जाति का धर्म से कोई सम्बंध नहीं
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जाति-प्रथा का धर्म से कोई संबंध नहीं है। किसी भी व्यक्ति की जीविका पैतृक होती है, बढ़ई बढ़ई के रूप में उत्पन्न होता है, सुनार सुनार के रूप में, श्रमिक श्रमिक के रूप में और पुरोहित पुरोहित के रूप में। किन्तु यह तो अपेक्षाकृत एक नूतन सामाजिक कुप्रथा है, क्योंकि केवल 1000 वर्ष से ही उसका अस्तित्व है। जैसा इस देश के या अन्य देश के लोगों को लग सकता है, भारत में समय की इतनी अवधि बहुत बड़ी नहीं जान पड़ती है। दो तरह के दानों का विशेष रूप से आदर होता है, विद्या-दान और जीवन-दान। किन्तु विद्या का दान प्रधान है। किसी की जान बचाना बहुत अच्छा है, ज्ञान देना उससे भी अच्छा है। द्रव्य के लिए शिक्षा देना बुरी बात है और ऐसा करने वाले व्यक्ति पर विद्या का धन से विनिमय करने का कलंक लगता है। जैसे विद्या कोई पुण्य वस्तु हो। समय-समय पर सरकार शिक्षकों को अनुदान देती है और इसका नैतिक प्रभाव उसकी अपेक्षा कहीं अच्छा होता है, जैसा समान स्थिति में कतिपय तथाकथित सभ्य देशों में होता है।
'हो सकता है, कोई राष्ट्र समुद्र की लहरों को जीत ले, भौतिक तत्वों का नियंत्रण कर ले, जीवन की उपयोगितावादी समस्याओं का विकास उच्चतम सीमा तक कर ले, फिर भी हो सकता है, वह यह न अनुभव कर पाएं कि जिसने स्वार्थ को पराभूत करना सीखा है, सर्वोच्च प्रकार की सभ्यता उसी व्यक्ति में हो सकती है। पृथ्वी के किसी अन्य देश की अपेक्षा यह भावना भारत में अधिक सुलभ है, क्योंकि वहीं भौतिक सुखों को आध्यात्मिक स्थित से निम्न कोटि का माना जाता है, और व्यक्ति हर सजीव वस्तु में आत्मा के प्रकाश के दर्शन की चेष्टा करता है, और इसी निमित्त प्रकृति का अध्ययन करता है। इसीलिए दुर्जय धैर्य के साथ निर्दय दैव के विधान जैसी लगनेवाली जो भी स्थिति उसकी हो, उसे सहने की उच्च प्रवृत्ति दिखायी पड़ती है। साथ ही वहां अन्य किसी भी जाति की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्ति और ज्ञान की पूर्ण चेतना भी अधिक है। इसीलिए इस देश और जाति का अस्तित्व बना है, जहां से ज्ञान की ऐसी अनन्त धारा वही है, जो दूर-दूर के चिंतकों का ध्यान आकृष्ट करती रही है और उन्हें अपने कंधों को एक कष्ट देने वाले पार्थिव भार से मुक्त करने की प्रेरणा देती रही है। उस प्राचीन राजा ने, जिसने ईसा से 260 वर्ष पूर्व यह आज्ञा निकाली थी कि अब रक्तपात न हो, युद्ध न हों, और जिसने सौनिकों के स्थान पर धर्मशिक्षकों की एक सेना भेजी थी, बुद्धिमानी का कार्य किया, यद्यपि इससे भौतिक बातों से देश की हानि हुई। यद्यपि देश केवल पाश्विक बल प्रयोग से दूसरों को पराभूत करने वाले बर्बर राष्ट्रों के अधीन है।'
भारतीय मानव की आध्यात्मिकता टिकी है और उससे उसे कोई छीन नहीं सकता। अपनी आत्मा को उज्ज्वलतर गन्तव्य की ओर बढ़ाते हुए दारुण भाग्य की मर्मपीड़ाओं और दु:खों को सहन करने में जनता की नम्रता में कुछ ईसा जैसा तेज है। ऐसे देश को विचारों का उपदेश देने के लिए ईसाई पंथ प्रचारकों की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनका पंथ ऐसा पंथ है, जो लोगों को भगवान के सभी जीवों के प्रति, चाहे वे मनुष्य हों या पशु, सौम्य, मधुर, विचारशील और प्रेमशील बनाता है। नैतिक दृष्टि से, भारत के समक्ष संयुक्त राज्य या संसार का कोई अन्य देश बौना मात्र है। यह अच्छा होगा, यदि पंथ-प्रचारक आकर पवित्र जल का पान करें और देखें कि वहां की पवित्रात्माओं के समूहों का जीवन एक महान समाज पर क्या प्रभाव रखता है।
प्राचीन काल में जब सहशिक्षा प्रणाली फल-फूल रही थी, स्त्रियों को क्या सुविधा दी जाती थी। भारतीय ऋषियों के विवरणों में महिला ऋषियों का भी स्थान है। ईसाई पंथ में सभी पैगम्बर हुए हैं, जबकि भारत में धर्मग्रन्थों में महात्मा स्त्रियां एक प्रमुख स्थान रखती हैं। गृहस्थ की उपासना के पांच लक्ष्य होते हैं। उनमें से एक विद्या पढ़ना और पढ़ाना है। दूसरा मूक जीवों की उपासना है। अमरीकनों के लिए इस दूसरी उपासना को समझना और यूरोपियनों के लिए इस भावना का मूल्यांकन करना कठिन है। अन्य राष्ट्र सामूहिक रूप से पशुओं की और एक-दूसरे ही हत्या करते हैं, और इस प्रकार वे रक्त के एक सागर में निवास करते हैं।
आतिथ्य की भावना- भारत की स्वर्णिम भावना-को व्यक्त करती एक कथा है। दुर्भिक्ष के कारण एक ब्राह्मण उसकी स्त्री और उसकी पुत्रवधू ने कुछ समय से भोजन नहीं पाया था। परिवार का प्रधान बाहर निकला और खोज के बाद उसे थोड़े से जौ मिले। वह उसे घर लाया और उसके चार भाग किए और वह छोटा सा परिवार जब उसे खाने ही वाला था, तो द्वार पर दस्तक सुनायी पड़ी। बाहर एक अतिथि था। अन्न के चारों भाग उसको अर्पित किए गए और वह अपनी भूख शांत करके चला गया। उसका सत्कार करने वाले वे चारों व्यक्ति भूख से मर गए। भारत में यह कथा यह प्रदर्शित करने के लिए कही जाति है कि आतिथ्य के पवित्र नाम पर किसी सीमा तक जाना चाहिए।
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