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स्वतंत्रता नहीं परिपूर्णता

by
Jun 22, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Jun 2013 15:08:53

 

ब्रह्माण्ड विराट है। इसकी हरेक इकाई परस्पर अन्तरसम्बन्धित है। सृष्टि प्रकृति में परस्परावलम्बन है। इकाईयां स्वतंत्र नहीं हैं। न मनुष्य, न कीट पतंगा, न वनस्पतियां, नदियां और न ही पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, मंगल और शनि जैसे ग्रह-उपग्रह। सब अन्तरसम्बन्धित हैं। ब्रह्माण्ड एक जैविक एकात्मकता है- आर्गेनिक यूनिटी। इसके घटकों में अन्तरविरोध नहीं अन्तरसम्बन्ध ही हैं। स्वतंत्रता असंभव है, परतंत्रता आभासी है, मुक्ति अंतिम भारतीय अभीप्सा है। बाकी अभिलाषाएं मृगतृष्णा हैं। वैदिक और बुद्ध दर्शन में बंधन या परतंत्रता का मुख्य कारण अविद्या है। अविद्या अज्ञान नहीं है। उपनिषद् के ऋषि बड़े साहसी थे। उन्होंने ऋग्वेद सहित समूचे वैदिक वांग्मय को भी अविद्या बताया और आत्मबोध को विद्या। स्वयं को स्वतंत्र इकाई जानना अविद्या है और स्वयं को अनन्त का भाग जानना विद्या। विद्या ही मुक्ति है – सा विद्या या विमुक्तये।

इण्डिया इन्टरनेशनल सेन्टर, दिल्ली में पिछले दिनों 'मृगतृष्णा' नाम के उपन्यास के विमोचन में प्रसिद्ध साहित्यकार गंगा प्रसाद विमल के साथ मुख्य अतिथि था। विमल जी ने 'मृगतृष्णा' के हवाले स्त्री विमर्श के गम्भीर प्रश्न उठाये। उपन्यास की नायिका परिवार संस्था को चलाने में जूझती रहीं। उसने असह्य कष्ट उठाए। उसका जीवन प्रगाढ़ रूप में दुखमय रहा लेकिन उसने विद्रोह नहीं किया। वह समय से ही टकराती रही। विमल जी ने भारतीय साहित्य के अनुभूति जगत् की प्रशंसा की। ठीक बताया कि सिनेमा और राजनीति में पुत्र परिवार अपने पिता की जगह ले लेते हैं, साहित्य का क्षेत्र पवित्र है। यहां ऐसा नहीं होता। उनके बाद मैंने ऋग्वेद के एक प्रसंग के हवाले ऋषि अगस्त्य और उनकी पत्नी लोपामुद्रा की वार्ता उद्धृत की। ऋग्वेद में लोपामुद्रा के रचे सूक्त हैं। लोपामुद्रा ने पति अगस्त्य से स्त्री सुख न देने का उलाहना किया था। स्त्री विमर्श प्राचीन काल में भी है। लेकिन परिवार संस्था के भीतर है। परिवार का कोई भी सदस्य स्वच्छंद नहीं है। सब परिवार के भीतर हैं। सबके भीतर परिवार का प्रवाह है।

परिवार का मूलाधार है विवाह। विवाह भी संस्था है। यह परिवार संस्था के पहले है। विवाह ही स्त्री पुरुष को पत्नी-पति बनाता है। स्त्री पुरुष दो हैं। विवाह के बाद वे एक हैं। भारतीय भाषाओं में दो से बने इस एक का नाम 'दम्पत्ति' है। दुनिया की किसी अन्य भाषा में पति-पत्नी को मिलाकर एक साझा नाम देने वाला कोई शब्द शायद नहीं है। ऋग्वेद में माता पृथ्वी और आकाश पिता को भी एक बताया गया है और दोनो का साझा नाम है रोदसी। विवाह संस्था बड़ी प्रीतिकर है। यह पुरुष-स्त्री को पति-पत्नी बनाती है और प्रगाढ़ प्यार मिलन के बाद दोनो को माता पिता भी बन जाने के अवसर देती है। आधुनिक स्त्री विमर्श में नारी का स्वातंत्र्य उसकी भावनाए हैं लेकिन माता नदारद है। माता ही सम्पूर्णत्व और परिपूर्णत्व है। पति-पत्नी सम्बन्ध परस्पर समर्पण पर आधारित हैं। विवाह संस्था इन सम्बन्धों का स्थायी आधार हैं लेकिन ये सम्बन्ध भावुक रूप में जटिल भी हैं। यथार्थ रूप में आनंददायी भी है। विवाह से परिवार मिलता है। सामान्य देह सम्बन्धों से अस्थायी सुख भले ही मिलता हो लेकिन स्थायी दुख की गारंटी है। स्त्री-पुरुष के दैहिक सम्बन्ध इतिहास के हरेक काल में जटिल रहे हैं। भारतीय वांग्मय की अनेक नायिकाएं परिवार में रहते हुए विद्रोह करती रही हैं। द्रोपदी महाभारत की नायिका है। उसने सभा में ही पुरुष वर्चस्व को ललकारा था। उसने कहा था कि पत्नी ही अमरत्व का क्षेत्र है। पति पत्नी के साथ मिलकर संतान के माध्यम से स्वयं को अमर करता है।

