत दिनों लोकापर्ण हुआ। इस अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार डा. कृष्ण बिहारी मिश्र ने कहा कि अवस्थी जी ने वीर-रस के प्रतिष्ठित कवि होते हुए भी सामयिक संदर्भों पर, व्यंग्य विधा पर तथा कविता के अन्य रूपों-गजल और मुक्तक, छन्द पर साधिकार लिखा है।' यह उनकी प्रतिभा का परिचायक है। 'बंगाल को हिन्दी का तीर्थराज बताते हुए उन्होंने आगे कहा कि कोलकाता हिन्दी का प्रतिष्ठित केन्द्र है, साहित्यकारों की साधना स्थली है-बैसवाड़ा की विभूति निराला ने कोलकाता से जुड़कर अपनी साहित्यिक प्रतिभा को तराशा एवं अखिल भारतीय प्रतिष्ठा अर्जित की। बैसवाडे की उसी विरासत के समर्थ वाहक हैं डा. अरुण प्रकाश अवस्थी।' साथ ही उन्होंने मन की पीड़ा व्यक्त की कि कोलकाता में अंतरंग साहित्यिक गोष्ठियों के माध्यम से रचनाकारों को जो ऊर्जा मिलती थी, उसमें आज कमी आयी है।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि एवं पश्चिम बंगाल के पूर्व पुलिस महानिदेशक श्री दिनेशचन्द्र वाजपेयी ने कहा कि वर्तमान चुनौती भरे समय में किसी काव्य-कृति का प्रकाशन सचमुच महत्वपूर्ण है। साहित्यकारों को सम्मानित करके ही समाज अपनी गुणवत्ता का परिचय देता है। पर दु:ख है कि समाज में साहित्यकारों को यथोचित सम्मान नहीं मिल रहा है। समारोह के मुख्य वक्ता आईआईटी (खड़गपुर) के राजभाषा अधिकारी डा. राजीव रावत ने लोकार्पित कृति की विविध कविताओं की मार्मिकता पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि कृति का शीर्षक 'पलकों का इन्द्रधनुष' कवि की संवेदनशीलता की स्वत: व्याख्या करता है।
हृदय नारायण दीक्षित
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