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बीजगणित की खोज का श्रेय भारतवासियों को है। ईसा से कई सौ साल पहले भारत में यज्ञ आदि अनुष्ठान होते थे, जिनकी वेदियों का निर्माण बीजगणित के सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता था। समकोण, विषमकोण, त्रिभुजों के बारे में पूरी जानकारी वैदिक ऋषियों को थी। भारत के दो ऋषियों भास्कराचार्य तथा आर्यभट्ट को बीजगणित के सिद्धान्तों के प्रतिपादन का श्रेय प्राप्त है। भास्कराचार्य ने करणी चिन्ह (रेडियल साइन) सहित बीजगणित के कई सिद्धान्त खोजे। उन्होंने ऋणात्मक राशियों की अवधारणा तथा क्रमचय (परम्युटेशन), संचय (कांम्बीनेशन) जैसे नियम भी बनाए और 2 का वर्गमूल ज्ञात किया। आठवीं शताब्दी में भारत में ही द्वितीय श्रेणी के अनिर्धारित समीकरणों का हल खोजा गया, जबकि यूरोप के विद्वान समीकरण के सिद्धान्त अठारहवीं शताब्दी में खोज पाए। बीजगणित में जिस पाइथागोरस के सिद्धान्त कि समकोण त्रिभुज में कर्ण का वर्ग, उसी त्रिभुज के आधार एवं लम्ब के योग के बराबर होता है, इसे आर्यभट्ट ने बहुत पहले ही खोज लिया था। यही नहीं आर्यभट्ट ने त्रिभुज, समलंब चतुर्भुज एवं वृत्त के क्षेत्रफल को ज्ञात करने के नियम भी खोज लिए थे। आर्यभट्ट ने किसी वृत्त की परिधि व उसके व्यास का अनुपात 'ग' का मान भी प्रतिपादित किया था।
भास्कराचार्य ने चलन फलक की आधारशिला रखी थी। आर्यभट्ट के ग्रंथ 'सूर्य सिद्धान्त' में ऐसी 'त्रिकोणमितीय' प्रणाली के बारे में बताया गया है, जो यूनान के विद्वानों को भी नहीं मालूम थी। बीजगणित के सिद्धान्त, भारत से ही यूरोप के देशों में पहुंचे। 'बीजगणित' को 'अलजेब्रा' की उत्पत्ति दी गई है, जो अरबी भाषा के 'अलजाबर' शब्द से बना है। कुछ विदेशी विद्वान 'अलजेब्रा' की उत्पत्ति यूनान में हुई मानते थे किन्तु अब प्रमाणों ने यह साबित कर दिया कि भारत ही 'बीजगणित' का जन्मदाता है। चौहान
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