'मृगतृष्णा' भारतीय चिन्तन साहित्य का लोकप्रिय तत्व है। यह शब्द भर नहीं है। तृष्णा मनुष्य जीवन का स्वभाव है। सो तृष्णा बेचैन भी करती है। यह तत्व या पदार्थ नहीं है। सो प्रत्यक्ष नहीं है। यह कहा-कही या सुनी सुनाई बात भी नहीं है। यह अनुभूति का तत्व है। वैदिक ऋषि तृष्णा की ताकत जानते थे। वे स्वयं तृष्णा युक्त थे। गहन जिजिवीषु थे। 100 शरद जीना चाहते थे। वह भी पड़े-पड़े नहीं, गतिशील कर्मरत रहकर। उन्होंने अवनि-अम्बर नापा था। वे अनुभूति के उपकरण से 'लैस' थे। उन्होंने तृष्णा को जाना था, यह वैयक्तिक थी लेकिन सबमें थी। उन्होंने कर्म श्रम को जीवन का धारक जाना और समग्र ब्रह्माण्ड की शक्तियों को श्रमफल का दाता। श्रमफल प्रकृति और विश्व की शक्तियों का परिणाम होता है। कर्म हमारे निजी प्रयास होते हैं। इसलिए तृष्णा के बारे में सजगता की जरूरत होती है। समग्रता और सम्पूर्णता की अनुभूति में ही आनंद है बाकी दु:ख ही दु:ख। संसार की दु:खमयता का बोध उपनिषद् के ऋषियों को था, बुद्ध दर्शन का मूलाधार ही दुख और तृष्णा है। ऋषियों और बुद्ध ने तृष्णा की दुर्निवार पीड़ा से मुक्ति के उपाय बताए थे। तृष्णा गहन दुखदायी है। भारतीय चिन्तन में मुक्ति संधान की अनेक विधाएं हैं।

सुख की चाह तृष्णा है। तृष्णा शब्द बड़ा गहरा है। बुद्ध दर्शन के 'दुख समुदाय' में इसकी ताकत बड़ी है। यह अविद्या की प्रेरक है। श्रीराम भारत के मन के महानायक और मर्यादा पुरुषोत्तम थे। वे इतना तो जानते ही थे कि सोने के मृग नहीं होते। राजपुत्र थे, वाल्मीकि के अनुसार वेद विज्ञान के पारंगत थे तो भी वे स्वर्ण मृग के पीछे भागे। यह मृगतृष्णा ही थी। प्रत्यक्ष अविद्या थी। भारतीय साहित्य सर्जकों ने श्रीराम को भी तृष्णा से मुक्त नहीं किया। यह अलग बात है कि श्रद्धालुओं ने इसे लीला बताकर संतोष कर लिया। ईशावास्योपनिषद् उपनिषत् साहित्य में प्राचीनतम है। यहां ऋषि की अभीप्सा बड़ी गहरी है। कहता है 'सत्य का मुख स्वर्ण पात्र से ढका हुआ है। हे देव पूषन! स्वर्ण पात्र हटाओ, मैं सत्य का दर्शनाभिलाषी हूं। 'स्वर्ण प्रतीक है सांसारिक तृष्णा का। आभासी कंचनमृग का। मृग तृष्णा हटे तो सत्य की दीप्ति। सहस्त्रों सूर्यों का प्रकाश। गीता के अर्जुन को विराट पुरुष के दर्शन के समय हजारों सूर्यों का प्रकाश दिखाई पड़ा। विश्व के प्रथम परमाणु परीक्षण के समय भी 'रेडिएंस आफ थाउजैन्ड्स सन्स' की टिप्पणी की गई थी। स्त्री की परिपूर्णता मां है। मां सर्जक है, जननी है। भारतीय चिन्तन में परमसत्ता को मां जैसा ही कहा गया है। मां नहीं, मां जैसा। मां तो सिर्फ मां है। ईश्वर को पिता कहने की बाते बहुत बाद की हैं।

ईसाइयत के उद्भव के बहुत पहले ही भारत में मां दिव्य है, देवता है, देवी है, पिता बाद में देवोभव हुआ। ईसाईयत ने ईश्वर को पिता ही कहा। मां समझने के लिए विशेष अनुभूति की जरूरत थी। स्त्री श्रद्धा है। वह जननी है। इसीलिए वह प्रथमा है। वही सृष्टि की आधारभूत चेतना है। वह पोषक है। वह सृष्टि सृजन के अनन्त कर्म को सतत् प्रवाह देती है। ऐसी मातृशक्ति स्वतंत्र या परतंत्र कैसे हो सकती है? वह आदि शक्ति है, प्रथम वरेण्य है। लेकिन नए स्त्री विमर्श में स्वतंत्रता पर ज्यादा जोर है परस्पर पूरकता पर कम। बेशक स्वतंत्रता उत्कृष्ट जीवन मूल्य है लेकिन सृष्टि के सारे अणु परमाणु, ऊर्जा के सारे आयाम जब परस्पर अन्तरसम्बन्धों में ही हैं तो इसका कोई एक घटक छिटक कर अलग कैसे हो सकता है? नदियां अपने प्रवाह में स्वच्छंद बहती दिखाई पड़ती हैं लेकिन अंतत: जाती है। समुद्र में है। क्या समुद्र में जाना उनकी विवशता या परतंत्रता है? शायद नहीं। समुद्र में जाना और समुद्र हो जाना उनकी परिपूर्णता है। इकाई होना अपूर्णता है, समग्र होना पूर्णता है।

हृदय नारायण दीक्षित

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